राष्ट्रवाद पर बहस
-प्रो. निवेदिता मेनन
राष्ट्रवाद पर मेरे जो विचार हैं, उस बारे में सबसे पहले हम भाषा से बात शुरू करते हैं. कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में सवाल किया गया था कि क्या एक राष्ट्र बनने के लिए एक भाषा की जरूरत नहीं है. उस सवाल का जवाब आयशा कीदवई ने उस वक्त दिया था. लेकिन मैं भी दूंगी. जवाब ये है कि एक राष्ट्र को एकजुट करने के लिए अगर एक भाषा होनी चाहिए तो वो भाषा कौन-सी होगी? कौन-सी जुबान होगी? और कौन तय करेगा कि कौन सी जुबान उस देश की जुबान होगी.
होता क्या है कि जब कोई भी निर्णय लिया जाता है कि एक देश के लिए किसी एक चीज की जरूरत है, चाहे वो भाषा हो, कॉमन सिविल कोड हो या कोई दूसरी चीज, तब वो चीज ताकतवर तबकों की संस्कृति से उठाई जाती है. हम ये देखते हैं कि हमारे देश में जब किसी एक चीज की मांग की जाती है कि ये हमारे राष्ट्र की है तो वो ज्यादातर सवर्ण तबकों का, जो कि हिंदी भाषी क्षेत्र में हैं, वहां की संस्कृति, वहां के जो मूल्य हैं, उनको भारतीय माना जाता है.
अगर आप कभी भी संसदीय बहस को देखेंगे कि हिंदू कोड बिल आदि के दौरान सांसद जो दक्षिण भारत से हैं, जिनके नाम श्रीनिवासन हैं, घोष, सुब्रमण्यम हैं, जो वहां के सवर्ण हैं, उदाहरण के लिए- कहते हैं कि हमारे यहां लड़कियों के घर पर जाना वर्जित नहीं है. तब कोई श्रीवास्तव, कोई अग्रवाल उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है कि ये भारतीय नहीं है. आपके बंगाल में होता होगा, आपके केरल में होता होगा, तमिलनाडु में होता होगा, लेकिन ये भारतीय नहीं है क्योंकि हमारे यहां किसी ब्याही हुई लड़की के यहां हम पानी तक नहीं पीते. इस तरह हिंदी को भी हमारी भाषा कहलाने के लिए जनगणना के साथ काफी खेल करना पड़ा है. कल आयशा किदवई ने बताया था. मैंने उनसे पूछा, कितने प्रतिशत लोग जनगणना में बताते हैं कि हिंदी हमारी मातृभाषा है. बस 20 प्रतिशत लोग. इस 20 प्रतिशत को 50 प्रतिशत बनाया जाता है करीब-करीब 50 और भाषाओं को हिंदी मानकर. तो ये हम समझते हैं ‘जेएनयू जैसा लगना’. ये एक राजनीतिक खेल है किसी को किसी और की तरह लगाना.
भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, बुंदेली जैसी और भाषाएं हैं, अपनी संस्कृति है, अपना साहित्य है, इनको हिंदी के अंतर्गत लाया गया है, ये दर्शाने के लिए कि ये स्वायत्त भाषाएं नहीं हैं और हिंदी पचास प्रतिशत लोग भारत में बोलते हैं.
हम ये भी जानते हैं कि आधिकारिक हिंदी का गठन राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इन्हीं तबकों ने किया था. उसमें से उर्दू-फारसी को निकाल कर बोलचाल की हिंदुस्तानी को साफ-सुथरा किया गया और एक बहुत ही अजीब-सी, अटपटी-सी भाषा बनाई गई. आप देख रहे हैं कि हमारी बातचीत में जेंडर (लिंग) की गड़बड़ियां हो रही हैं. लेकिन अचानक मुझे याद आता है कि भाषा स्त्रीलिंग है. मलयालम में उस तरह का जेंडर नहीं है, न ही अंग्रेजी में. सरहद के उस पार पाकिस्तान में यह हुआ कि उर्दू को साफ किया गया. इस तरह हम देखते हैं कि जो राष्ट्र है वो शुद्धता मांगता है और शुद्धता के मापदंड बिल्कुल ताकतवर तबके तय करते हैं. इन तबकों से तय किया जाता है कि शुद्धता किस तरह परखी जाएगी और जाहिर है हम सब बिल्कुल अशुद्ध निकलेंगे, नापाक निकलेंगे.
जब मैं हिंदी सीखती थी, हम घर में हिंदी नहीं बोलते थे. मैं फिल्मों से हिंदी सीखती थी. जब मैंने ‘मोहब्बत’ कहा तो उसको काटकर ‘प्रेम’ लिखा जाता था. ‘कलाम’ कहा तो उसको ‘लेखन’ या कुछ कहा जाता था. ये जो निर्मम संस्कृतीकरण किया गया है, उसकी भी एक वजह है कि हम जैसे लोग जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, हम उस तरह से ठीक और शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकते.
हिंदी सीखने का मेरा हौसला तब बढ़ा जब मैं पॉलिटिकल एक्टिविज्म में उतरी और देखा कि बिहार या राजस्थान से जो कॉमरेड आते हैं, उनको कोई झिझक नहीं है, जेंडर के बारे में वे सोचते ही नहीं हैं, उनकी मातृभाषा है वो हिंदी जैसी की तैसी बोलती है. उससे मैंने भी साहस लिया.
जब हम कहते हैं कि राष्ट्र एक रोजाना रायशुमारी है, हमारा मतलब है कि राष्ट्र कोई प्राकृतिक चीज नहीं है. जेएनयू में बार-बार जो लेक्चर हुआ, आपने बार-बार सुना होगा और आप जानते भी हैं क्योंकि आप यहां के छात्र हैं. राष्ट्र का एक इतिहास होता है, तरह-तरह के समुदायों में लोग साथ रहते हैं और राष्ट्र एक खास ऐतिहासिक वक्त पर उभरता है. यूरोप में 18वीं और भारत में करीब 19वीं शताब्दी में जो राष्ट्रीय आंदोलन लड़ा गया उस दौरान एक राष्ट्र का गठन किया गया. चाहे वो सेक्युलर नेहरूवादी किस्म का राष्ट्र हो या हिंदुत्ववादी हो, जो भी हो, 19वीं सदी में ये राष्ट्र उभर कर आता है.
होता क्या है कि एक बार जब साम्राज्यवाद को हटाकर स्वराज मिल जाता है तो माना जाता है कि अब कोई सवाल उठाना बिल्कुल नाजायज है. अब तक हम उठाते रहे, लेकिन एक बार 15 अगस्त, 1947 की तारीख आ गई उसके बाद न्याय के बारे में सवाल उठाना, हमारे संसाधनों के बारे में सवाल उठाना कि संसाधनों पर किसका हक है, कोई भी सवाल उठाना अब अचानक राष्ट्रविरोधी बन जाता है. यह राष्ट्र-राज्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण खेल है कि इसके बाद आप सवाल नहीं उठाएंगे. इसके बाद आप सवाल उठाएंगे तो आप एंटीनेशनल हैं. इसीलिए सेक्शन 124 ए के तहत हमारे साथियों को एंटीनेशनल कहा जा रहा है और यह पहली बार नहीं है. देशद्रोह का आरोप कइयों पर लगा है, कई पत्रकारों पर लगा है. ये जो कानून है उसको बिल्कुल भी बदलना नहीं पड़ा, हमारे स्वतंत्र भारतीय राज्य को. आजादी के बाद कुछ बहुत ही अजीब से शब्द निकालने पड़े जैसे कि- ‘हर मैजेस्टी’ निकाला गया, ‘क्राउन रिप्रेजेंटेटिव’ निकाला गया, ‘ब्रिटिश इंडिया’, ‘ब्रिटिश-बर्मा’ निकाला गया. 150 साल पुराना कानून है यह और वही कानून है जिसे एक साम्राज्यवादी सरकार ने इसे हमारे देश में चलाया था, अब वही एक तथाकथित स्वायत्त स्वतंत्र राष्ट्र की ओर से चलाया जा रहा है.
जब हम कहते हैं कि यह एक रोजाना रायशुमारी है तब हम क्या कह रहे हैं? हम जनतंत्र को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं. हम कह रहे हैं कि सबसे बड़ा मूल्य है जनतंत्र. हम कह रहे हैं क्योंकि जनतंत्र एक प्रक्रिया है, जो जारी है, जो चलती रहती है, जो कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि जब आप समझते हैं कि अब सारे तबके इसमें आ गए, तब कोई नई पहचान खड़ी हो जाएगी कि हमारे बारे में नहीं सोचा. इसलिए लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है. जबकि राष्ट्र-राज्य को माना जाता है कि उसकी प्रक्रिया खत्म है, वो जम गया है कि ये है इंडिया. अब इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा. इसीलिए हमारे कई जाने-माने राष्ट्रवादी टैगोर से लेकर गांधी, आंबेडकर, पेरियार आदि सबने राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य को शक की नजर से देखा. टैगोर ने इस पर सवाल उठाया. आंबेडकर साइमन कमीशन से मिलकर आए जबकि बाकी सारे राष्ट्रवादी साइमन कमीशन का बायकॉट कर रहे थे, क्योंकि उनको पता था कि इस राष्ट्र राज्य में जो प्रभावी तबके हैं, ब्राह्मणवादी तत्व हैं वही राष्ट्र को अपने हित में कराएंगे. आंबेडकर समझते थे कि अगर साइमन कमीशन से दलितों को कुछ सहारा मिले तो वे साइमन कमीशन से मिलने को तैयार थे. इसी को लेकर अरुण शौरी ने उनको एंटीनेशनल कहा. पेरियार भी राष्ट्रवाद को बहुत ही शक की नजर से देखते थे.क्योंकि वो भी यही समझते थे कि ये एक प्रक्रिया कभी खत्म नहीं होनी चाहिए कि सवाल उठेंगे और ट्रांसफॉरमेशन चलता रहेगा. दलितों के लिए ब्रिटिश रूल राहत की बात थी, लेकिन इससे ब्राह्मणवाद को बहुत बड़ी चोट पहुंची और उनको कोई हिचकिचाहट नहीं है यह कहने में कि अब ब्राह्मणवाद पर वार हुआ है.
हमारा कहना है कि एंटीनेशनल किसे कहते हैं? हमारी एक बहुत गौरवपूर्ण परंपरा है. राष्ट्रवादी इसीलिए इतना सशंकित रहते हैं क्योंकि उनके राष्ट्र-राज्य और जनतंत्र में एक अंतर्विरोध है और बार-बार वह अंतर्विरोध और गहरा होता जा रहा है. जैसे-जैसे जनवादी आवाजें उठती हैं, राष्ट्रवाद उनको कुचलने की कोशिश करता है, राष्ट्रहित के नाम पर. राष्ट्रहित सिर्फ एलीट तबके के लिए है और एलीट तबके के हित को राष्ट्रहित कहा जाता है तो जाहिर है कि इसके खिलाफ कोई भी सवाल उठाएगा तो उस पर एंटीनेशनल का लेबल लग जाएगा.
हमें लगता है कि राष्ट्रवाद बहुत मजबूत चीज है, लेकिन अगर ये इतना ही मजबूत होता है कि दो या पांच लोगों में से कोई नारा लगाया तो वह खतरे में पड़ गया तो सोचिए फिर यह कितना नाजुक है. 26 जनवरी को राजपथ पर जो हम देखते हैं, वह है राष्ट्र-राज्य. और इतना डर कि चार लड़कों से हिल जाता है. वह उतना मजबूत नहीं है जितना हम समझते हैं. उस मजबूती को बनाए रखने के लिए बंदूक और टैंक की जरूरत पड़ती है.
सादिया नाम की लड़की पाकिस्तान से इंडिया आकर ओडिशी सीखती थी. उसके घर में जो औरत काम करती थी उसे कभी समझ में नहीं आता कि सादिया है कहां से. वह कभी-कभी पूछती दीदी आप हैं कहां से, सादिया कहती कि पाकिस्तान से. तब वह कहती मतलब बाहर से? सादिया उसे समझाती थी कि भारत की तरह ही एक और देश है, मैं वहां से हूं. लेकिन उसे कभी समझ में नहीं आया कि ये पाकिस्तान है क्या चीज.
ये राष्ट्र जैसी चीज कोई प्राकृतिक ज्ञान नहीं है जो कि बच्चा पैदा होते ही समझ जाता है, जैसे वो अपनी मां को पहचानता है वैसे ही राष्ट्र को फौरन पहचान लेता है. सीखना पड़ता है, हर चीज. जब औरत और मर्द बनना हमें हर रोज सीखना पड़ता है. ये जेंडर भी एक तरह की रायशुमारी है. जब इतनी प्राकृतिक चीज हमें सीखनी पड़ती है तो जाहिर है कि राष्ट्रवाद भी सीखना पड़ता है. इसीलिए बेनेडिक्ट एंडरसन ने इसको ‘काल्पनिक कम्युनिटी’ कहा. उनका मतलब ये नहीं था कि ये महज काल्पनिक है. उनका मतलब ये था कि इसका गठन करना पड़ता है. इस गठन में तरह-तरह की आशाएं, उम्मीदें और मांगें होंगी. और अगर हम इन सब चीजों को साथ लेकर नहीं चलते तो वो राष्ट्र का गठन नहीं होता.होता क्या है कि जितने लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश होती है उतने ही लोगों को बाहर करने की कोशिश होती है. क्योंकि कोई भी राष्ट्र-राज्य ये नहीं कहता कि सारी दुनिया इस राष्ट्र की नागरिक है. इसीलिए टैगोर को राष्ट्र से इतनी आपत्ति थी. जब आप किसी को हाशिये पर रखते हैं और वे आपको प्यार नहीं करते, तब आप उन्हें एंटीनेशनल कहते हैं. पहले उनको बाहर करते हैं, जब वे आपसे प्यार से पेश नहीं आते तो गलती उनकी है.
एक बार डीयू में मैंने कुछ छात्रों को बात करते सुना कि ये नगालैंड वाले इतने अजीब होते हैं कि जब दिल्ली आते हैं तो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं. मतलब वे इंडिया को अपना नहीं मानते. वह बच्चों की निजी बातचीत थी. मैं उसमें शामिल नहीं हुई. लेकिन इसका पॉइंट क्या है? हम मानते हैं कि नगालैंड भारत का भाग है लेकिन वे हमें अपना नहीं मानते. नगालैंड को अपना भू-भाग मानते हैं, लेकिन जो नगा छात्र कह रहे हैं वह हम सुनने को तैयार नहीं हैं. जब वो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं तब आप सुनिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं. नगालैंड के इतिहास को समझिए. नगालैंड हमारा है, कश्मीर हमारा है, वह पहले से हमारे देश का हिस्सा है, लेकिन उनको उस नियम से रहना होगा, जो हम कहते हैं. इसका मतलब यह है कि राष्ट्र को लोगों के पहले माना जा रहा है. राष्ट्र लोगों के पहले है. उनके दिमाग में कोई अंडा, मुर्गी वाला सवाल है ही नहीं. वो एकदम स्पष्ट हैं कि इंडिया जो है, वो है. जैसे वह किसी ईश्वर ने दिया या जैसे बारिश आती है, वैसे ही आ गया.
लेह के बच्चे वर्षों से एनसीईआरटी की किताब पढ़ते हैं. उस किताब में उनका स्थानीय कुछ नहीं है. वे पढ़ते हैं कि हिमालय हमारे उत्तर में है. सोचिए कितना कन्फ्यूजन हुआ होगा. जाहिर है कि राष्ट्र समावेशी नहीं है. राष्ट्र ज्यादातर लोगों को शामिल करने की कोशिश भी नहीं करता. क्योंकि ज्यादातर लोगों को उन जैसा बनना है जो मुट्ठी भर सवर्ण मर्द हैं, उन जैसा बनो तो यहां रह सकते हो, वरना धरती हमारी, तुम लोग पाकिस्तान जाओ. हमें ज्यादा समावेशी राष्ट्रवाद की बात करना चाहिए. नेशन की परिभाषा में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करना चाहिए. 11 मर्दों की टीम क्रिकेट मैच जीत जाती है तो हम कहते हैं कि हम जीत गए. कहते हैं कि हमारे पास परमाणु बम है, लेकिन जब नर्मदा बांध में 39 हजार लोग बेघर हो जाते हैं तब नहीं कहते कि हम डूब रहे हैं, तब हम नहीं कहते कि हम यानी हिंदुस्तान डूब रहा है.
एंटीनेशनल किसे माना जाता है? एक वो हैं जो काउंटर नेशनलिज्म प्रकट करते हैं, दूसरे वो जो विकास के खिलाफ लड़ते हैं. क्योंकि जाहिर है कि विकास है बड़े बांध, फ्लाईओवर, मॉल्स ये सब विकास है और जो जिंदगियां लोग रोजमर्रा की जीते हैं वह विकास नहीं है. नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को भी एंटीनेशनल ठहराया गया है, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को भी एंटीनेशनल ठहराया जाता है. हम लिस्ट बनाते हैं तो एंटीनेशनल की लिस्ट बढ़ती जाती है.
देखते हैं कौन-कौन एंटीनेशनल है. पूर्वोत्तर पूरा है ही एंटीनेशनल. कश्मीर है और मुसलमान तो सारे हैं ही. अभी ईसाई बन रहे हैं एंटीनेशनल. आंबेडरवादी भी हैं, कबीर कला मंच के लोग जेल में हैं, क्योंकि वे जातिवाद के खिलाफ गाना गाते हैं. तमिलनाडु तो है ही क्योंकि वो हिंदी नहीं बोलेंगे. तमिलनाडु बहुत दिनों से एंटीनेशनल है. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो किसान बोलते हैं, वो हैं एंटीनेशनल. औरतें जो जींस पहनती हैं, शराब पीती हैं, वो एंटीनेशनल हैं. जो पितृसत्ता को नहीं मानते वो एंटीनेशनल हैं. जो समलैंगिक प्यार करते हैं वो एंटीनेशनल हैं. अब इन सारे लोगों की गिनती की जाए तो हमें लगा 25 लोग हैं जो राष्ट्रवादी रह गए हैं. वे हैं 56 इंच वाले मोदी जी, अमित शाह, ‘मनु’स्मृति ईरानी और वे 22 वकील जिन्होंने कोर्ट में हम पर हमला किया. अब अगर ये 25 लोग रह गए राष्ट्रवादी तो हमें राष्ट्रवाद की बहुत चिंता करनी चाहिए.
(लेखिका जेएनयू में प्रोफेसर हैं. जेएनयू में देशद्रोही नारे लगने से हुए विवाद के बाद वहां के शिक्षकों ने राष्ट्रवाद पर एक हफ्ते तक ओपन क्लास ली.
यह लेख प्रो. निवेदिता मेनन के व्याख्यान का अंश है)
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