कौन हीरो ? कौन जीरो ?

20:19:00 Manjar 0 Comments


शाम के वक़्त हाईस्कूल के प्रांगण में बैठे मेरे मित्र 'अभिषेक' से खेलों के विषय में कुछ ऐसा ही बात कर रहें थे।
ओपी जैशा का नाम हम सब को याद रखनी चाहिए। खिलाड़ी क्यों मेडल नही ला पाये यह समझने के लिये अगर जैशा का किस्सा सुन लिये हो तो आपको समझते देर नही लगेगी। कोई क्रिकेट प्रेमी हो और वह इस खेल से अनभिज्ञ हो तो उन्हें इस लेख से दूर ही रहनी चाहिये। आखिर जान कर वह कर करेंगे भी क्या ? जैशा ओलंपिक में 42 किलोमीटर के मैराथन दौड़ में हिस्सा लेने रियो गई। एथलीटो के ट्रेनिग और उनके जरूरी सुविधा की बात तो करने से रहें, हर बात को देशभक्ति से जोड़ने वाला देश,हॉकी स्टीक लिए बाइक पर स्टंटबाजी करते हुए तिरंगा यात्रा पर निकलने वाला देश, यह देखने जांचने और पूछने की जोहमत नही उठाता कि हमारे एथलीट जरूरी सुविधाएँ लिये रियो जा रहें हैं क्या ? जैशा जब दौड़ने उतरी होगी वह इस बात को लेकर निश्चिंत होगी कि भारतीय अधिकारी उसकी मदद के लिए तैयार बैठे होंगे।
42 किलो मीटर के मैराथन में राष्ट्रीय रिकार्ड होल्डर ओपी जैशा, रियो में फिनिश लाइन पर पहुँचते ही बेहोश हो जाती है और तीन घंटे बाद होश आता है ,सात बोतल ग्लूकोज चढ़ाना पड़ता है। सभी देश लगभग दो-ढाई किमी पर अपने स्टैंड लगाये हुए थे। वे वहाँ पानी, स्पंज और ग्लूकोज बिस्किट, एनर्जी ड्रिंक जैसी चीजें अपने खिलाड़ियों को मुहैया करा रहें थे। जैशा हर दो-ढाई किमी में भारतीय स्टाफ को ढूंढती और वह आगे बढ़ती रहती, वह भारतीय डेस्क को बड़े आशा से निहारती लेकिन वहां केवल झंडा और देश के नाम की तख्ती ही दिखाई देता, न ही कोई सामान और न ही कोई अधिकारी। मजबूरन जैशा को हर आठ किमी पर ओलम्पिक आयोजकों के तरफ से मिलने वाले पानी से ही रेस पूरी करनी पड़ी। जैशा को उस भारतीय डेस्क में उस देश का प्रतिनिधि नही मिला जो राष्ट्रवाद को लेकर हमेशा भावुक रहता है। अफसोस वह इस राष्ट्रवाद से वह ताकत हासिल नही कर सकी जो उसे पदक दिलाये क्योंकि इसके लिये मुकम्मल ट्रेनिंग और सुविधा की जरूरत थी।
जैशा ने इंटरव्यू में कहा कि वह लगभग मर चुकी थी..! पिछले साल बीजिंग में 2 घंटे 34 मिनट का समय लेने वाली जैशा, रियो में 2 घंटे 47 मिनट में फिनिश लाइन तक पहुँचने में सफल  हो गई।

जिस देश में लगभग सतहत्तर सौ करोड़ युवा हों वहाँ भला पदक का अकाल कैसे पड़ गया ? क्योंकि समाज सच जान गया है? कैसा सच ? यही की धर्म खतरे में है,खास धर्म के लोगो की जनंसख्या बड़ रही है और इसतरह चलता रहा तो एक दिन वे लोग बहुसंखयक हो जाएंगे। धर्म बचाओ अभियान पर लाखो रुपये खर्च किये जा रहें हैं। जगह-जगह सेमिनार कर लोगों को चेताया जा रहा हैं। नेता युवाओं से जलूस में नारे लगवा रहें है। युवाओं को नेताओं के भाषण सुन मनमुग्ध है वे भीड़ में ताली पीट कर जबरदस्त जोश दिखा रहें हैं। वहां से मुक्ति मिलते ही तुरंत सोशल मीडिया में आकर ईट से ईट बजा देते हैं। हर समय नेताओं का बचाव करते-करते धन,समय और ऊर्जा का इस्तेमाल करना सीख लिया है।  

ठीक है खेल रत्न मिलनी चाहिये इनाम मे रूपये, जमीन और नौकरियां भी मिलनी चाहिये। लेकिन करोड़ो रुपया सिर्फ एक-दो खिलाड़ी पर लूटा देना। क्या अन्य खिलाड़ियों के बीच असमानता नही पैदा कर देगा? सरकारें और कॉरपोरेट अचानक से इनामों की बारिश कर उस हिस्से को खरीदने कोशिश नही कर रही है जिसे खिलाड़ी ने अपने गौरव में जोड़ा हो । कई और खिलाड़ियों पर ट्रेनिंग के लिए पैसा खर्च किया जाता और उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दी जाती तो वह भी आज भारत के लिए पदक लाते। केवल यह दोनों खिलाड़ी ही नहीं, कई और ऐसे खिलाड़ी हैं जो बेहतर प्रशिक्षण और सुविधाएं न मिलने की वजह से पीछे रह गए। पुरस्कार से ज्यादा यह जरुरी है कि हर मोर्चे पर संघर्ष कर रहे लाखों खिलाड़ियों के लिए कुछ किया जाय। अभी जो सफलता पर इनाम देकर श्रेय खरीदा जा रहा है वह कुछ हद तक ही सही है।  मैंने ऐसा सुना है किसी को हद से ज्यादा उठा लेने से उसके अंदर से सामूहिकता की भावना नष्ट हो जाता है। सफलता जब व्यक्तिगत रह जाती तब वह कल्याणकारी नही रह जाती। सवा सौं करोड़ वाले जनसंख्या में ओलंपिक में दो मेडल गर्व इसलिये करते है क्योंकि यहां लगभग हर खेल का हेड खिलाड़ी ना होकर राजनेता बन जाता है जो बेहद सटीक खेलनिति का मुज़ाहिरा विश्व मंच पर करता है। बाकि ट्रेनिंग, सुविधा, आधारभूत संरचना का विकास बेईमानी वाली बात होगी।
ख्याल रहें केवल जैशा ही अकेली न थी अभी जो दीपा को खेल पुरस्कार मिला है उसे भी क्वार्टरफाइनल में फ़िजियो मिला।
खेल मंत्री जी का सेल्फ़ी मुझे काफी आकर्षक लगा, पता नही क्यों नेताजी को ओलंपिक वालों से डांट सुनना पड़ा।

0 comments:

फिल्म रिव्यू: रुस्तम

16:51:00 Manjar 0 Comments


निर्देशक: टीनू सुरेश देसाई

निर्माता: नीरज पांडे, अरुणा भाटिया, आकाश चावला, नितिन केनी

संगीत: अंकित तिवारी, जीत गांगुली, राघव सच्चर

लेखक : विपुल के. रावल

गीत: मनोज मुंतशिर

रेटिंग : **** (4स्टार)


12 अगस्त को रिलीज हुई साल की चर्चित फिल्मों में एक अक्षय कुमार स्टारर रुस्तम अपनी कहानी और अदाकारी से दर्शकों के नजरियों में खरी उतरती हैं। फिल्म जैसी आपेक्षा की जा रही थी वैसे ही बनी है बल्कि उससे कही ज्यादा तालियां बटोर ले जाती है। स्क्रिप्ट बेहद कसा हुआ है और स्क्रीन प्ले जो फिल्म के अंत तक आपको कुर्सी से उठने का मौका नही देती। एक धोखा खाए हुए पति का शारीरिक हावभाव कैसा रहता है ? यह आपको अक्षय कुमार के एक्सप्रेसन में दिख जाता है। अक्षय कुमार इस किरदार में बिल्कुल फिट बैठे है या यूँ कहिये कि उनमें हर किरदार को निभाने की जबर्दस्त क्षमता है। 
यह फिल्म 1959 में हुए केएम नानावती केस से प्रेरित है।
हालांकि फिल्म की रिलीज से तीन दिन पहले 12 निर्माताओं में से एक नीरज पांडे एक इंटरव्यू में यह साफ किया कि यह फिल्म 1959 के प्रसिद्ध नानावटी केस से आंशिक रूप से ही प्रभावित है। 

कहानी: 'रुस्तम' पावरी एक नेवी ऑफिसर है।  जो महीनों जहाज पर रहता है। जहाज पर एक लंबा वक्त बिताने के बाद जब रूस्तम घर आता है तो देखता है उसकी पत्नी सिंथिया (इलीना डीक्रूज) घर पर नहीं है। अलमारी से कुछ प्रेम पत्र मिलते हैं, जो रुस्तम के दोस्त विक्रम मखीजा (अर्जन बाजवा) ने सिंथिया को लिखे थे। उसे समझने में देर नही लगती उसकी पत्नी के साथ विक्रम का एक्स्ट्रा अफेयर चल रहा है। इसी बीच वह खुद को नियंत्रण नही कर पाता है और अपने दोस्त विक्रम का कत्ल कर देता है। और थाने जाकर खुद को सरेंडर कर देता है। फिर वह अदालत में अपने को निर्दोष साबित करने की दलील देता है।

फिल्म: फिल्म सभी मानकों पर खरी उतरती हैं। कोर्ट सिंस को देखते हुए अगर आप पर उदासी छा जाय तो बड़ी सरलता से मनोरंजन का छौंक आ जाता हैं। पवन मल्होत्रा और कुमुद मिश्रा और अन्य बाकि कलाकार ने बहतरीन अभिनय किया है, जिससे सभी पात्र जीवंत लगते हैं। यह फिल्म  सभी का एफर्ट मिलने से बहुत अच्छी फिल्म बन कर उभरी है। फिल्म की एडिटिंग ठीक ढंग से की गई है जो आपको बोरियत से बचाती है। सिनेमेटोग्राफ़ी प्रभावशाली होने से फिल्म आकर्षक लगता है और खुबसूरती से फिल्माया गया है। 

निर्देशन: टीनू देसाई अपने सभी एक्टर से काम लिया है। एक अच्छी स्क्रिप्ट होने से स्क्रिप्ट को हु ब हु पर्दे पर उतारना आसान नही रहता है। निर्देशक बधाई के पात्र हैं वह अपने काम को संजीदगी से निभा दिये हैं।

संगीत: गाने तो पहले से हिट हैं। तेरे संग यार कानों को सुकून देता हैं।

0 comments:

फिल्म रिव्यू : मोहनजोदड़ो

13:50:00 Manjar 0 Comments


कलाकार:  रितिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह
निर्देशक-लेखक-पटकथा: आशुतोष गोवारिकर
निर्माता: सुनीता गोवारिकर, सिद्धार्थ राय कपूर
संगीत: ए. आर. रहमान
संवाद : प्रीति ममगैन
गीत: जावेद अख्तर
रेटिंग : ***

12 अगस्त को एक साथ दो बड़ी फिल्म रिलीज हुई। यंगस्टर में जहां 'रुस्तम' को लेकर क्रेज था वही 'मोहनजोदड़ो' को ह्रितिक के फैंस फर्स्ट शो मिस करना नही चाह रहें थे।गोवारिकर ऐतिहासिक फिल्मों में भव्यता के पुट के साथ प्रेम प्रसंगों को खूबसूरती से परदों पर उतारते हैं। प्री-हिस्टोरिक इंडस वैली सिविलाइजेशन के समय को परदे पर उतार तो दिया गया है लेकिन कही भी उस काल में घटित घटनाओं को इतिहासकारों ने जो राय अपने किताबों में दर्ज की है उसकी मेल नही खाती। अगर आप इस फिल्म के माध्यम से इतिहास समझने का प्रयास करते है तो आपका प्रयास असफल हो जायेगा।

 मुअनजोदड़ो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित के लेखक थानवी लिखते है " सिंधु सभ्यता के बारे में कमोबेश सभी विशेषज्ञ अध्येता मानते आए हैं कि वह शांतिपरक सभ्यता थी। खुदाई में अकेले मुअन/मोहनजोदड़ो से जो पचास हज़ार चीज़ें प्राप्त हुईं, उनमें एक भी हथियार नहीं है। सिंधु सभ्यता को जो बात बाक़ी दो महान सभ्यताओं (मिस्र और मेसोपोटामिया/इराक़) से अलग करती है, वह है यहाँ (सभ्यता के मुअनजोदड़ो या हड़प्पा आदि बड़े केंद्रों में) बड़ी इमारतों, महलों, क़िलों, उपासना स्थलों, भव्य प्रतिमाओं आदि के प्रमाण या संकेत न मिलना। सबसे विचित्र चीज़: शोधकर्ताओं ने माना है कि सिंधु सभ्यता में घोड़ा नहीं था, उसे आगे जाकर वैदिक सभ्यता में ही पालतू बनाया जा सका। इसका प्रमाण खुदाई में मिली हज़ारों चीज़ों में शेर, हाथी, गैंडा आदि अनेक पशुओं की आकृतियों के बीच कहीं भी घोड़े की छवि न होना समझा जाता है। पर फ़िल्म एक नहीं, अनेक घोड़े हैं। 
घोड़े, पुजारी, कर्म-भेद, वेश-भूषा, अनुष्ठान आदि सिंधु/हड़प्पा सभ्यता को किसी और सभ्यता (वैदिक संस्कृति?) में रोपने की कोशिश का संदेह खड़ा करती हैं।"

चीजों की खरीद-बिक्री के लिए चीजों का आदान-प्रदान किया जाता था। और तब के समय जब गांव से आया युवक दुमंजिला भवन देखता है तो उसकी कल्पना की सारी सीमाएं टूट जाता हैं। यह सब देखना आपको रोचक लग सकता है। मोहनजोदड़ो की ख़ास पहचान ईंटों वाले कुएँ  और ड्रेनेज सिस्टम रहा है जो शहर को सिस्टमेटिक बनाता है इसकी झलक फिल्म में लाई जा सकती थी। यह फिल्म यह कहकर बच निकलती है कि ऐतिहासिक नहीं है और न किसी प्रामणिकता का दावा करती है। तो सीधे फिल्म पर आते है।

कहानी: एक ऐसा शहर जो रातों रात सिंधु नदी के पानी में समा गया। कहानी आमरी गांव के एक किसान के बेटे सरमन (ऋतिक रोशन) की है, जो चर्चित नगर मोहनजोदाड़ो जाने का सपना देखता है और एक दिन वहां पहुंच जाता है। मोहनजोदड़ो पहुंच कर सरमन की नजर चानी (पूजा हेगड़े) पर पड़ती है, जो वहां के सबसे बड़े पुजारी की बेटी है। सरमन को चानी से प्यार हो जाता है, जिसकी शादी वहां के महम से तय हो चुकी है। यहां पर राज चलता है प्रधान माहम की जो किसी की नही सुनता है। राजा और उसका बेटा के द्वारा की गई क्रूरता उसे असहज लगता है। और वह इसका विरोध करने का निश्चय लेता है।
इधर सरमन से बात करने पर पुजारी को पता चलता है कि सरमन दरअसल सुरजन का बेटा है, जिसने बरसों पहले माहम के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई थी।

फिल्म: फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स का इस्तेमाल खूबसूरती से रचा गया है जो फिल्म को आकर्षित करती हैं और बांधे भी रखती है। नरभक्षी से लड़ाई,मगरमक्ष का शिकार और डराने वाली नदियां ये सिंस को आप सीट से बिना हिले-डुले बस देखते रह जाते  है। फिल्म अपने शिल्प की वजह से ध्यान खींचती है।
अभिनय: ऋतिक रोशन सरमन के रोल में जमे हैं। पूजा हेगड़े ने भी अच्छा काम किया है। बाकि कलाकारों के लिए ज्यादा स्कोप नजर नही आता है।
म्यूजिक: गाने तो पहले से ही हिट है। बैकग्राउंड म्यूजिक कमाल का है।
निर्देशन: इंडस वैली को दिखाने के लिए आशुतोष की मेहनत और रिसर्च वर्क अच्छी कही जा सकती है क्योंकि सभी इतिहासकारों का एक राय नही है। कल्पनाओं के सहारे कथा बुना जा ही सकता है। गोवारिकर फिल्म में अपनी पकड़ बनाये रखे है। फिल्म को बड़ा पर्दा पर देखना रोमांचक लगता है।
____________________________________________
वैसे हमने किसी एक फिल्म का मन नही बनाया था जो नजदीक के सिनेमा घर में निर्धारित समय में जो भी चल रही हो वह ही देखा जायेगा। तय समय पर पहुंचने पर मोहनजोदड़ो चलने वाली थी इसलिए पहली रिव्यू मोहनजोदड़ो की।

0 comments:

GST: खूब पढ़िये ! खूब समझिये ! खूब बहस कीजिये !

20:49:00 Manjar 0 Comments


GST बिल पास हो गया। रोज-रोज का हो हल्ला भी शायद अब समाप्त हो जाये। राज्यसभा में GST पर सबने अपने विचार रखे फायदा नुकसान खूब गिनाया। सबके वोट पक्ष में ही जाने वाला था कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो की आर्थिक नीति किस तरह से अलग है ? यह  जगज़ाहिर है।
ऐसा लगता है कि आम पाठक GST को लेकर दुनिया के अनुभव को जानना नही चाहता या फिर उसने सदन के बहस को पर्याप्त मान लिया है।
जो खुद कोंग्रेस GST को लाने का प्रयास करती रही है वह इसका विरोध क्यों करेगी ? इंटरनेट पर दर्जनों लेख और रिपोर्ट है इन सब को पढ़ना पड़ेगा जो आपकी समझ का आधार रखेगा। 
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स आम उपभोक्ता से लेकर छोटी बड़ी कंपनियों और सुक्ष्म उत्पादों वाले कारखाने सभी को प्रभावित करेगा। विशेषकर केंद्र और राज्य में कर वसूली का जो मौजूदा ढांचा है उसे पूरी तरह बदल देगा।
हालांकि तकनीकी तौर पर इसे लागू करने में अभी समय है। राज्यसभा से पास होने के बाद राष्ट्रपति इसे सभी राज्यों की विधानसभा के पास भेजेंगे। जिनमें से 15 विधानसभाओं को मंज़ूरी देनी होगी। उसके बाद जीएसटी काउंसिल बनाने का काम शुरू होगा। केंद्र सरकार को दो जीएसटी कानून बनाने हैं। सेंट्रल जीएसटी और इंटर स्टेट जी एसटी। 

भारत में कुल कर संग्रह (प्रत्यक्ष & अप्रत्यक्ष) रु 14.6 लाख करोड़ की है जिनमें अप्रत्यक्ष कर लगभग 34 फीसदी शामिल हैं इन अप्रत्यक्ष कर में Rs 2.8 लाख करोड़ उत्पाद शुल्क से और सेवा कर से रु 2.1 लाख करोड़ हैं। 
 पी चिदंबरम ने सरकार से अपील की है कि सरकार बिल में ही 18 फीसदी के स्टैंडर्ड टैक्स रेट को जोड़ दे। अगर जीएसटी आने के बाद भी 24 से 26 प्रतिशत का टैक्स लगता रहे तो कोई लाभ नहीं होगा। चिदंबरम ने कहा कि जीडीपी का 57 फीसदी सर्विस सेक्टर से आता है। अगर सर्विस टैक्स 14.5 से बढ़कर 24 प्रतिशत हुआ तो महंगाई बढ़ जाएगी।
येचुरी की बारी आई तो येचुरी ने कहना प्रारंभ किया कि एक समय सदन में ही जीएसटी का रेट 27 फीसदी बताया गया था। क्या हम नहीं जानते हैं  फ्रांस में 1954 में ही जीएसटी लागू हुई थी। फ्रांस की जीडीपी 1.16 प्रतिशत है। 140 देशों में जीएसटी है। चीन की जीडीपी 6.81 प्रतिशत है, जापान की जीडीपी 0.59 प्रतिशत है, जर्मनी की जीडीपी 1.51 प्रतिशत है, ब्रिटेन की जीडीपी 2.52 प्रतिशत है।
अमेरिका में जीएसटी नहीं है। वहां की जीडीपी 2.57 प्रतिशत है।

gstindia.com नामक एक साइट है उस साइट पर "GST: Lessons from countries that have implemented the Goods and Services Tax" नाम से एक लेख पढ़ने को मिलेगा जिसे विवेक पचीसिया ने लिखा है, इ वाइ इंडिया के टैक्स पार्टनर है। विवेक लिखते हैं vat, gst का विकल्प है लेकिन पूरी दुनिया को GST से जो मुश्किलात हो रही है वह टैक्स दर है। कोई भी देश इसको स्थिर नही रख पाया है।

30 मुल्कों का एक संगठन है OECD( organization of economic co-operation and development) पिछले पांच सालो में 30 में से 20 सदस्य देशों ने अपने यहां जीएसटी की दरें बढ़ाईं हैं। यानी सबके यहाँ महंगाई बढ़ती चली गई है। अगर सरकार बोलती है मात्र तीन साल महंगाई बढ़ेगा लेकिन ऐसा प्रतीत नही होता कि तीन साल बाद रुक जाएगा। एक बार महंगाई बढ़ गई तो बढ़ती चली जायेगी।
इंडिया के तरह कैनेडा है जिसने डुअल कॉन्सेप्ट अपनाया है। inflation के दर को लेकर भी आशंका जाहिर की गई।

मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में बताया है कि 2005 से 2014 के बीच दुनिया की 25 विकसित अर्थव्यवस्था में दो तिहाई परिवारों की वास्तविक आय घट गई है या फिर सामान रही हैं। 
आपका अपना अनुभव नही बताता कि गरीब और गरीब हो रहें है। गरीब अपना सारा जमा पूंजी धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर देते हैं।  पूंजी को आकर्षित करने और रोक कर रखने के लिए टैक्स और ब्याज़ दरों में कई प्रकार की छूट दी जाती है। 
जीएसटी एक ऐसा कर प्रणाली है जो उत्पादों के उपभोग पर कर लगा देने से कर वसूली व्यापक हो जाती है। न्यूज़ीलैंड का जीएसटी सबसे आइडियल मॉडल इसलिये है क्योंकि वहां सभी उत्पादों को जीएसटी के अंदर रखा गया है। जबकि भारत में शराब, तंबाकू और पेट्रोल को जीएसटी से बाहर रखा गया है। वही शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवा शामिल है। जबकि ऑस्ट्रेलिया में इनसब को बाहर रखा गया है। यह तो तय है कि अब यहाँ स्वास्थ्य और शिक्षा अभी के अपेक्षा और महंगे हो जाएंगे। कर वसूली कमी के कारण आस्ट्रेलिया  सरकार ने पिछले दस साल में शिक्षा और स्वास्थ्य में 80 अरब आस्ट्रेलियन डॉलर की कटौती की है। तो फिर ऑस्ट्रेलिया सरकार का GST से राजस्व गया कहाँ ? फिर यह सपना बेचना बंद कर देनी चाहिए। ज्यादातर देशों में (आइडियल के करीब) इंकम टैक्स में भी इसलिये कमी की गई है ताकि चीज़ों के दाम जब बढ़े तो लोग इक्वल कर सके।
कही की भी सरकार GST इसलिये लाती है ताकि कॉरपोरेट का विश्वास जीत सके उन्हें विश्वास हो कि सरकार आम जनता से इतनी उगाही कर लेगी कि उन्हें भयंकर आर्थिक संकट का सामना ना करना पड़े। ठहराव हो । रुक कर व्ययपार कर सकें। वैसे कुछ एक्सपर्ट का मानना है कि 18000 से नीचे कमाने वाला बर्बाद हो जायेगा। उसके हाथ कुछ नही लगने वाला पर मेरा आकलन 25000 प्रति महीना कमाने वाला वस्तु और सेवा पर कर देकर उसके हाथ कुछ नही लगेगा। 
गरीब और गरीब हो जायेगा जैसा पूरी दुनिया में हो रहा है। आम लोगों का पैसा कॉरपोरेट के हवाले किया जायेगा ताकि वे स्थिर रह सकें। निःसन्देह GDP में बढ़ोतरी दर्ज होगी ही।
राज्यों के हितो पर क्या असर पर पड़ रहा है इसपर किसी और दिन बात करते हैं।

0 comments:

वक्त की रफ्तार में छूटते लोग

20:29:00 Manjar 0 Comments


            हमारे समय के सबसे बड़े लेखक सर्वाधिक व्यापक पहुँच वाले लेखक और वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धोड़पकर का लेख जो हर समय के लिये प्रासंगिक है। ख़ासकर इस पोर्टल का जो समय की रफ़्तार को इंगित करता है। इसलिए 'रफ़्तार' नाम रखा गया।
image: http://www.mohallalive.com

सन 1957 में बीआर चोपड़ा की फिल्म नया दौर आई थी, जो उस वक्त मदर इंडिया  के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म साबित हुई। नया दौर  की कथा संक्षेप में यह है कि एक कस्बे में एक बस आ जाती है, जिसकी वजह से वहां तांगे वालों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाती है। यह फिल्म बस वाले अमीर खलनायक के खिलाफ गरीब तांगे वालों के संघर्ष की कहानी है। बस और तांगे के बीच होड़ का समापन सचमुच दोनों के बीच दौड़ प्रतियोगिता में होता है। जाहिर है, अंत में तांगे वाले नायक दिलीप कुमार की जीत होती है।
नया दौर का फिल्मांकन भोपाल के पास नर्मदा किनारे के कस्बे बुडनी में हुआ था। उसमें भाग लेने के लिए भोपाल से कई तांगे गए थे। तांगा दौड़ में तो जीत गया, लेकिन वास्तविक जीवन में कहानी कुछ दूसरी तरफ चली गई। कुछ वक्त बाद ही भोपाल में काली-पीली टैक्सियां आ गईं, जिनसे तांगे वालों के रोजगार को खतरा पैदा हो गया। बताते हैं कि टैक्सियों का आना रोकने के लिए तांगे वालों ने कुछ टैक्सी वालों की हत्या तक कर दी, लेकिन इससे टैक्सियां रुकी नहीं और तांगों का चलन घटता चला गया। कुछ और दिनों के बाद ऑटो रिक्शा आ गए और उन्होंने तांगे और टैक्सियों, दोनों को शहर की सड़कों से बाहर कर दिया।
यह सब कथा याद करने की वजह ऑटो रिक्शा और टैक्सी वालों की हड़ताल है, जो इस समय दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में चल रही है। ये लोग वेब आधारित या स्मार्टफोन एप आधारित टैक्सियों का विरोध कर रहे हैं। वेब आधारित सेवाओं जैसे ‘उबर’ और ‘ओला’ ने आम नागरिकों के लिए नई सुविधा पैदा कर दी है और परंपरागत ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। रेडियो कैब आने के बाद दिल्ली की परंपरागत काली-पीली टैक्सियां लगभग जा चुकी हैं।
वेब आधारित सेवा में फायदा यह है कि आप जहां हैं, वहां से आपको सिर्फ मोबाइल से दर्ज करना होता है कि आपको कब व कहां कैब चाहिए, और आपको विश्वसनीय कैब वक्त पर मिल जाएगी। आपको हर वक्त यह भी जानकारी मिल सकती है कि आपके लिए आने वाली कैब इस वक्त कहां है, किस किस्म की कार है, उसका किराया कितना है? आपको किराये के लिए मोल-भाव करने की भी जरूरत नहीं, और भी कोई झंझट नहीं। ऑटो, टैक्सी वालों को खतरा इस बात से भी हो रहा है कि ‘उबर’ और ‘ओला’ बहुत बड़ी कंपनियां हैं, वे बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए किराये में भारी कमी कर रही हैं, जिससे लोग ऑटो रिक्शा की बजाय इन्हें पसंद कर रहे हैं।
यह औद्योगीकरण का एक दुखद, लेकिन अनिवार्य पहलू है कि जब नई तकनीक आती है, तो पुराने कई रोजगार खतरे में पड़ जाते हैं। वेब आधारित सेवाओं के खिलाफ लड़ने वाले ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों की स्थिति वही है, जो कभी तांगे वालों की थी।
जब सूचना प्रौद्योगिकी जीवन के हर क्षेत्र में आ गई है, तो उसे सार्वजनिक परिवहन में आने से कैसे रोका जा सकता था? जिन लोगों ने यह पहचाना उन्होंने उबर और ओला जैसी सेवाएं शुरू कर दीं। पहले भी तो कई लोग टैक्सी स्टैंड पर फोन करके काली-पीली टैक्सी बुलाया ही करते थे, तमाम लोगों की फोन डायरी में एक नंबर करीब के टैक्सी स्टैंड का भी होता था। उबर और ओला हजारों करोड़ रुपये की कंपनियां हैं, उबर तो बहुराष्ट्रीय कंपनी हैै। जाहिर है, यह पूंजी कैब के धंधे के मुनाफे या मुनाफे की उम्मीद से ही जुटी है। इसके अलावा इन सेवाओं के तहत कैब चलाने वाले लोगों की भी कमाई अच्छी है, क्योंकि उन्हें अच्छा-खासा काम रोज मिल जाता है। ग्राहक भी खुश हैं।
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रेडियो कैब कंपनियों को ठेका दिया गया था, लेकिन वहां से टैक्सी चलाने वाले गिरोहों ने उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। ऐसी ही कोशिश इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भी हुई थी, लेकिन हवाई अड्डा चलाने वाली निजी कंपनी ने पुलिस की सहायता से उनकी कोशिश विफल कर दी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि अंत में क्या होने की संभावना है।
हमारे दौर में यह सब ज्यादा दिखता है, क्योंकि तकनीक तेजी से बदल रही है, लेकिन यह आदिम काल से होता रहा होगा। बाबरनामा  से पता चलता है कि जब बाबर की सेना बंदूक लेकर आई, तो भारत की सीमा पर कुछ छोटे राज्यों की सेना के लोग उनके सामने डट गए, क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं था कि सामने वाली सेना के पास ऐसे हथियार हैं, जिनसे वे बारूद के जरिये वार कर सकते हैं। जब किताबों की छपाई होने लगी, तो किताबों की नकल करने का काम खत्म हो गया। अब हमारी पीढ़ी के लोगों को किताबों से कितना ही भावनात्मक लगाव हो, लेकिन हमारी अगली पीढ़ियां तो मोबाइल, कंप्यूटर और टैबलेट पर ही सब कुछ पढ़ना चाहती हैं।
तकनीक को इंसान ही बनाते हैं, लेकिन अक्सर उसे नियंत्रित करना इंसानों या सरकारों के बस में नहीं होता। जिस तकनीक का वक्त आता है, उसे फिर कोई नहीं रोक पाता। पुराने रोजगारों को बचाने के लिए दुनिया भर में साम्यवादी या अन्य अधिनायकवादी सरकारों ने कई बार नई तकनीक को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसका नतीजा यह हुआ कि पुरानी तकनीक अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर रह गई। सोवियत साम्राज्य के पतन का एक बड़ा कारण यह भी था। हमारे यहां भी कई लोगों ने कंप्यूटर के आने का विरोध किया था कि इससे रोजगार घटेंगे, लेकिन अंत में यह पता चला कि कंप्यूटर के विरोध से रोजगारों का बढ़ना कम हुआ, कंप्यूटर ने तमाम नए रोजगार पैदा कर दिए।
ऑटो रिक्शा वालों से हमें कई शिकायतें होती हैं, वे अनाप-शनाप पैसे मांगते हैं, हम जहां जाना चाहते हैं, वहां जाने से रोक देते हैं, वगैरह। लेकिन हमें लूटकर वे कोई अमीर नहीं बन जाते। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक गरीब या निम्न मध्यम वर्गीय लोग हैं, जो दिन के अंत में मुश्किल से घर चलाने लायक पैसा कमा पाते हैं। वास्तविकता यह है कि ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था व तकनीक, दोनों ही गड़बड़ है। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक उनके मालिक नहीं हैं, और वे उसका भारी किराया मालिक को चुकाते हैं। किराये और रख-रखाव पर खर्च करने के बाद उनके पास बहुत कम बच पाता है। इसी तरह ऑटो रिक्शा के विकल्प की तरह लगभग उसी कीमत के चार पहिया आरामदेह वाहन कुछ बड़ी कंपनियों ने बनाए हैं, लेकिन उन्हें किसी कारण से सड़क पर आने से रोका जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो हो रहा है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, आखिरकार बदलाव वही अच्छा है, जो सबके भले के लिए हो। यह समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि जो लोग छूट रहे हैं, उन्हें भी साथ लाने के लिए कोशिश की जाए।
जब हिंदी सिनेमा की अर्थव्यवस्था और अंदाज बदला, तो नया दौर और वक्त  के निर्माता बीआर चोपड़ा की भी फिल्में पिटने लगी थीं। लगातार फ्लॉप पर फ्लॉप फिल्में बनाने पर उनकी मायूस टिप्पणी यह थी कि क्या करें, हमें फिल्म बनाने के अलावा और कोई काम आता ही नहीं है। बाद में टेलीविजन के दौर में महाभारत   बनाकर उन्होंने वापसी की। उनके भाई यश चोपड़ा हर नए दौर में ढलते हुए कामयाब बने रहे। वक्त अपने साथ सबको बहा ले जाता है। कालाय तस्मै नम:।

0 comments: