व्यक्ति विशेष: स्टीव जॉब्स

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व्यक्ति विशेष : स्टीव जॉब्स
पूरा नाम    –  स्टीवन पॉल जॉब्स.
जन्म         –  24 फ़रवरी 1955.
मृत्यु           -  अक्टूबर 5, 2011 (उम्र 56)
पालो आल्टो, कैलिफ़ोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका
जन्मस्थान – सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमरीका.
पिता          – पॉल रेनहोल्ड जॉब्स
माता         – क्लारा जॉब्स
विवाह       –  लोरेन पॉवेल
बच्चें         – लिसा ब्रेनन जॉब्स, आयलैंड सिएना जॉब्स, ईव जॉब्स, रीड जॉब्स
व्यवसाय    - को-फ़ाउंडर, चेरमन और           सी॰ई॰ओ॰, एप्पल इंक°, पिक्सार (Pixar), को-फ़ाउंडर और सी॰ई॰ओ॰, नेक्स्ट इंक॰
पुरस्कार     -1972 में टाइम मैगज़ीन ने उनके द्वारा बनाये गये एप्पल कम्प्यूटर को मशीन आफ दि इयर का खिताब दिया।
2007 मे फार्चून मैगज़ीन ने उन्हे उद्योग मे सबसे शक्तिशाली पुरुष का खिताब दिया। उसी साल मे उन्हे 'कैलिफोर्निया हाल आफ फेम' का पुरस्कार मे उन्हे 1984 में अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा नेशनल मेडल आफ टेक्नोलॉजी प्राप्त हुआ। 2010 फोर्ब्स पत्रिका के पर्सन ऑफ दि इयर चुने गए। 2011 को बुडापेस्ट में ग्राफिसाफ्ट कंपनी ने उन्हे आधुनिक युग के महानतम व्यक्तित्वों में से एक चुनकर, स्टीव जॉब्स को दुनिया का पहला कांस्य प्रतिमा भेंट किया।जॉन कार्टर और ब्रेव नामक दो फिल्मे जाब्स को समर्पित की गयी। उनकी आत्मकथा  ‘आईस्टीव: दी बुक आफ जॉब्स’ काफी चर्चित रही।

एप्पल कम्प्यूटर और पिक्सर एनिमेशन के सीईओ स्टीव जॉब्स ने हमेशा अपने दिल की बात सुनी और दुनिया में  जो मुकाम हासिल किया,जिसके बदौलत वे पूरे सदी भर लोगो को प्रेरणा देते रहेंगे।
जॉब्स 1970 में हुई माइक्रो कंप्यूटर की क्रांति के जनक है। उन्होंने अपने सहकर्मी स्टीव वोज्निक के साथ मिलकर एप्पल की स्थापना की ।
वे पिक्सर के संस्थापक, सभापति, और साथ ही नेक्स्ट इनकारपोरेशन के सीईओ भी थे। डिज्नी ने पिक्सर का अधिग्रहण कर लिया जिसके बाद वे द वाल्ट डिज्नी कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर बने।
जॉब्स 1976 में एप्पल के सह-संस्थापक बने और एप्पल के पर्सनल कंप्यूटर बेचने लगे। जॉब्स ने रचनात्मक पर विशेष ध्यान दिया जिसके बदौलत एप्पल तेज़ी से आगे बढती गयी और पहले साल के अंत में ही पर्सनल कंप्यूटर बनाने वाली दूसरी कंपनी बन गयी।  एप्पल इतनी बड़ी मात्र में पर्सनल कंप्यूटर का उत्पादन करने वाली पहले सबसे बड़ी कंपनी बनी। 1979 में, Xerox PARC के टूर के बाद, जॉब्स ने Xerox Alto की व्यावहारिक जरूरतों को जाना, परखा, जिसने बाद में माउस का निर्माण किया और साथ ही ग्राफिकल यूजर इंटरफ़ेस (GUI) का भी निर्माण किया।
GUI को कंप्यूटर के उत्पादन में इस्तेमाल की चाह ने 1985 में एप्पल लेसनर प्रिंटर प्रस्तुत किया।
यह अतिरिक्त रंग को सपोर्ट करने वाला सिस्टम था। अपने कार्यो से निवेशकों को प्रभावित करने में सफल रहें। जिससे तेजी से निवेश आयें और कम्पनी का आय बढ़ता चला गया। वे एनीमेशन मूवी का निर्माण में भी कदम रखें, 1995 में आई फिल्म टॉय स्टोरी में उन्होंने बतौर कार्यकर्त्ता और निर्माता काम किया।
एप्पल से इस्तीफ़ा देने के बाद, स्टीव ने 1975 मे नेक्स्ट इंक की स्थापना की। नेक्स्ट कार्य केंद्र अपनी तकनीकी ताकत के लिए जाना जाता था, उनके उद्देश्य उन्मुख सॉफ्टवेयर विकास प्रणाली बनाना था।
1996 मे एप्पल की बाजार में हालत बिगड़ गई तब स्टीव, नेक्स्ट कम्प्यूटर को एप्पल को बेचने के बाद वे एप्पल के चीफ एक्जिक्यूटिव आफिसर बन गये। एप्पल से जुड़ने के बाद 1997 में एक नयी सोच के साथ कंप्यूटर का उत्पादन करना शुरू किया जिसे “Think Different" का नाम दिया। इसमें यह बात छुपी थी की जीवन में यदि हमें सफल होना है तो किसी का भी इंतज़ार किये बिना ही अकेले चलना सीखना होगा।
"Stay Hungry Stay Foolish"

सन् 1998 से उन्होंने कंपनी में बतौर सीईओ काम किया 1998 मे आइमैक बाजार में आया जो बड़ा ही आकर्षक तथा अल्प पारदर्शी खोल वाला पीसी था।
उन्होंने एप्पल के कई प्रोडक्ट्स जैसे iMac, iTunes, Apple Stores, iPod, iTunes Store, iPhone, App Store और iPad का निर्माण किया।  उनके नेतृत्व में एप्पल ने बड़ी सफलता प्राप्त की।
2003 में उन्हें पैनक्रियाटिक कैंसर की बीमारी हुई।
जिसके कारण जॉब्स को 5 अक्टूबर 2011 को इस दुनिया को अलविदा कहना पड़ा।
12 जून 2005 को स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक प्रोग्राम में शामिल हुए जहाँ उन्होंने अपने जीवन का सबसे प्रसिद्ध भाषण “Stay Hunger Stay Foolish” दिया। इस स्पीच में उन्होंने अपने जीवन से जुडी कहानियां सुनाई थी। आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहे है वह भाषण:

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक में आपके साथ होने पर मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ. मैंने कॉलेज की पढ़ाई कभी पूरी नहीं की. और यह बात कॉलेज की ग्रेजुएशन संबंधी पढ़ाई को लेकर सबसे सच्ची बात है. आज मैं आपको अपने जीवन की तीन कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ. कोई बड़ी बात नहीं, केवल तीन कहानियां.

इनमें से पहली कहानी शुरुआत होती है. रीड कॉलेज में आरंभिक छह महीनों के बाद ही मैं बाहर आ गया था. करीब 18 और महीनों तक मैं इसमें किसी तरह बना रहा लेकिन बाद में वास्तव में मैंने पढ़ाई छोड़ दी. पैदा होने से पहले ही मेरी पढ़ाई की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं. मेरी जन्मदात्री माँ एक युवा, अविवाहित कॉलेज ग्रेजुएट छात्रा थीं और उन्होंने मुझे किसी को गोद देने का फैसला किया.

वे बड़ी शिद्दत से महसूस करती थीं कि मुझे गोद लेने वाले कॉलेज ग्रेजुएट हों, इसलिए जन्म से पहले ही तय हो गया था कि एक वकील और उनकी पत्नी मुझे गोद लेंगे. पर जब मैं पैदा हो गया तो उन्होंने महसूस किया था कि वे एक लड़की चाहते थे, इसलिए उसके बाद प्रतीक्षारत मेरे माता-पिता को आधी रात को फोन पहुँचा.

उनसे पूछा गया कि हमारे पास एक लड़का है, क्या वे उसे गोद लेना चाहेंगे? उन्होंने जवाब दिया – ‘हाँ.’ मेरी जैविक माता को जब पता चला कि वे जिस माँ को मुझे गोद देने जा रही थीं, उन्होंने कभी कॉलेज की पढ़ाई नहीं की है और मेरे भावी पिता हाई स्कूल पास भी नहीं थे, तो उन्होंने गोद देने के कागजों पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और वे इसके कुछ महीनों बात वे तभी इस बात के लिये तैयार हुईं कि जब मेरे माता-पिता ने उनसे वायदा किया कि वे एक दिन मुझे कॉलेज पढ़ने के लिए भेजेंगे.

सत्रह वर्षों बाद मैं कॉलेज पढ़ने गया लेकिन जानबूझकर ऐसा महंगा कॉलेज चुना जो कि स्टानफोर्ड जैसा ही महंगा था और मेरे कामगार श्रेणी के माता-पिता की सारी बचत कॉलेज की ट्यूशन फीस पर खर्च होने लगी.

छह महीने बाद मुझे लगने लगा कि इसकी कोई कीमत नहीं है पर मुझे यह भी पता नहीं था कि मुझे जिंदगी में करना क्या था और इस बात का तो और भी पता नहीं था कि इससे कॉलेज की पढ़ाई में कैसे मदद मिलेगी लेकिन मैंने अपने माता-पिता के जीवन की सारी कमाई को खर्च कर दिया था. इसलिए मैंने कॉलेज छोड़ने का फैसला किया और भरोसा रखा कि इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा.

हालांकि शुरू में यह विचार डरावना था लेकिन बाद में यह मेरे सबसे अच्छे फैसलों में से एक रहा. कॉलेज छोड़ने के बाद मैंने उन कक्षाओं में प्रवेश लेना शुरू किया जो कि मनोरंजक लगते थे.

उस समय मेरे पास सोने का कमरा भी नहीं था, इसलिए मैं अपने दोस्तों के कमरों के फर्श पर सोया करता था. कोक की बोतलें इकट्ठा कर खाने का इंतजाम करता और हरे कृष्ण मंदिर में अच्छा खाना खाने के लिए प्रत्येक रविवार की रात सात मील पैदल चलकर जाता. पर बाद में अपनी उत्सुकता और पूर्वाभास को मैंने अमूल्य पाया.

उस समय रीड कॉलेज में देश में कैलीग्राफी की सबसे अच्छी शिक्षा दी जाती थी. इस कॉलेज के परिसर में लगे पोस्टर, प्रत्येक ड्रावर पर लगा लेवल खूबसूरती से कैलीग्राफ्ड होता था. चूंकि मैं पहले ही कॉलेज की पढ़ाई छोड़ चुका था और अन्य कक्षाओं में मुझे जाना नहीं था, इसलिए मैंने कैलिग्राफी कक्षा में प्रवेश ले लिया.

यहाँ रहते हुए मैंने विभिन्न टाइपफेसों की बारीकियाँ जानी और महसूस किया कि यह किसी भी साइंस की तुलना में अधिक सुंदर और आकर्षक हैं. हालांकि इन बातों के मेरे जीवन में किसी तरह के व्यवहारिक उपयोग की कोई संभावना नहीं थी. लेकिन दस वर्षों के बाद मैकिंतोश के पहले कम्प्यूटर को डिजाइन करते समय हमने अपना सारा ज्ञान इसमें उड़ेल दिया. यह पहला कम्प्यूटर था, जिसमें सुंदर टाइपोग्राफी थी.
अगर मैंने इस कोर्स को नहीं किया होता तो मैक का मल्टीपल टाइपफेस इतना सुंदर नहीं होता. और चूँकि विडोंज ने मैक की नकल की, इसलिए यही संभावना थी कि किसी भी पर्सनल कम्प्यूटर में यह बात नहीं होती. अगर मैंने कॉलेज नहीं छोड़ा होता तो कैलिग्राफी क्लास में नहीं गया होता और पर्सनल कम्प्यूटरों में उतनी सुंदर टाइपोग्राफी नहीं होती, जितनी है.

जब मैं कॉलेज में था तो जीवन में आगे बढ़ने की ऐसी किसी संभावना को नहीं देख पाता लेकिन दस साल बाद बिलकुल स्पष्ट दिखाई देती थी. आम तौर पर आप भविष्य में पूर्वानुमान लगाकर आगे नहीं बढ़ सकते हैं और आप इस तरह के कदमों को अतीत से ही जोड़कर देख सकते हैं.

इसलिए आपको भरोसा रखना होगा कि ये संकेत आपको भविष्य में मददगार साबित होंगे. इन्हें आप साहस, भाग्य, जीवन, कर्म या कोई भी नाम दें लेकिन मेरे जीवन में इस प्रयोग ने कभी निराश नहीं किया और इससे मेरे जीवन में सभी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं.

मेरी दूसरी कहानी प्यार और पराजय के बारे में है. मैं भाग्यशाली था कि जीवन में मुझे जो कुछ करना था, उसकी जानकारी मुझे काफी पहले मिल गई थी. वोज और मैंने एप्पल को अपने माता-पिता के गैराज में शुरू किया था और तब मैं 20 वर्ष का था.

कड़ी मेहनत से दस वर्षों में एप्पल मात्र दो लोगों की कंपनी से 2 अरब डॉलर की 4 हजार कर्मचारियों से अधिक की कंपनी बन गई. तब हमने अपना सबसे अच्छा उत्पाद 'मैकिंतोश' जारी किया था. उस समय एक वर्ष पहले मैंने 30वीं सालगिरह मनाई थी. और इसके बाद ही मुझे कंपनी से निकाल दिया गया.

जब कंपनी आपने ही शुरू की हो तो कैसे आपको इससे निकाला जा सकता है. जैसे-जैसे एप्पल बढ़ती गई, मैंने अपने से ज्यादा प्रतिभाशाली व्यक्ति को कंपनी चलाने के लिए रखा. एक साल तक सब कुछ ठीक चलता रहा लेकिन बाद में भविष्य की योजनाओं को लेकर मतभेद होते गए और अंत में झगड़ा हो गया.

हमारे झगड़े के बाद बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने उसका पक्ष लिया और तीस वर्ष की आयु में कंपनी से बाहर हो गया. अपने वयस्क जीवन में मैंने जिस पर अपना सब कुछ लगा दिया था, वह जा चुका था और यह बहुत निराशाजनक बात थी.

इसके बाद कुछे महीनों तक तो मुझे नहीं सूझा कि क्या करूँ. मुझे लगा कि मैंने पहली पीढ़ी के उद्यमियों को निराश किया और जब बैटन मेरे हाथ में आने वाला था, तब मैंने इसे गिरा दिया.

मैं डेविड पैकर्ड और बॉब नॉयस से मिला और उनसे अपने व्यवहार के लिए माफी माँगने का प्रयास किया और इस समय मैंने कैलिफोर्निया से ही भागने का मन बनाया लेकिन धीरे-धीरे कुछ बात मेरी समझ में आने लगी और मुझे वही सब कुछ अच्छा लगने लगा था, जो कि कभी अच्छा नहीं लगता था. हालाँकि इस बीच एप्पल में थोड़ा बहुत भी बदलाव नहीं आया था, इसलिए मैंने सब कुछ नए सिरे से शुरू करने का फैसला किया.

उस समय यह बात मेरी समझ में नहीं आई लेकिन बाद में लगा कि एप्पल से हटा दिया जाना, ऐसी सबसे अच्छी बात थी जो कि मेरे लिए कभी हो सकती थी. सफल होने का बोझ फिर से खाली होने के भाव से भर गया और मैंने जीवन के सबसे अधिक रचनात्मक दौर में प्रवेश किया.

अगले पाँच वर्षों के दौरान मैंने कंपनी नेक्सट और पिक्सर शुरू की और मुझे एक सुंदर महिला से प्यार हुआ जो कि मेरी पत्नी बनी. पिक्सर ने दुनिया की सबसे पहली कम्प्यूटर एनीमेटेड फीचर फिल्म 'टॉय स्टोरी' बनाई और अब यह दुनिया का सबसे सफल एनीमेशन स्टूडियो है.

एक असाधारण घटना के तहत एप्पल ने नेक्सट को खरीद लिया और मैं फिर एप्पल में वापस आ गया. हमने नेक्सट में जो तकनीक विकसित की, वह एप्पल के वर्तमान पुनर्जीवन की आधारशिला है. इसी के साथ ही लॉरीन और मेरा परिवार भी बढ़ा.

यह बात मैं सुनिश्चित तौर पर मानता हूँ कि अगर मुझे एप्पल से हटाया नहीं जाता तो ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा होता. यह एक स्वाद में बुरी दवा थी लेकिन मरीज को इसकी सख्त जरूरत थी. कभी-कभी आपको जीवन में ठोकरें भी खानी पड़ती हैं लेकिन हिम्मत ना हारें.

मुझे विश्वास है कि जिस चीज ने मुझे लगातार क्रियाशील बनाए रखा था, वह अपने काम के प्रति मेरा प्यार था. आपको जीवन में यह पता लगाना होता है कि आप किस काम से प्यार करते हैं. यह बात काम को लेकर भी उतनी ही सच है, जितनी कि जीवन में प्रेमी-प्रेमिकाओं को लेकर होती है.
आपका काम एक ऐसी चीज है जो कि आपके जीवन के एक बड़े खाली हिस्से को भरता है. महान काम करने की एकमात्र शर्त यही है कि आप अपने काम से प्यार करें. अगर आपको इसका पता नहीं है तो पता लगाते रहिए. दिल के सारे मामलों में आपको पता लगेगा कि यह आपको कब मिलेगा. जैसे-जैसे समय निकलता जाता है इसके साथ आपका रिश्ता बेहतर होता चला जाता है, इसलिए रुकें नहीं इसकी खोज करते रहें.

मेरी तीसरी कहानी मौत के बारे में है. जब मैं सत्रह वर्ष का था, तब मैंने एक कथन पढ़ा था जो कुछ इस प्रकार था- 'अगर आप अपने जीवन के प्रत्येक दिन को अंतिम दिन मानकर जीते हैं तो किसी दिन आप निश्चित तौर पर सही सिद्ध होंगे.'

इसका मुझ पर असर पड़ा और जीवन के पिछले 33 वर्षों में मैंने प्रत्येक दिन शीशे में अपने आप को देखा और अपने आप से पूछा कि 'अगर यह जीवन का आखिरी दिन हो, क्या मैं वह सब करूँगा जो कि मुझे आज करना है. और जब कई दिनों तक इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक रहा तो मुझे पता लगा कि मुझे कुछ बदलने की जरूरत है.'

मैंने अपने जीवन के सबसे बड़े फैसलों को करते समय, मैंने अपनी मौत के विचार को सबसे महत्वपूर्ण औजार बनाया क्योंकि मौत के सामने सभी बाहरी प्रत्याशाएं, सारा घमंड, असफलता या व्याकुलता का डर समाप्त हो जाता है और जो कुछ वास्तविक रूप से महत्वपूर्ण है, बचा रह जाता है.

मैं सोचता हूँ कि जब आप याद रखते हैं कि आप मरने वाले हैं तो आपका सारा भय समाप्त हो जाता है कि आप कुछ खोने वाले हैं. जब पहले से ही आपके पास कुछ नहीं है तो क्यों ना अपने दिल की बात मानें.

करीब एक वर्ष पहले मेरा कैंसर का इलाज हुआ. सुबह साढ़े सात बजे स्कैन किया गया और इसमें स्पष्ट रूप से पता लगा कि मेरे पैंक्रीएस में एक ट्यूमर है. मुझे पता नहीं था कि पैंक्रीएस कैसा होता है.

डॉक्टरों ने मुझे बताया कि यह एक प्रकार का कैंसर है, जो कि असाध्य है और मैं तीन से छह माह तक ही जीवित रहूँगा. मेरे डॉक्टर ने सलाह दी कि मैं अपने अधूरे कामकाज निपटाऊँ. डॉक्टर ने कहा कि अपने बच्चों को जो आप दस साल में बताने वाले हैं, उन बातों को कुछेक महीनों में बताएँ. इसका अर्थ है कि पहले से तैयार हो जाएँ ताकि आपके परिवार के लिए सभी कुछ सहज रहे. इसका अर्थ है कि आप अंतिम विदा लेने की तैयारी कर लें.

पर डॉक्टरों ने अपने परीक्षणों में पाया कि मैं ऐसे कैंसर से पीड़ित हूँ जो कि ऑपरेशन से ठीक किया जा सकता है. मेरा ऑपरेशन किया गया और अब मैं पूरी तरह से ठीक हूँ. यह मौत के सबसे करीब होने का अनुभव था और मैं उम्मीद करता हूँ कि इस अनुभव के बाद मैं कुछेक दशक तक और जी सकता हूँ.

मैं आपसे कह सकता हूँ कि जब मौत उपयोगी हो, तब इसके करीब होने का विचार पूरी तरह से एक बौद्धिक विचार है. मरना कोई नहीं चाहता. जो लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं, वे भी मरना नहीं चाहते लेकिन यह ऐसा गंतव्य है, जहाँ हम सबको पहुँचना ही है. कोई भी इससे नहीं बचा है और इसे जीवन की सबसे अच्छी खोज होना चाहिए. जीवन बदलाव का कारक है और पुराने के स्थान पर नया स्थान लेता है. आप लोग भी बूढ़े होंगे और इसके बाद की स्थिति से भी गुजरेंगे.

आपका समय सीमित है, इसलिए इसे ऐसे नहीं जिएं जैसे कि किसी और का जीवन जी रहे हों. दूसरे लोगों की सोच के परिणामों से प्रभावित न हों और दूसरों के विचारों के बजाए अपने विचारों को महत्व दें. और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आप अपने दिल की बात सुनें. आपके दिलो दिमाग को पहले से ही अच्छी तरह पता है कि आप वास्तव में क्या बनना चाहते हैं.

जब मैं युवा था तब एक आश्चर्यजनक प्रकाशन 'द होल अर्थ कैटलॉग' बिकता था, जो कि मेरी पीढ़ी के लिए एक महत्वपूर्ण किताब थी. इसे मेनलो पार्क में रहने वाले व्यक्ति स्टुअर्ट ब्रांड ने प्रकाशित किया था. यह साठ के दशक के अंतिम वर्षों की बात थी और तब पर्सनल कम्प्यूटर और डेस्कटॉप प्रकाशन नहीं थे लेकिन तब भी यह गूगल का पैपरबैक संस्करण था.

स्टुअर्ट और उसकी टीम ने इस किताब के कई संस्करण निकाले और जब इसका समय पूरा हो गया तो इसने अंतिम संस्करण निकाला. सत्तर के दशक के मध्य में यह अंक निकाला गया था और तब मैं आपकी आयु का था.

इस पुस्तक के अंतिम पन्ने पर सुबह की एक तस्वीर थी, जिसमें ग्रामीण इलाका दर्शाया गया था. इस तस्वीर के नीचे शब्द लिखे थे 'स्टे हंग्री, स्टे फुलिश.'


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राष्ट्रवाद पर बहस

20:37:00 Manjar 0 Comments

-प्रो. निवेदिता मेनन

राष्ट्रवाद पर मेरे जो विचार हैं, उस बारे में सबसे पहले हम भाषा से बात शुरू करते हैं. कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में सवाल किया गया था कि क्या एक राष्ट्र बनने के लिए एक भाषा की जरूरत नहीं है. उस सवाल का जवाब आयशा कीदवई ने उस वक्त दिया था. लेकिन मैं भी दूंगी. जवाब ये है कि एक राष्ट्र को एकजुट करने के लिए अगर एक भाषा होनी चाहिए तो वो भाषा कौन-सी होगी? कौन-सी जुबान होगी? और कौन तय करेगा कि कौन सी जुबान उस देश की जुबान होगी.
होता क्या है कि जब कोई भी निर्णय लिया जाता है कि एक देश के लिए किसी एक चीज की जरूरत है, चाहे वो भाषा हो, कॉमन सिविल कोड हो या कोई दूसरी चीज, तब वो चीज ताकतवर तबकों की संस्कृति से उठाई जाती है. हम ये देखते हैं कि हमारे देश में जब किसी एक चीज की मांग की जाती है कि ये हमारे राष्ट्र की है तो वो ज्यादातर सवर्ण तबकों का, जो कि हिंदी भाषी क्षेत्र में हैं, वहां की संस्कृति, वहां के जो मूल्य हैं, उनको भारतीय माना जाता है.
अगर आप कभी भी संसदीय बहस को देखेंगे कि हिंदू कोड बिल आदि के दौरान सांसद जो दक्षिण भारत से हैं, जिनके नाम श्रीनिवासन हैं, घोष, सुब्रमण्यम हैं, जो वहां के सवर्ण हैं, उदाहरण के लिए- कहते हैं कि हमारे यहां लड़कियों के घर पर जाना वर्जित नहीं है. तब कोई श्रीवास्तव, कोई अग्रवाल उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है कि ये भारतीय नहीं है. आपके बंगाल में होता होगा, आपके केरल में होता होगा, तमिलनाडु में होता होगा, लेकिन ये भारतीय नहीं है क्योंकि हमारे यहां किसी ब्याही हुई लड़की के यहां हम पानी तक नहीं पीते. इस तरह हिंदी को भी हमारी भाषा कहलाने के लिए जनगणना के साथ काफी खेल करना पड़ा है. कल आयशा क‌िदवई ने बताया था. मैंने उनसे पूछा, कितने प्रतिशत लोग जनगणना में बताते हैं कि हिंदी हमारी मातृभाषा है. बस 20 प्रतिशत लोग. इस 20 प्रतिशत को 50 प्रतिशत बनाया जाता है करीब-करीब 50 और भाषाओं को हिंदी मानकर. तो ये हम समझते हैं ‘जेएनयू जैसा लगना’. ये एक राजनीतिक खेल है किसी को किसी और की तरह लगाना.
भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, बुंदेली जैसी और भाषाएं हैं, अपनी संस्कृति है, अपना साहित्य है, इनको हिंदी के अंतर्गत लाया गया है, ये दर्शाने के लिए कि ये स्वायत्त भाषाएं नहीं हैं और हिंदी पचास प्रतिशत लोग भारत में बोलते हैं.
हम ये भी जानते हैं कि आधिकारिक हिंदी का गठन राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इन्हीं तबकों ने किया था. उसमें से उर्दू-फारसी को निकाल कर बोलचाल की हिंदुस्तानी को साफ-सुथरा किया गया और एक बहुत ही अजीब-सी, अटपटी-सी भाषा बनाई गई. आप देख रहे हैं कि हमारी बातचीत में जेंडर (लिंग) की गड़बड़ियां हो रही हैं. लेकिन अचानक मुझे याद आता है कि भाषा स्त्रीलिंग है. मलयालम में उस तरह का जेंडर नहीं है, न ही अंग्रेजी में. सरहद के उस पार पाकिस्तान में यह हुआ कि उर्दू को साफ किया गया. इस तरह हम देखते हैं कि जो राष्ट्र है वो शुद्धता मांगता है और शुद्धता के मापदंड बिल्कुल ताकतवर तबके तय करते हैं. इन तबकों से तय किया जाता है कि शुद्धता किस तरह परखी जाएगी और जाहिर है हम सब बिल्कुल अशुद्ध निकलेंगे, नापाक निकलेंगे.
जब मैं हिंदी सीखती थी, हम घर में हिंदी नहीं बोलते थे. मैं फिल्मों से हिंदी सीखती थी. जब मैंने ‘मोहब्बत’ कहा तो उसको काटकर ‘प्रेम’ लिखा जाता था. ‘कलाम’ कहा तो उसको ‘लेखन’ या कुछ कहा जाता था. ये जो निर्मम संस्कृतीकरण किया गया है, उसकी भी एक वजह है कि हम जैसे लोग जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, हम उस तरह से ठीक और शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकते.
हिंदी सीखने का मेरा हौसला तब बढ़ा जब मैं पॉलिटिकल एक्टिविज्म में उतरी और देखा कि बिहार या राजस्थान से जो कॉमरेड आते हैं, उनको कोई झिझक नहीं है, जेंडर के बारे में वे सोचते ही नहीं हैं, उनकी मातृभाषा है वो हिंदी जैसी की तैसी बोलती है. उससे मैंने भी साहस लिया.
जब हम कहते हैं कि राष्ट्र एक रोजाना रायशुमारी है, हमारा मतलब है कि राष्ट्र कोई प्राकृतिक चीज नहीं है. जेएनयू में बार-बार जो लेक्चर हुआ, आपने बार-बार सुना होगा और आप जानते भी हैं क्योंकि आप यहां के छात्र हैं. राष्ट्र का एक इतिहास होता है, तरह-तरह के समुदायों में लोग साथ रहते हैं और राष्ट्र एक खास ऐतिहासिक वक्त पर उभरता है. यूरोप में 18वीं और भारत में करीब 19वीं शताब्दी में जो राष्ट्रीय आंदोलन लड़ा गया उस दौरान एक राष्ट्र का गठन किया गया. चाहे वो सेक्युलर नेहरूवादी किस्म का राष्ट्र हो या हिंदुत्ववादी हो, जो भी हो, 19वीं सदी में ये राष्ट्र उभर कर आता है.
होता क्या है कि एक बार जब साम्राज्यवाद को हटाकर स्वराज मिल जाता है तो माना जाता है कि अब कोई सवाल उठाना बिल्कुल नाजायज है. अब तक हम उठाते रहे, लेकिन एक बार 15 अगस्त, 1947 की तारीख आ गई उसके बाद न्याय के बारे में सवाल उठाना, हमारे संसाधनों के बारे में सवाल उठाना कि संसाधनों पर किसका हक है, कोई भी सवाल उठाना अब अचानक राष्ट्रविरोधी बन जाता है. यह राष्ट्र-राज्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण खेल है कि इसके बाद आप सवाल नहीं उठाएंगे. इसके बाद आप सवाल उठाएंगे तो आप एंटीनेशनल हैं. इसीलिए सेक्शन 124 ए के तहत हमारे साथियों को एंटीनेशनल कहा जा रहा है और यह पहली बार नहीं है. देशद्रोह का आरोप कइयों पर लगा है, कई पत्रकारों पर लगा है. ये जो कानून है उसको बिल्कुल भी बदलना नहीं पड़ा, हमारे स्वतंत्र भारतीय राज्य को. आजादी के बाद कुछ बहुत ही अजीब से शब्द निकालने पड़े जैसे कि- ‘हर मैजेस्टी’ निकाला गया, ‘क्राउन रिप्रेजेंटेटिव’ निकाला गया, ‘ब्रिटिश इंडिया’, ‘ब्रिटिश-बर्मा’ निकाला गया. 150 साल पुराना कानून है यह और वही कानून है जिसे एक साम्राज्यवादी सरकार ने इसे हमारे देश में चलाया था, अब वही एक तथाकथित स्वायत्त स्वतंत्र राष्ट्र की ओर से चलाया जा रहा है.
जब हम कहते हैं कि यह एक रोजाना रायशुमारी है तब हम क्या कह रहे हैं? हम जनतंत्र को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं. हम कह रहे हैं कि सबसे बड़ा मूल्य है जनतंत्र. हम कह रहे हैं क्योंकि जनतंत्र एक प्रक्रिया है, जो जारी है, जो चलती रहती है, जो कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि जब आप समझते हैं कि अब सारे तबके इसमें आ गए, तब कोई नई पहचान खड़ी हो जाएगी कि हमारे बारे में नहीं सोचा. इसलिए लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है. जबकि राष्ट्र-राज्य को माना जाता है कि उसकी प्रक्रिया खत्म है, वो जम गया है कि ये है इंडिया. अब इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा. इसीलिए हमारे कई जाने-माने राष्ट्रवादी टैगोर से लेकर गांधी, आंबेडकर, पेरियार आदि सबने राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य को शक की नजर से देखा. टैगोर ने इस पर सवाल उठाया. आंबेडकर साइमन कमीशन से मिलकर आए जबकि बाकी सारे राष्ट्रवादी साइमन कमीशन का बायकॉट कर रहे थे, क्योंकि उनको पता था कि इस राष्ट्र राज्य में जो प्रभावी तबके हैं, ब्राह्मणवादी तत्व हैं वही राष्ट्र को अपने हित में कराएंगे. आंबेडकर समझते थे कि अगर साइमन कमीशन से दलितों को कुछ सहारा मिले तो वे साइमन कमीशन से मिलने को तैयार थे. इसी को लेकर अरुण शौरी ने उनको एंटीनेशनल कहा. पेरियार भी राष्ट्रवाद को बहुत ही शक की नजर से देखते थे.क्योंकि वो भी यही समझते थे कि ये एक प्रक्रिया कभी खत्म नहीं होनी चाहिए कि सवाल उठेंगे और ट्रांसफॉरमेशन चलता रहेगा. दलितों के लिए ब्रिटिश रूल राहत की बात थी, लेकिन इससे ब्राह्मणवाद को बहुत बड़ी चोट पहुंची और उनको कोई हिचकिचाहट नहीं है यह कहने में कि अब ब्राह्मणवाद पर वार हुआ है.
हमारा कहना है कि एंटीनेशनल किसे कहते हैं? हमारी एक बहुत गौरवपूर्ण परंपरा है. राष्ट्रवादी इसीलिए इतना सशंकित रहते हैं क्योंकि उनके राष्ट्र-राज्य और जनतंत्र में एक अंतर्विरोध है और बार-बार वह अंतर्विरोध और गहरा होता जा रहा है. जैसे-जैसे जनवादी आवाजें उठती हैं, राष्ट्रवाद उनको कुचलने की कोशिश करता है, राष्ट्रहित के नाम पर. राष्ट्रहित सिर्फ एलीट तबके के लिए है और एलीट तबके के हित को राष्ट्रहित कहा जाता है तो जाहिर है कि इसके खिलाफ कोई भी सवाल उठाएगा तो उस पर एंटीनेशनल का लेबल लग जाएगा.
हमें लगता है कि राष्ट्रवाद बहुत मजबूत चीज है, लेकिन अगर ये इतना ही मजबूत होता है कि दो या पांच लोगों में से कोई नारा लगाया तो वह खतरे में पड़ गया तो सोचिए फिर यह कितना नाजुक है. 26 जनवरी को राजपथ पर जो हम देखते हैं, वह है राष्ट्र-राज्य. और इतना डर कि चार लड़कों से हिल जाता है. वह उतना मजबूत नहीं है जितना हम समझते हैं. उस मजबूती को बनाए रखने के लिए बंदूक और टैंक की जरूरत पड़ती है.
सादिया नाम की लड़की पाकिस्तान से इंडिया आकर ओडिशी सीखती थी. उसके घर में जो औरत काम करती थी उसे कभी समझ में नहीं आता कि सादिया है कहां से. वह कभी-कभी पूछती दीदी आप हैं कहां से, सादिया कहती कि पाकिस्तान से. तब वह कहती मतलब बाहर से? सादिया उसे समझाती थी कि भारत की तरह ही एक और देश है, मैं वहां से हूं. लेकिन उसे कभी समझ में नहीं आया कि ये पाकिस्तान है क्या चीज.
ये राष्ट्र जैसी चीज कोई प्राकृतिक ज्ञान नहीं है जो कि बच्चा पैदा होते ही समझ जाता है, जैसे वो अपनी मां को पहचानता है वैसे ही राष्ट्र को फौरन पहचान लेता है. सीखना पड़ता है, हर चीज. जब औरत और मर्द बनना हमें हर रोज सीखना पड़ता है. ये जेंडर भी एक तरह की रायशुमारी है. जब इतनी प्राकृतिक चीज हमें सीखनी पड़ती है तो जाहिर है कि राष्ट्रवाद भी सीखना पड़ता है. इसीलिए बेनेडिक्ट एंडरसन ने इसको ‘काल्पनिक कम्युनिटी’ कहा. उनका मतलब ये नहीं था कि ये महज काल्पनिक है. उनका मतलब ये था कि इसका गठन करना पड़ता है. इस गठन में तरह-तरह की आशाएं, उम्मीदें और मांगें होंगी. और अगर हम इन सब चीजों को साथ लेकर नहीं चलते तो वो राष्ट्र का गठन नहीं होता.होता क्या है कि जितने लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश होती है उतने ही लोगों को बाहर करने की कोशिश होती है. क्योंकि कोई भी राष्ट्र-राज्य ये नहीं कहता कि सारी दुनिया इस राष्ट्र की नागरिक है. इसीलिए टैगोर को राष्ट्र से इतनी आपत्ति थी. जब आप किसी को हाशिये पर रखते हैं और वे आपको प्यार नहीं करते, तब आप उन्हें एंटीनेशनल कहते हैं. पहले उनको बाहर करते हैं, जब वे आपसे प्यार से पेश नहीं आते तो गलती उनकी है.
एक बार डीयू में मैंने कुछ छात्रों को बात करते सुना कि ये नगालैंड वाले इतने अजीब होते हैं कि जब दिल्ली आते हैं तो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं. मतलब वे इंडिया को अपना नहीं मानते. वह बच्चों की निजी बातचीत थी. मैं उसमें शामिल नहीं हुई. लेकिन इसका पॉइंट क्या है? हम मानते हैं कि नगालैंड भारत का भाग है लेकिन वे हमें अपना नहीं मानते. नगालैंड को अपना भू-भाग मानते हैं, लेकिन जो नगा छात्र कह रहे हैं वह हम सुनने को तैयार नहीं हैं. जब वो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं तब आप सुनिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं. नगालैंड के इतिहास को समझिए. नगालैंड हमारा है, कश्मीर हमारा है, वह पहले से हमारे देश का हिस्सा है, लेकिन उनको उस नियम से रहना होगा, जो हम कहते हैं. इसका मतलब यह है कि राष्ट्र को लोगों के पहले माना जा रहा है. राष्ट्र लोगों के पहले है. उनके दिमाग में कोई अंडा, मुर्गी वाला सवाल है ही नहीं. वो एकदम स्पष्ट हैं कि इंडिया जो है, वो है. जैसे वह किसी ईश्वर ने दिया या जैसे बारिश आती है, वैसे ही आ गया.
लेह के बच्चे वर्षों से एनसीईआरटी की किताब पढ़ते हैं. उस किताब में उनका स्थानीय कुछ नहीं है. वे पढ़ते हैं कि हिमालय हमारे उत्तर में है. सोचिए कितना कन्फ्यूजन हुआ होगा. जाहिर है कि राष्ट्र समावेशी नहीं है. राष्ट्र ज्यादातर लोगों को शामिल करने की कोशिश भी नहीं करता. क्योंकि ज्यादातर लोगों को उन जैसा बनना है जो मुट्ठी भर सवर्ण मर्द हैं, उन जैसा बनो तो यहां रह सकते हो, वरना धरती हमारी, तुम लोग पाकिस्तान जाओ. हमें ज्यादा समावेशी राष्ट्रवाद की बात करना चाहिए. नेशन की परिभाषा में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करना चाहिए. 11 मर्दों की टीम क्रिकेट मैच जीत जाती है तो हम कहते हैं कि हम जीत गए. कहते हैं कि हमारे पास परमाणु बम है, लेकिन जब नर्मदा बांध में 39 हजार लोग बेघर हो जाते हैं तब नहीं कहते कि हम डूब रहे हैं, तब हम नहीं कहते कि हम यानी हिंदुस्तान डूब रहा है.
एंटीनेशनल किसे माना जाता है? एक वो हैं जो काउंटर नेशनलिज्म प्रकट करते हैं, दूसरे वो जो विकास के खिलाफ लड़ते हैं. क्योंकि जाहिर है कि विकास है बड़े बांध, फ्लाईओवर, मॉल्स ये सब विकास है और जो जिंदगियां लोग रोजमर्रा की जीते हैं वह विकास नहीं है. नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को भी एंटीनेशनल ठहराया गया है, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को भी एंटीनेशनल ठहराया जाता है. हम लिस्ट बनाते हैं तो एंटीनेशनल की लिस्ट बढ़ती जाती है.
देखते हैं कौन-कौन एंटीनेशनल है. पूर्वोत्तर पूरा है ही एंटीनेशनल. कश्मीर है और मुसलमान तो सारे हैं ही. अभी ईसाई बन रहे हैं एंटीनेशनल. आंबेडरवादी भी हैं, कबीर कला मंच के लोग जेल में हैं, क्योंकि वे जातिवाद के खिलाफ गाना गाते हैं. तमिलनाडु तो है ही क्योंकि वो हिंदी नहीं बोलेंगे. तमिलनाडु बहुत दिनों से एंटीनेशनल है. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो किसान बोलते हैं, वो हैं एंटीनेशनल. औरतें जो जींस पहनती हैं, शराब पीती हैं, वो एंटीनेशनल हैं. जो पितृसत्ता को नहीं मानते वो एंटीनेशनल हैं. जो समलैंगिक प्यार करते हैं वो एंटीनेशनल हैं. अब इन सारे लोगों की गिनती की जाए तो हमें लगा 25 लोग हैं जो राष्ट्रवादी रह गए हैं. वे हैं 56 इंच वाले मोदी जी, अमित शाह, ‘मनु’स्मृति ईरानी और वे 22 वकील जिन्होंने कोर्ट में हम पर हमला किया. अब अगर ये 25 लोग रह गए राष्ट्रवादी तो हमें राष्ट्रवाद की बहुत चिंता करनी चाहिए.

(लेखिका जेएनयू में प्रोफेसर  हैं. जेएनयू में  देशद्रोही नारे लगने से हुए विवाद के बाद वहां के शिक्षकों ने राष्ट्रवाद पर एक हफ्ते तक ओपन क्लास ली.
यह लेख प्रो. निवेदिता मेनन के व्याख्यान का अंश है)


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