बाप-बेटे की इमोशनल इंस्पिरेशन कहानी है संजू- मंजर आलम

कलाकार: रणबीर कपूर, परेश रावल, अनुष्का शर्मा, विकी कौशल, दीया मिर्जा, मनीषा कोईराला, जिम सर्ब
निर्देशक: राजकुमार हिरानी 
निर्माता: विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी
संगीत: ए. आर. रहमान व अन्य
रेटिंग: ★★★★ (4 स्टार)
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'संजू' बाप बेटे के भावनात्मक रिश्ते की कहानी है। अगर आप कहेंगे 3 घण्टे में ही किसी की जीवन की कहानी बनाकर परदे पर पेश कर दी जाय तो वह लगभग नामुमकिन है। बोयपिक बनाते समय कहानी ज्यादा लंबी न हो जाये इसलिये टाइम स्पेस के हिसाब से कहानी को कम्प्रेश करना पड़ता है। संजू के जीवन के विभिन्न कड़ियों को जोड़ने के लिए हिरानी ने कुछ नए किरदार जोड़ कर रचनात्मक आजादी ली है। मसलन अनुष्का शर्मा द्वारा निभाया गया किरदार हिरानी और अविजात हैं। विकी कौशल द्वारा निभाया गया किरदार संजय के दो तीन करीबी दोस्तों का मेल है और मुख्यतः परेश घिलानी पर आधारित है। फिल्म में तीन चीजे जो हिरानी को फिल्म बनाने में मजबूर करता है। पहला बाप-बेटे का रिश्ता दूसरा दोस्ती और तीसरा कवेस्चन मार्क!
बाप के लिगेसी के आगे दब जाना है संजू की कहानी। जुलाई 1994 में संजू को आर्म्स एक्ट के तहत संजू को जेल जाना पड़ा। देश के मशहूर हस्ती और सांसद होने के बावजूद वह अपने बेटे को बचा नही सकें।


संजू के पिता सुनील एक इंटरव्यू में कहते हैं, जिंदगी में जो मिलता है वो होता है, हमने उसको बर्दाश्त किया। ढिंढ़ोरा नहीं पीटा। संजू में मर के फिर जीने की हिम्मत उनके पिता से मिली।


सुनील कहते है कि यदि आजादी के बाद सड़क पर लेट कर हम अपने को ऊपर उठा सकते हैं। जेल में बिता रहे अपने बेटे को कहते है कि बेटा! तू फेस कर।

सुनील दत्त से जब पूछा गया कि इतना सब कुछ हो रहा तो आप किसको दोष देंगे। दत्त साहब इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि वह अपने किस्मत को दोष देंगे। अंडरवर्ल्ड के साथ दोस्ती पर दत्त साहब कहते है कि कलाकर है। सभी से मिल सकता है।
वैसे उन जमानो में फिल्म इंड्रस्टी में अंडरवर्ल्ड की तूती बोलती थी। संजय दत्त इस तरह के लोगों से दोस्ती के सवाल पर फिल्म में 'डर' का कारण बताते हैं। संजय की ड्रग्स एडिक्शन की कहानी भावनात्मक रूप से काफी झकझोर देती है। संजय पहली बार ड्रग्स कॉन्फिडेंस बढ़ाने के लिए लेते हैं। और फिर संजू की जिंदगी में कई सिज़्यूएशन ऐसे आते है जिससे कि वह ड्रग्स एडिक्ट हो जाता है। माँ के कैंसर के बारे में जब उसे पता चलता है तो वह ड्रग छोड़ना चाहता है कुछ महीने ऐसे गुजारता भी है लेकिन बिना ड्रग उसकी हालात ख़राब होने लगती है। न चाह कर भी वह ड्रग लेता है और ड्रग के ओवरडोज़ में ऐसा हो जाता है कि अपनी माँ की मौत भी उसे हकीकत नहीं लगता।
संजू खुद कहते है कि वह अपने पिता से ज्यादा माँ के करीब रहें हैं। लेकिन फिर भी वह ड्रग्स की लत से इस कदर डूब चूका होता है कि उसे कुछ भी समझ ही नही आ रहा था। उसके आँखों से ठीक से आंसू भी नही बहता। नशे की लत में उसे कुछ समझ नहीं आता है। नरगिस के मौत के तीन साल बाद संजय एक टेप में माँ की आवाज सुनता है। और टेप सुनने के बाद वह लगातार चार दिन रोता रहता है।


एक पिता के तौर पर सुनील दत्त का संघर्ष काफी प्रेरणादायक रहा है। सुनील दत्त द्वारा दिए गए कई इंटरव्यू में अपने बेटे के संघर्षों पर काफी बात करते है। बेटे कैसा भी हो अपने पिता के लिए शान रहता है। संजू के बुरे आदतें और बुरे दौर में भी पिता ने संजू का हाथ हमेशा थामे रहा। रिहैब में भेजने से लेकर कोर्ट-पुलिस के चक्कर तक। सभी जगह से सिर्फ उम्मीद ही छोड़कर आते हैं। पिता के अंदर में अपने बेटे के लिये जो भावना रहती है वह कई बार जगज़ाहिर नही करते। लेकिन अपने बेटे के लिए हमेशा से प्रोटेक्टिव ही रहते है।

संजू की जीवन की निर्णायक घटनाएं पर बनी यह फिल्म संजू को कुछ हद तक परिभाषित करती है। बचपन, नशे की लत, लड़कियों की लत, अवैध हथियार, बम विस्फोट और फिर से फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित होना। आपको बहुत कुछ देखने को मिल जायेगा। सिनेमेटोग्राफी, लोकेशन, संगीत और स्क्रीनप्ले सब कमाल का है। और हो भी क्यों न हो हिरानी की यह पांचवी फिल्म है। और वह अपने प्रोडक्ट को फाइनल करने से पहले कई एंगल से जांचते हैं। संजू को हटा कर एक सामान्य आदमी को भी रखे तो भी आपको पूरी कहानी काफी प्रेरणा देगी। ड्रग्स की लत छोड़ने से लेकर बाप से रिहैब में जाने की फरियाद तक। और खुद को साबित करने की ललक। चाहें इंडस्ट्री में या कोर्ट में। आपको रुला देगी। झकझोर देगी।

 फिल्म देखने के बाद लोग कह रहे कि अभी बहुत कुछ देखा जाना बाकि था..खुद संजय ने प्रियमीयर के समय मूवी देखा तो कहा कि और भी पार्ट बनना चाहिए..लेकिन इसपर हिरानी ने कहा कि अक्सर बायोपिक वन टाइम ही बनते हैं। बाकि रनबीर ने शानदार काम किया है। रणबीर और विक्की कौशल के शानदार एक्टिंग के लिए भी एक बार देखी जा सकती है।
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करीब एक साल बाद ब्लॉग पर लौटा हूँ। वापस आकर अच्छा लगा। कोशिस रहेगी की लिखता रहूँ।
काफी दिन बाद दोस्तों संग पटना में मूवी देखी। कुछ महीनों के पटना प्रवास के दौरान हम और मोहित जी साथ मिलकर काफी फिल्में देखी थी। फिर वह मूमेंट क्रिएट करना काफी ऊर्जा भरा वाला रहा। मोहित जी, कुंदन जी, अभय जी और धीरज आप सभी का धन्यवाद। आप लोगों ने मुझे हद से ज्यादा समर्थन किया। अपनत्व का ऐसा एहसास हम सबों में जान फूंक देता है। हाँ, इस दौरान अंकित पांडेय जी को विशेषतौर पर मिस किया।




गोपालगंज के डीएम राहुल सर के द्वारा चलाये गये जन अभियान और उनके रचना से फैला मनमोहक सुंगंध पर एक चर्चा


Written by Manjar Alam
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डीएम जिले का कप्तान होता है। वह अपने लगन, ईमानदारी, धैर्य, संयम, कर्तव्यनिष्ठ और कठिन परिश्रम से उच्च प्रशासकीय पद पर बैठा व्यक्ति अपने प्रभाव और कार्यो से समाज को सोंच एवं दिशा दे सकता है। राहुल सर ने अपने कार्यो एवं उदहारण से समाज को आगे बढ़ाने में जो गति दी है वह निश्चिन्त ही हमारा समाज एक सफल और महत्वकांक्षी यात्रा पूरा करेगा। इसके इतर राहुल सर को जो अलग ऊंचाइयों पर ले जाता है वह उनका सौम्य एंव सरलता हैं। आपने नेशनल टीवी में राहुल सर को पहली बार कब देखा था ? याद है ? अगर गोपालगंज से बाहर रहते हो तो आपको शायद बिहार में हो रहे अच्छे प्रशासनिक कार्यो को याद करेंगे तो निश्चिन्त ही गोपालगंज के डीएम राहुल कुमार याद आ रहे होंगे। यदि आप गोपालगंज के वासी है तो आप इनका परिचय जान ही रहे है। अचानक से नेशनल टीवी में एक चेहरा दिखाया जाता है जिसकी कार्यशैली की तारीफ पूरा देश करने लगा। टीवी में दिसंबर 2015 की वह तस्वीर दिखाई जा रही थी जिसमें डीएम राहुल सर सुनीता के हाथ का बना खाना खा रहे थे। यह कहानी कल्याणपुर गांव के एक स्कुल की है जहां मिड डे मील का खाना कुछ लोगों ने यहां खाना बनाने वाली सुनीता को काम से यह कहकर हटा दिया था कि वह ‘अपशगुन’  है क्योंकि वह विधवा है। लेकिन डीएम राहुल सर ने खुद उसके हाथ का बना खाना खाकर लोगों का यह अंधविश्वास तो़ड़ दिया और सुनीता को दोबारा नौकरी पर बहाल कर दिया।

खुले में शौच मुक्त बनाने का उन्होंने जो जन आंदोलन छेड़ा जो अब सफलता की नई इबारत लिख रहा हैं। 2016 में दिये एक इंटरव्यू में राहुल सर बताते है, 'जिले को पूरी तरह शौचमुक्त बनाने से पहले हम लोगों की सोच बदल रहे हैं। शुरुआत में मैंने गाँव-गाँव चौपाल व पंचायत में लोगों से बातचीत की। वे मान भी गए। गंदगी और फिर गाँव में बीमारी फैलने की बात भी स्वीकार की। पर आदत तो आदत। फिर हमने गाँव में रात में ठहरना शुरू किया। भोर में मैं और मेरे दल के सदस्य निकलते और गाँव के बड़े-बुजुर्गों से बात करते। क्योंकि इसके बाद उनसे संपर्क नहीं हो पाता था। वे खेतों में काम करने चले जाते थे। धीरे-धीरे ग्रामीणों से संपर्क बढ़ा और लोग खुले में शौच न करने के लिए जागरूक हुए।'

राहुल सर द्वारा चलाये जा रहे अभियान को आप प्रगति होते हुए देख सकते हैं। मार्च 2017 का महीना हो या जुलाई-अगस्त का पिछले साल की भांति इस साल भी इस काम में तेजी लाने के लिए विशेष सप्ताह का आयोजन करते रहे। 1 से 8 जुलाई तक गोपालगंज जिले में स्वच्छता सप्ताह का आयोजन हुआ और फिर एक बार और खुले में शौच से आज़ादी' सप्ताह 9 से 15 अगस्त को मनाया गया। समय समय पर इस अभियान में कमी न हो इसी 8 सितंबर को राहुल सर साइकिल से ही शहर से करीब 6 किलोमीटर दूर सदर प्रखंड के बसडीला गांव पहुंचे। यहां डीएम खुद हाथों में कुदाल लेकर मिट्टी की खुदाई करने लगे। खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित करने के लिए गोपालगंज के डीएम राहुल सर की यह पहल कामयाब होता दिख रहा है। अब पंचायत के लोग खुद ही आगे बढ़कर पंचायत को खुले में शौच मुक्त कर देने की बात कर रहे हैं।

इस चलाये जा रहे अभियान में समय समय पर सभी 14 प्रखंडों में जिला प्रशासन के द्वारा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया जता है। मेरे पिता जी इसी जिले के बरौली प्रखंड में कार्यरत है। और इन अभियानों से हो रहे जागरूक प्रभाव को पिता जी के माध्यम से करीब से समझने-जानने का मौका मिला। पिछले साल जब दिल्ली में था और उसी दौरान डेस्क पर जब गोपालगंज के डीएम राहुल सर द्वारा चलाये जा रहे अभियान को पढ़ा तो उत्सुकता जगी। और घर आकर इस विषय पर बात हुई। डीएम राहुल सर की इस अभियान में जो अहम कड़ी है वह ज्यादा से ज्यादा लोगों से सीधा संवाद स्थापित करना, उन्हें शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित करना, खुले में शौच से मुक्ति, स्वच्छ भारत मिशन, लोहिया बिहार स्वच्छता अभियान तथा स्वच्छता के अन्य आयामों के बारे में जागरूक करना।
सभी दिक्कतों के बावजूद गोपालगंज खुले में शौच मुक्त बन रहा है।

ये सारे वो काम रहे जिन्हें मिडिया में खूब जगह मिला। हालांकि मैं जानता था कि राहुल सर लिट्रेचर में लाइफ टाइम कोर्स किये है। इतना हम सब जानते है कि उनका साहित्य के प्रति अद्भुत प्रेम और लगाव है। सिविल सर्विस की परीक्षा में हिंदी जैसे बेहद कठिन विषय लेना और फिर पुरे भारत वर्ष में 36वां स्थान प्राप्त करना बहुत परिश्रम, लगन और समर्पण दीखता है। राहुल सर के फेसबुक पोस्ट अक्सर आते रहते हैं ज्यादातर वे जिले में चल रही प्रशासनिक गतिविधियं को ही साझा करते हैं। मगर इसी दौरान जब वह कुछ लिखते है, उनकी रचना में जो मिठास है आप पढ़ते वक़्त उस रचना के सागर में खुद को तलाश रहे होंगे।
हालफिलहाल में दो ऐसे रचना जो सोशल मीडिया में खासा चर्चित रहा।
पहला गौरी लंकेश के लिए लिखा गया कविता-
जवाब जब मुश्किल हो 
सवाल को ख़ामोश कर देना
ज़माने की नई रीत है,
तमाशबीनों के शहर में
ज़ुबाँवालों की ख़ामोशी
उनकी जीत है! 
दूसरा-
अमित मसूरकर द्वारा निर्देशित और राजकुमार राव एवं पंकज त्रिपाठी जैसे सितारों से सजी फिल्म 'न्यूटन' जो भारत के तरफ से ऑस्कर के लिये चयनित है। इस मूवी को राहुल सर ने कम शब्दों में ही 'न्यूटन' फिल्म की खूबसूरती को बयां कर दिया है कि क्यों यह फिल्म ऑस्कर के लिये चयन किया गया है।
राहुल सर का रिव्यू-
‪Newton एक आख्यान है- अंतिम व्यक्ति के लिए लोकतंत्र के अर्थ का, बिना Loud हुए सिनेमाई ताक़त का, विचारधारा को impose करने के युग में विचारधारा से मुक्ति का, एक ही Time/Space में बोध के स्तर पर सदियों के फ़ासले का, ईमानदारी की सहजता का धीरे धीरे दुर्लभ और फिर अजूबा हो जाने का। सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए ये फ़िल्म।पंकज त्रिपाठी अभिनय की बारीकियों को काफ़ी सहजता से निभाते है एवं इस फ़िल्म में उनकी देहभाषा से यक़ीन होता है कि एक स्टार अभिनेता का अभ्युदय हो चुका है। राजकुमार राव नई सिनेमा की खोज हैं और फ़िल्म दर फ़िल्म वह इसे साबित करते रहे हैं। रघुवीर यादव तो ख़ैर पुरानी शराब हैं ही, अंजलि पाटिल ने भी प्रभावित किया है।अमित मासुरकर ने निर्देशकों की नयी पौध में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है।
उम्मीद है कि आप ऐसे ही रचना लिखते रहेंगे।

ऐसा नहीं है कि अभी पिताजी गोपलगंज में पदस्थापित है तो इसलिये इनके बारे में जान पाया। अगर मैं अपने घर बेतिया भी रहता तब भी हम तक राहुल सर की उपलब्धियां पहुँच जाती। क्योंकि सकारात्मक एक ऐसा ऊर्जा है जो लोगो को आपस में जोड़ती चली जाती है।

हमने शहीदों का सम्मान करना सीख लिया हैं !!!

जवानों की शहादत  ( मौत कहूँ या शहादत) सर्वोच्च होती हैं। हम क्यों इतना फिक्र करते हैं ? क्या हम उनकी शहादत को समझ रहे हैं? क्या हमने सोंच, विचार, लिख - बोलकर शहादत के पीछे को जानने का अवसर दे दिया हैं। हमने
शहादत की आड़ में कमियां छुपाना सिख लिया हैं ।
बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि वह पाकिस्तान के नाम का उपयोग ग्राम चुनावों से लेकर विधान सभा, लोकसभा में कैसे करेगी।
कहाँ हमने जाना कि सैनिकों को आधुनिकता की जरूरत हैं। इसी आतंकवादी हमला मे अगर फायरप्रूफ टेंट का इस्तमाल होता तो नुकसान को कम किया ही जा सकता था। ढ़ेर सारे देशभक्ति गीत, आंसू बहाकर कुछ दिन बाद भूल जायेंगे। हमें तो फैन में बांट दिया गया हैं। कोई खांग्रेसी हैं तो कोई भक्त, कोई सिकुलर हैं तो कोई कट्टर। राजनीति ने फैन पैदाकर अपने लिये चुनौती खत्म कर दिये। अब यह कोई पूछने नहीं जाता कि ऐसा वह क्यों कर रहे हैं। हमने अपने सरकार से सवाल करने के बजाय सवाल पुछनों वालों को खदेड़ना सिख लिया हैं। हमें अब मंजूर नही कि कोई उसके खिलाफ बोले जिसके हम फैन हैं। पाकिस्तान को दोष देकर बेशक परंपरा निभाइए और अपनी गलतियां छिपा लीजिए
कश्मीर में पर्यटन बढ़ने लगा था। कर्फ्यू हट रहे थे।
राष्ट्रवाद और आतंकवाद क्या एक दूसरे के पूरक है ? कौन यहाँ चुप बैठा है ? अगर तुम हथियार इकट्ठे करोगे तो मैं क्यों नहीं?
जैसा हमेशा से होता आया है इस बार भी पाकिस्तान ने अपना हाथ होने से इंकार किया। सरकार ने कह दिया, हमले के पीछे जो लोग भी हैं, उन्हें हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा। इस बार सरकार ने  पहले से भी ज्यादा कड़े शब्दों में इसकी निंदा कर दी है। सरकार रूस से लेकर फ्रांस अमेरिका सब जगह घूम आई है लेकिन पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करवाते रह गई।

गिरिराज सिंह कहते थे, "अगर आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होते तो हम लाहौर तक पहुँच गए होते।"
अमित शाह अप्रैल 2014 में कहे, "अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान के घुसपैठिए सीमा लाँघने की हिम्मत तक न कर पाएँगे।"
अब इनकी बुद्धि कहाँ चली गई हैं ?

नरेंद्र मोदी ने जो वक्तव्य दिये हैं अगर लिखने लगुं तो न जाने कितने और पन्नों की जरूरत पड़ेगी।
देश तो कबसे एकजुट है फिर एक्सन क्यों नहीं।
फिर तो हम पाकिस्तान से ज्यादा समझदार और ज़िम्मेदार भी है।
हमेशा की तरह मीडिया चैनलों ने ईंट से ईंट बजाकर अपना काम पूरा कर दिया हैं। बाकि अभी अंग्रेजी में रात 9 बजे प्राइम टाइम में डिस्कस कर युद्ध जितने की घोषणा कर दी जायेगी। उन टीवी एक्सपर्टों को नमन जो कहते हैं, रणनीति को गोली मारो,युद्ध करो। हमने शहादत को फेसबुक लाइक से तौलना सीख लिया है।