नेपाल का हाल और भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंध

12:50:00 Manjar 2 Comments



साल 2015 का आज आख़री दिन। बीते कुछ सप्ताह नेपाल की यात्रा पर रहा। इस विशृंखलता और अफरा-तफ़रीह माहौल में कमोबेश आधी नेपाली जनता, सरकार के विरुद्ध क्या नारे लगा रही हैं यह और करीब से समझने का अवसर मिला। पश्चिम चंपारण लोकसभा क्षेत्र से सटे रक्सौल बोर्डर नेपाल के पर्सा जिला से मिलती हैं। जिसका मुख्य प्रवेश द्वार वीरगंज उप महानगरपालिका हैं। सुबह 7 बजे जब हमने अपनी गाड़ी से नेपाल में प्रवेश के लिए बॉर्डर पर रोका तो पता चला यहाँ अघोषित नाकेबंदी हैं। सैकड़ो की तादाद में लोग नेपाल सरकार के विरुद्ध नारे लगा रहें थे। अभी हम विचार कर रहे थे कि किस और से नेपाल में प्रवेश ली जाये तब तक एकाएक बॉर्डर पर स्थित नो मेंस लेंड पर झड़प हो गई। जिसमें कई लोगो को गंभीर चोटें आई। छपकिईया बाजार होते हुए किसी तरह जोख़िम लेते हम अपने गंतव्य तक पहुंचे।
इतना जोख़िम सिर्फ अपनी बहन के लिये उठा रहा था। क्योंकि उनकी जन्मदिन जो की 25 दिसंबर को थी मुझे हर हाल में उस दिन वहां होना चाहिये था। हमने 25 को भव्य बनाने के लिये सारी तैयारी का जिम्मा अपने कंधो पर ले लिया।
बॉर्डर पर नेपाल जितना अशांत दिख रहा था,शहर उतना ही सामान्य ढंग से व्यवहार कर रहा था। व्यपारियों से जब मैंने पूछा की आप भी मधेशी हो आंदोलन का साथ क्यों नही दे रहें? वे बताने लगे आखिर कब तक साथ देते रहें 4 महीनें से ज्यादा वक़्त हो रहा और जिनमे लगभग 2-3 महीना दुकाने बंद-खुलती रही। इन 4 महीना में आमदनी नगण्य रहा ऊपर से दुकान का किराया स्कूल का फी घर का राशन इन सब के लिये पैसे कहां से लाऊँ। नेताओं ने बोला था की पैसा माफ़ करा देंगे लेकिन कुछ हुआ नही।ऊपर से स्कूल,मकान मालिक और दुकान मालिक के यहां से नोटिस आ गए। जो पैसे बैंक में बचें थे वह भी इनलोगो को दे दिया। अब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के लिए काम करने के सिवा और दूसरा कोई रास्ता नही। नेपाल सरकार बहरी हैं,सुनना होता तो शुरू में ही सुन लेती। जो राग मधेश जनता अलाप रही हैं वैसा ही राग पहाड़ी जनता भी अलाप रही हैं।

हम अपने काम में लग गए क्योंकि शाम को जन्मदिन मनाना था सब लोग आ रहे थे। तैयारियां जोरो पर थी। तब तक अचानक न्यूज़ चैनलों पर अफरातफरी मचने लगी। पता चला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक पाकिस्तान पंहुच रहें हैं। साल का बीतता वक़्त भारत की खासकर पड़ोसी देशो के साथ विदेश नीति को यह यात्रा एक नया आयाम दे रहा था।(विदेश नीति मॉडलस्की ने इसको परिभाषित करते हुए कहा था कि विदेश नीति समुदायों द्वारा विकसित उन क्रियाओं की व्यवस्था है जिसके द्वारा एक राज्य दूसरे राज्यों के व्यवहार को बदलने तथा उनकी गतिविधियों को अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में ढ़ालने की कोशिश करता है।)
तब मुझे लगा की क्यों न इस साल भारत की  विदेश नीति 
दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के रिश्तों के संदर्भ में समीक्षा की जाये।विश्व के राजनीतिक मंच पर भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाए, इसके लिए यह ज़रूरी है कि उसे पड़ोसी देशों को भरोसे में लेना ही पड़ेगा।
सबसे पहले हम बात करते हैं श्री लंका की।
दोनों देशों के बीच संबंधों का असर साल 1983 में श्रीलंका में सिंहला समुदाय और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच हुए जातीय संघर्ष का रहा है। प्रधानमंत्री का श्री लंका दौरा जिनमें
भारत और श्रीलंका की सरकारों ने चार समझौतों पर दस्तखत किए हैं। इनमें अधिकारियों के दौरों पर वीज़ा नियमों में छूट, कस्टम मामलों में सहयोग, दोनों देशों के युवाओं के बीच बेहतर संवाद और विश्वविद्यालय में एक ऑडिटोरियम बनाने समेत शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग के मुद्दे शामिल हैं। श्री लंका में रेलवे सुधार के लिए 31.8 करोड़ डॉलर मदद देने की घोसना की।
दोनों देशों का संबंध तमिल अल्पसंख्यकों के साथ मेल मिलाप, मछुआरों की रिहाई और हिंद महासागर में सुरक्षा सहयोग जैसी बातों पर हमेशा से  निर्भर रहा है।
साल 2009 में तमिल टाइगर्स की हार के बावजूद राजपक्षे की सरकार तमिल अल्पसंख्यकों से मेलजोल की प्रक्रिया शुरू करने में नाकाम रही।

भारत सरकार कहती रही है कि श्रीलंका के संविधान के 13वें संशोधन को लागू किया जाए। ये संशोधन राजीव-जयवर्धने समझौते पर आधारित हैं और इसमें प्रांतों को और अधिकार दिए जाने की बात है।
बांग्लादेश की तरफ देखे तो एक बेहद जटिल समस्या का अंत हो गया।उसके साथ जमीनों की अदला-बदली एक बड़ी उपलब्धि रही है। हालांकि इसका श्रेय यूपीए सरकार को भी दिया जा सकता हैं,इस मामले को सरल बनाने में उनका प्रयास सराहनीय रहा।
सड़क मार्ग,रेल मार्ग और समुद्री मार्ग पर बात बेहद सफल रही।
ढाका होते हुए कोलकाता-अगरतला के अलावा दूसरी बस सेवा शिलॉन्ग होते हुए ढाका-गुवाहाटी के लिए है।
अखुरा-अगरतला रेल लिंक पर भी बातचीत हुई और जो बांग्लादेश के ज़रिए कोलकाता को पूर्वोत्तर से जोड़ेगा।
इन सारे विकल्प के मिलने से दोनो देशो के बीच व्यपार, संबंध और भी मजबूत होंगे।
बस एक तीस्ता जल को ले कर बात नही बन पाई।
अफगानिस्तान की बात करें, तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उसे सिर्फ आर्थिक या विकास के क्षेत्रों में ही समर्थन दिया जाता था, जबकि   हथियार या सामरिक क्षेत्रों में अफगानिस्तान द्वारा विशेष मदद की मांग की जाती रही। काबुल की यात्रा प्रधानमंत्री मोदी की निश्चित रूप से सफल रही।
पाकिस्तान का विश्लेषण भारत के प्रति हमेशा से  सबसे दिलचस्प है। उसके साथ हमारे संबंध हाल के घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता की संबंध सुधर रहें हैं।
रूस की ऊफा बैठक से शुरू हुई लाहौर आते-आते रिश्तों में गर्माहट ले आई। पहले सुषमा स्वराज फिर प्रधानमंत्री मोदी इन संबंधो को सुधारने में इन लोगो का बड़ा असर रहा।
दोनों नेता जब चाहें एक दूसरे के यहां आने जाने लगें। तो फिर दोस्ती के अलावा और कुछ रह नही जाता। जो कल बीजेपी समर्थक पाकिस्तान के नाम से चुनाव में हल्ला कर रहें थे वे अभी भौचक हैं अब वे पाकिस्तान को अपना मित्र राष्ट्र बता रहें हैं। यूँ भी तारीख देखी जाएं तो भारत- पाकिस्तान  पहला युद्ध 1965 में हुआ था। तभी 1962 की लड़ाई में चीन से हारने के बाद भारत अभी अस्थिर था। चीन ने चाल चलते हुए पाकिस्तान को बताया की यही सही समय हैं भारत को हराने का जिससे की तुम्हें तुम्हारा कश्मीर मिल जाएं।
ख़ैर,
पाकिस्तान से भारत के रिश्तों की मुश्किल से पूरी दुनिया वाकिफ है। किसी भी तरह की बातचीत से पहले आतंकवाद और कश्मीर का मसला आते ही बात बीच में ही अटक जाता हैं।
उम्मीद करते हैं आने वाले साल पाकिस्तान के साथ और भी बेहतर होगा सियाचिन, सिंधु जल,कश्मीर और आतंकवाद जैसे मसलो का हल आने वाले साल में बातचीत के द्वारा निकाला जाय।
एक और बात जोड़ ले की कुछ लोग कह रहें की नेपाल से हमारा रिश्ता खराब हो गया। हमारे खिलाफ नेपाल संयुक्त राष्ट्र संघ में चला गया। तो मैं उन्हें बता दु की भारत नेपाल की जनता के हक के लिए 51% जनता का साथ दे रहा तो उसमें क्या बुराई। जब नेपाल से हमारा संबंध शुरू से ही रोटी-बेटी का रहा हैं तो हम अपनों के पक्ष में क्यों न बोले। मधेश की जनता की जायज मांग हैं संविधान में बराबरी और आबादी के अनुरूप नेतृत्व। नागरिकता का दोहरा मापदंड मधेशी जनता के साथ क्यों? भारत की भूमिका नेपाल में महत्वपूर्ण हैं। अगर के पी ओलि इस बात को नही समझ रहें तो वे भूल ही नही भारी गलती भी कर रहें हैं। भारत नेपाल से बस आशवस्त होना चाहता हैं कि नेपाल अपनी जनता के साथ बराबरी का व्यवहार करें और यह जरूरी भी हैं।
कुल मिला के यह साल भारत के लिए पड़ोसी विदेश नीति लगभग सफल ही रहा।

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सरकार,पत्रकार और सेल्फी

11:44:00 Manjar 2 Comments

व्हाट्सएप्प ग्रुप में जब एक लड़की लिखी की -संविधान के चौथे स्तम्भ के लिए काम कर रहे हैं तो बस थोड़ी जिम्मेदारी के साथ करें। अचानक मुझे एकाएक 'दिवाली मिलन समारोह' की तस्वीरें ज़ेहन में दौड़ने लगी। वैसे ना मैं जर्नलिस्ट हूँ और ना ही मैंने जर्नलिस्ट की पढ़ाई पढ़ी हैं। तोड़े- मरोड़े तथ्यों को सीधा करते करते पत्रकारिता को जाना हूँ,समझा हूँ और परखा भी हूँ। नये पत्रकार और जर्नलिस्ट की पढ़ाई पढ़ रहें मित्रों को मंजर,इतना तो जरूर कहता है कि पत्रकार बनने की सबसे पहली और वाजिब शर्त है-अपक्षपात रिपोर्टिंग । किसी घटना को बिना किसी विश्लेषण से सीधे हु ब हु ख़बर को लोगो तक पहुँचना। एक दर्शक की तरह ख़बर को देखना, अगर यह आ गया तो रिपोर्टिंग करना भी आ जायेगा।
पत्रकारों की तटस्थता, निष्पक्षता, और नैतिकता ही उन्हें पत्रकार बनाती है।
'दीवाल मिलन' के दिन जिस भेड़चाल का प्रस्तुती कुछ पत्रकारों ने दिया की अब समय आ गया है कि मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू किया जाए ।

जब सुना कि पत्रकार लोग पी एम से मिलने जा रहे है तो आशा बंधी कि पत्रकार देश की समस्याओं पर सरकार को अवगत करायेंगे। लेकिन जो हुआ वह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण वाली बात थी। ज्ञात रहें मेरा सवाल सरकार के सापेक्ष है न की यूपीए और एनडीए से है।
सबसे पहले ये बताइए कि जब सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में फसेंगी तो आपका कलम उनके विरुद्ध लिखने में कापने तो नही ना लगेगा ? सरकार की नीतियों को किस प्रकार देखते हैं ? सही गलत का आप फ़ैसला कैसे करेंगे?मुझे संदेह है की आपकी चाटुकारिता आपकों घेर लेगा। चलिए छोड़िये यही बता दिजीये की पत्रकार का धर्म क्या होता हैं ?
ख़ैर,इन सेल्फी वीरों की सूची लोगों तक पहुँचानी पड़ेगी जिससे खबर के संवाददाता और एंकर को सुनते वक्त उचित सावधानियां बरती जायें। आशा है कि ये पत्रकार बन्धु ऐसे ही मिले मौको पर धक्कम मुक्की कर अपनी छवि सुधार करते रहेंगे । नेतागण भी जानते हैं कि बहुतायत पत्रकारों को कैसे हैंडल करना है I एक सेल्फ़ी और हो गया सारे सवाल का जवाब। ज़रा सोंचिये 45 मिनट चले कार्क्रम में एक सवाल पुछने का वक़्त नही मिला। आपने देश का वक़्त जाया किया। इसका हिसाब कौन देगा?
29 नवम्बर का 'टेलिग्राफ' का पहला पन्ना, जिसने पत्रकारों की शान ही ले ली।
सिर्फ दो तसवीर हजार शब्दों के बराबर बोल रही थी।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक कुछ पत्रकारों ने प्रधानमंत्री के साथ अपनी स्वछवि एकाधिक बार ली। एंगल जंचा नहीं तो घूम कर दुबारा आ गए। इस पर भीड़ घटाने की गरज से सांसद अनुराग ठाकुर ने कहा कि जो एक बार सेल्फी ले चुके हों, कृपया दुबारा न लें। तब, अनुराग के अनुसार, मोदीजी ने उन्हें टोका - अरे, लेने दो। किसी को न रोको।

पिछले कुछ वर्षो में पत्रकारिता इन्ही जैसो की वजह से गिर रहा है। हर रोज ये पत्रकारिता पर धब्बा लगा रहे है।
आइए एक नज़र डालते है । -

IBN7 पर हाथापाई हुई। दो धार्मिक लोग,एक महिला और दुसरा पुरुष था ने एक-दूसरे पर हमला किया। लेकिन सवाल उठता है कि  हाथापाई को कौन बेचने लगा ? उसी चैनल ने। अपने प्रस्तावित कार्यक्रम 'सुरंग में गोल्डन ट्रेन' के बदले आधे घंटे हथापाई को बार-बार दिखाया? हाथापाई के लिए भला कोई न्यूज़ क्यों देखेगा । कम से कम मुझे जब रेसलिंग देखना होता है तो मैं टेन स्पोर्ट्स और सोनी सिक्स देखता हूँ। क्या आप भी कुश्ती के लिए न्यूज़ देखते है ?
आजकल ज़ी न्यूज़ पर डीएनए आता है। सुधीर चौधरी लेकर आते है। आइये आज उनका डीएनए टेस्ट करते है।
सुधीर चौधरी कौन है तो जेल के रिकॉर्ड से पता चलता है- अपराधी। ज़ी न्यूज़ का दाग़दार संपादक है। नवम्बर 2012 में पैसा उगाही कांड में जेल जा चुका है। नवीन जिंदल से सौदेबाजी के दौरान कोलगेट वाली स्टोरी बंद करने के एवज में 120 करोड़ रुपए की सुधीर ने मांग की थी। कैमरे में धड़े गए।
2013 में निर्भया कांड में विक्टिम का नाम ऑन एयर किया। FIR हुआ।
जब लाइव इंडिया में था तो उमा खुराना नामक शिक्षिका का फर्जी स्टिंग किया। सुधीर चौधरी ने उनपर सेक्स रैक्ट चलाने का इल्ज़ाम लगाया। आरोप तो ग़लत साबित हुए ही, लाइव इंडिया को भी कुछ महीनों के लिए ऑफ एयर होना पड़ा।
ये महाशय यही नही माने लगे हाथ उपदेश देते-देते शर्मन्दगी की इंतेहा पार कर दी। व्यक्तिगत आक्षेप लगाते हुए कुमार विश्वास से बदजुबानी पेश आने लगे।

Sudhir Chaudhary
@sudhirchaudhary Jun 6
कामुक कविराज अपने मालिक के चैनल पर चल रही झूठी ख़बर प्रचारित करके बता रहें हैकि उनका अमेरिका जाने का पैसा कहाँ से आया
Dr Kumar Vishvas @DrKumarVishwas
हे @sudhirchaudhary तिहाडी दलाल.तुम्हारे या देश के किसी धनपशु की औक़ात नहीं जो कवि को ख़रीदे.अब इसे चलाओ चैनल पर
http://m.timesofindia.com/india/Two-Zee-editors-arrested-for-Rs-100-crore-extortion-bid/articleshow/17391903.cms …
Dr Kumar Vishvas @DrKumarVishwas
दूसरों की झूठी खबर को चौबीसों घंटे रगड़ कर चलाने वाले अपने बारे में आई इस सच्ची ख़बर को छू भी नहीं रहे। #FarziJourno
https://www.youtube.com/watch?v=q4C0xYLr0u8 …
12:10 PM - 6 Jun 2015

इनके सवाल से आहत कुमार विश्वास फिर जवाब में लिखा
वैसे @sudhirchaudhary कामुक जैसी गोपनीय जानकारी तुम्हारे परिवार की किस सदस्य ने दी है तिहाड़ी ?
सुधीर फिर लिखते है- Sudhir Chaudhary @sudhirchaudhary
मुझे ख़ुशी है तुम्हारे संस्कार और घटिया सोच दुनिया के सामने ला पाया। तम्हारी भाषा ही तुम्हारा चेहरा है।  https://twitter.com/drkumarvishwas/status/607136407245582337 …
जवाब-
Dr Kumar Vishvas @DrKumarVishwas
हे @sudhirchaudhary तिहाडी.मै शास्त्र और शस्त्र दोनों जानता हूँ."शठे शाठ्यम समाचरेत"

अब आते है रजत शर्मा पद्म भूषण वाले की पत्रकारिता पर । सरकार भी इनकी पत्रकारिता पर तरस खाकर 'शिक्षा' पर सम्मान दिया। इनकी शिक्षा पर पहल तो बच्चा-बच्चा बता देगा।
इनकी पत्रकारिता का मानक तय करना हो तो एक बार इनके द्वारा लगाये गये हेडलाइन्स देख ले।

टीवी पत्रकारों को जोकर बना के रख दिया।
आखिर किन की लीडरशिप में हिंदी TV न्यूज चैनलों ने मसखरा-युग में प्रवेश किया?
न्यूज बुलेटिन में नागिन ने नाग की हत्या का बदला लिया, स्वर्ग को सीढ़ी तन गई,क्या सचिन के दिमाग में वाकई एक शैतान है ?, अमिताभ बच्चन को ठंड लगी,क्या 'एलियन' गाय का दूध पीते हैं?घने जंगल के बीच है स्वर्ग का शॉर्टकट,कलयुग का अंत,सबसे महंगी वैश्या की ऑन स्क्रीन खोज हुआ, बिना ड्राइवर के कार चली।
ये नाम हैं - उदय शंकर, क़मर वहीद नकवी,दीपक चौरसिया, आशुतोष, विनोद,सुधीर चौधरी,रोहित, कापड़ी और इन सबके बाप रजत शर्मा। जी पहचान ले मंजर गलत नही बोल रहा। यही वह है जिनकी बदौलत आज की तारीख में हिंदी के टीवी पत्रकारों और चैनलों के नाम पर पान दुकानों और हेयर कटिंग सलून में चुटकुले चलते हैं। मसखरी होती है। ठहाके गूंजते है। पत्रकारों का नाम आते ही बच्चे हंसने लगते हैं।
एस पी सिंह ने गणेश को दूध पिलाने की खबर का मजाक उड़ाकर और जूता रिपेयर करने वाले तिपाए को दूध पिलाकर भारतीय टीवी न्यूज इतिहास के सबसे यादगार क्षण बनाया।
सिखाया कि अंधविश्वास के खंडन की भी TRP हो सकती है।
न्यूज चेनलों ने जब "नागिन का बदला युग" या "महंगी वेश्या की खोज युग" में प्रवेश किया
बल्कि TRP पाने के लिए बनी उनकी इस सोच को लेकर है कि हिंदी चैनलों का दर्शक मूर्ख और अंधविश्वासी होता है.
इसे मनोरंजन उद्योग की भाषा में "Lowest common denominator" कहते हैं. इसकी परिभाषा यह है- the large number of people in society who will accept low-quality products and entertainment या appealing to as many people at once as possible.
यही कारण है कि इनका भांगड़ा नाच और मदारीपन देखकर एक बच्चा भी हँसता हैं।
ख़बर की गुणवत्ता ख़राब हो गई। पत्रकार, पत्रकारिता से रसूख और नेताओं तक पहुंचने का साधन हो गया।
लेकिन हम जैसे लोग इनको छोड़ने वाले नही है। ख़बर प्रस्तुत कीजिये किसी पार्टी का विचार नही। आज भले ही हम गिणती की संख्या में आपकी इस पेशे को इस तरीके से दूषित करने के ख़िलाफ़ लिख बोल रहें है। लेकिन वह दिन दूर नही जब आपके ख़बर को बहिष्कार किया जायेगा। लोग क्वालिटी और सही तथ्य देखने की मांग करेंगे। नये पत्रकारों से कहना है कि अब ऐसे खबरों की भविष्य नही है। इसलिये आप जो भी चैनल में जाएंगे तो वहां देख ले कहीं ऐसा ही भेड़चाल तो नही ना हो रही है। सेल्फ़ी या  पत्रकारिता दोनो एक साथ नही चल सकती।
माफ़ कीजिए आप गलत पेशे में है। कृपया कर इसे दूषित ना करें। मोदी सरकार से अनुरोध है कृपया आप न्यूज़ चैनल वालों को पैसा देना बंद करें। निष्पक्ष काम करने दे। आपकी मीडिया मैनेजमेंट पॉलिसी से पूरे विश्व में इस सप्ताह किरकिरी हो गई। हमें विदेशी मीडिया नसीहत दे कर चला गया। कितनी शर्मनाक...
एननि गोवन,वाशिंगटन पोस्ट के लिये लिखने वाली महिला पत्रकार पूछती है।
Annie Gowen
@anniegowen
Nov 27
We have been contacted twice in recent weeks by private PR companies representing Indian govt. officials. Good use of govt funds? @PMOIndia
क्या हमारा पैसा का ऐसा दुरपयोग कीजियेगा।
आपसे अनुरोध है कि मीडिया को स्वतंत्र कीजिए उसका खरीद-फ़रोख्त नही कीजिए, माननीय।


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क्या हम बंदर है..!

22:55:00 Manjar 0 Comments

आज तीन बेहद महत्वपूर्ण विषय पर लिख रहा था। लेकिन नूरानी शाम में स्याह काली रंग छोड़ती माथे पर उभरी लकीरें मेरे मित्र 'अनुज' से बात कर बहुत कुछ निशान छोड़ गई।
एक कहानी सुनना चाहता हूँ..

एक बार कुछ वैज्ञानिकों ने एक बड़ा ही रोचक प्रयोग किया..
उन्होंने 5 बंदरों को एक बड़े से पिंजरे में बंद कर दिया और बीचों -बीच एक सीढ़ी लगा दी जिसके ऊपर केले लटक रहे थे..
जैसा की अनुमान था, जैसे ही एक बन्दर की नज़र केलों पर पड़ी वो उन्हें खाने के लिए दौड़ा..
पर जैसे ही उसने कुछ सीढ़ियां चढ़ीं उस पर ठण्डे पानी की तेज धार डाल दी गयी और उसे उतर कर भागना पड़ा..
पर वैज्ञानिक यहीं नहीं रुके,
उन्होंने एक बन्दर के किये गए की सजा बाकी बंदरों को भी दे डाली और सभी को ठन्डे पानी से भिगो दिया..
बेचारे बन्दर हक्के-बक्के एक कोने में दुबक कर बैठ गए..
पर वे कब तक बैठे रहते,
कुछ समय बाद एक दूसरे बन्दर को केले खाने का मन किया..
और वो उछलता कूदता सीढ़ी की तरफ दौड़ा..
अभी उसने चढ़ना शुरू ही किया था कि पानी की तेज धार से उसे नीचे गिरा दिया गया..
और इस बार भी इस बन्दर के गुस्ताखी की सज़ा बाकी बंदरों को भी दी गयी..
एक बार फिर बेचारे बन्दर सहमे हुए एक जगह बैठ गए...
थोड़ी देर बाद जब तीसरा बन्दर केलों के लिए लपका तो एक अजीब वाक्य हुआ..
बाकी के बन्दर उस पर टूट पड़े और उसे केले खाने से रोक दिया,
ताकि एक बार फिर उन्हें ठन्डे पानी की सज़ा ना भुगतनी पड़े..
अब वैज्ञानिकों ने एक और मजेदार चीज़ की..
अंदर बंद बंदरों में से एक को बाहर निकाल दिया और एक नया बन्दर अंदर डाल दिया..
नया बन्दर वहां के नियम क्या जाने..
वो तुरंत ही केलों की तरफ लपका..
पर बाकी बंदरों ने झट से उसकी पिटाई कर दी..
उसे समझ नहीं आया कि आख़िर क्यों ये बन्दर खुद भी केले नहीं खा रहे और उसे भी नहीं खाने दे रहे..
कुछ समय बाद उसे भी समझ आ गया कि केले सिर्फ देखने के लिए हैं खाने के लिए नहीं..
इसके बाद वैज्ञानिकों ने एक और पुराने बन्दर को निकाला और नया अंदर कर दिया..
इस बार भी वही हुआ नया बन्दर केलों की तरफ लपका पर बाकी के बंदरों ने उसकी धुनाई कर दी और मज़ेदार बात ये है कि पिछली बार आया नया बन्दर भी धुनाई करने में शामिल था..
जबकि उसके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था!
प्रयोग के अंत में सभी पुराने बन्दर बाहर जा चुके थे और नए बन्दर अंदर थे जिनके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था..
पर उनका व्यवहार भी पुराने बंदरों की तरह ही था..
वे भी किसी नए बन्दर को केलों को नहीं छूने देते..
दोस्तों, हमारे समाज में भी ये व्यव्हार देखा जा सकता है..

विचार एक अनुभव है
विचार एक वजुद हैं
विचार एक संभावना हैं
विचार एक जिज्ञासा हैं

हम किसी को रोक तो नही सकते लेकिन प्रभावित जरूर कर सकते। ठीक है; सब अपने अनुसार अपना मार्ग को दुरुस्त बताते हैं। लेकिन वे लोग तो इतना जरूर तो कर सकते हैं कि जो भी कहे समझे उसका परीक्षण-प्रयोग कर ले।
सीधा बात- आमतौर पर एक बालक का विचार उसके घर में पनपे विचारों से मिलता जुलता हैं। धीरे- धीरे उसकी अवधारणा जो पनपती है वो पिता जी, चाचा जी दोस्त भाई बहन से मिल रही होती है। क्योंकि बचपन से अब तक उन्हीं सब विचारों के मिलन से जो सोंच और समझ विकसित होती हैं वह इन लोगो के विचारों के समीप होता हैं। ये जो संबंधी है वे बचपन से ऐसी विचारों का विकास कर देते है कि अगर कोई उनके समक्ष किसी अन्य विचारधारा की बात करेगा तो उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा। मैं इनसे बस इतना कहना चाहूँगा कि आप बंदर की तरह मत बनिये । अगर कोई आपको आपके खांचे से बाहर निकाल कर किसी और राजनीतिक पहलु में फिट करना चाह रहा है तो आप उस पर विचार किजिये। खूब तर्क-बहस कीजिये। बिना तर्क बहस से आप सही स्थिती का आंकलन नही कर पायेंगे। सोंच संकीर्ण मत कीजिये। हर पहलू पर जाँचिए परखिये और विचार कीजिये भले ही आप घर में पहले सदस्य "BJP" के क्यों न हो,भले आपके पिता कांग्रेसी हो तो उन्हें बताईए कि उन्हें भी अपनी पसंद बदल लेनी चाहिये। यह संभव तर्क-बहस से ही है। नया शुरुआत कीजिये, किसी के डराने से मत डरिये जैसे कोई किसी पार्टी का नाम लेकर  किसी को डरता है। हमारे घर में तो ऐसा ही होता हैं, मेरे पिता से पूछ सकते हैं ?

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प्रधानमंत्री जी की तारीफ़ तो बनती है।

12:17:00 Manjar 0 Comments

प्रधानमंत्री का पद जिस ऊँचाई और गरिमा के लिये जाना जाता है,उनका शानदार बेजोड़ दिल को छु लेना वाला आज का (27 Nov 2015) भाषण रहा। संविधान पर जोर देकर उपोह की स्थिति साफ कर दिया । अंतर्निहित मूल्यों पर जिस तरह बल दिया, वह एक प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप था।
उन्होंने आइडिया ऑफ इंडिया को जिन सूत्रों के सहारे समझने और समझाने की कोशिश की, सभी को स्वीकार करने ही पड़ेगा। परधानमंत्री के इस भाषण को सभी लोग तारीफ करेंगे ही मैं तो जीं भर कर तारीफ़ कर रहा हूँ।
उन्होंने भारत की सामाजिक परंपरा में आत्मपरिष्कार की क्षमता का जिक्र करते हुए महात्मा गांधी से लेकर विद्यासागर तक याद कर कहा- यह वह परंपरा है जिसने भारतीय सामाजिकता का आधुनिकीकरण किया है, उसे ऐसा उदार बहुलतावादी चरित्र प्रदान किया है जिसका जवाब नहीं।

"आइडिया ऑफ इंडिया सत्यमेव जयते, आइडिया ऑफ़ इंडिया अहिंसा परमो धर्म,आइडिया ऑफ़ इंडिया सर्व धर्म समभाव, आइडिया ऑफ़ इंडिया सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, आईडिया ऑफ़ इंडिया जन सेवा ही प्रभु सेवा, आइडिया ऑफ़ इंडिया वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे, पर दुःखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न आने रे।"
ये वो आइडिया है- जिससे भारत में स्वस्थ परम्परा का ईतिहास रहा है।

लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के मुख्य अंश-
•संविधान की चर्चा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवाब देते हुए कहा कि संविधान पर संसद में उत्‍तम विचार रखे गए।
•सदन ने जो रूचि दिखाई वो सराहनीय है।
देश के सब जनप्रतिनिधि हैं। इस चर्चा का मूल उद्देश्‍य भी वही था।
•चर्चा की भावना 'मैं' नहीं, 'हम' है, पूरा सदन है।
भारत विविधताओं से भरा देश है।
•26 जनवरी की ताकत 26 नवंबर में निहित है।
संविधान में हम सभी को बांधने और बढ़ाने की ताकत है।
•कोई चीज आखिरी नहीं, उसमें विकास होता रहता है।
•26 नवंबर के संविधान दिवस की व्‍यवस्‍था प्रतिवर्ष बढ़ाएं।
•ये देश कईयों की तपस्‍या से आगे बढ़ा है। सब सरकारों के योगदान से आगे बढ़ा है।
•लोकतंत्र में शिकायत का हक सबका होता है।
राजा-महाराजाओं ने देश नहीं बनाया, कोटि-कोटि जनों ने बनाया है।
•संविधान के अंदर भी सबकी भूमिका रही है।
इतने उत्‍तम संविधान की जितनी सराहना करें, उतना कम है।
•बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की भूमिका को हम कभी भी नकार नहीं सकते।
•जन सामान्‍य की गरिमा और देश की एकता संविधान का मूल है।
•बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की विशेषता रही है कि उनके विचार हर कालखंड, हर पीढ़ी, हर तबके के हैं।
•अगर संविधान बनाने में बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर शामिल न होते, तो यह शायद सामाजिक दस्‍तावेज बनने से चूक जाता।
बचाव हो या प्रहार हो, बाबा साहब रास्‍ता दिखाते हैं।
•बाबा साहब ने कितनी यातनाएं झेली, अपमानित हुए, उपेक्षित हुए, लेकिन उनके हाथ में जब देश के भविष्‍य का दस्‍तावेज बनाने का अवसर आया, तो संविधान में कहीं पर बदले का भाव नहीं दिखा।
•डॉ. अंबेडकर ने सारा जहर पीया और हमारे लिए अमृत छोड़कर गए।
•हमें अपने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्‍यों को प्राप्‍त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
•हम सब लोकतंत्र की परिपाटी में पले-बढ़े लोग हैं।
•हमारे लिए आज संविधान और अधिक महत्‍वपूर्ण होता जा रहा है।
•जब सारे प्रयास विफल हो जाएं तब आखिरी रास्‍ता अल्‍पमत और बहुमत का हो जाता है। सहमति का रास्‍ता होना चाहिए।
•हर किसी का साथ और सहयोग होना चाहिए।
संविधान की पवित्रता हम सबका दायित्‍व है, हमारी जिम्‍मेदारी है।
•बहुमत का मतलब ये नहीं होता कि आप अपनी बात थोप दें।
•लोकतंत्र में सहमति के रास्‍ते से ज्‍यादा ताकत होती है।
•हमारे पास संविधान का सहारा है, हम बहुत कुछ कर सकते हैं।
•समाज राजनेताओं को कोसता रहता है, लेकिन इन्‍हीं राजनेताओं ने इसी सदन में बैठकर अपने पर बंधन लगाने का निर्णय भी दिया।
•राजनीति में साख घटी है, ये स्थिति हमारे लिए चुनौती है।
•लोहिया-नेहरू की बहस में संसद ने ऊंचाई दिखाई।
•संसद की महान परंपराओं का आदर बनाए रखना होगा।
•समय की मांग है कि हम अधिकारों पर जितना बल दें, उतना ही हम अपने कर्तव्‍यों पर भी बल दें।
•'मेरा क्‍या...' की स्थिति देश के लिए अच्‍छी नहीं। हमें कर्तव्‍य भाव जगाना होगा।
•कभी कोई संविधान बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकता है।
•दलित को अवसर नहीं मिला, इसलिए उसकी दुर्दशा हुई। उसे अवसर देना जरूरी है।
•राष्‍ट्र का सशक्तिकरण, समाज के सभी तबकों को सशक्त करने में है।
न्‍याय सबको मिले, सहज-सुलभ हो और त्‍वरित हो।
•बाबा साहब अंबेडकर ने ताकत दिखाते हुए श्रमिकों के लिए आठ घंटे की समयसीमा निर्धारित की।
•हमने मिनिमम पेंशन एक हजार रुपये कर दी और आधार कार्ड से डायरेक्‍ट बेनिफिट स्‍कीम से भी जोड़ दिया।
•इस सदन में भी अहम बोनस एक्‍ट आना है।
सरकार का एक ही धर्म होता है, 'इंडिया फर्स्‍ट' और एक ही धर्मग्रंथ होता है 'भारत का संविधान'।
•देश संविधान से ही चलेगा, संविधान से ही चल सकता है।
•भारत का विचार यानि सत्‍यमेव जयते।
•भारत का विचार अहिंसा परमो धर्म।

फिर भी, लेकिन वह कौन सी चीज़ है जो प्रधानमंत्री की तारीफ करने से रोक देती है।
प्रधानमंत्री का जो भाषण था, वह कई दिनों से चल रहें  उनके करीबी सहयोगियों से लेकर  समर्थकों तक के सामाजिक आचार-व्यवहार और विचार का विपरीत है। या तो यह भाषण सच है या फिर वह व्यवहार सच है। एक ही पार्टी और सरकार के भीतर दोनों तरह के व्यवहार और विचार नहीं चल सकते, क्योंकि वे बिल्कुल एक-दूसरे के उलट हैं। या तो सरकार को उसी ओर काम करने पड़ेंगे जिस भविष्य की विचार को  प्रधानमंत्री जी अपना संभावना तलाश कर रहें थे।

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पहला संविधान दिवस:26 नवंबर 2015

23:38:00 Manjar 2 Comments

संविधान के चर्चा के दौरान कई बातों पर टिप्पणी हुई। जहां सोनिया गांधी ने उस एतिहासिक दिन को ना सिर्फ याद किया बल्कि कांग्रेस के योगदान को भी उल्लेखित किया।
कांग्रेस को हमेशा से देशहित की पार्टी बताते हुये कही-जिन लोगों की संविधान में किसी तरह की आस्था नहीं रही है, न इसके निर्माण में जिनकी कोई भूमिका रही है, वे आज इसका नाम जप रहे हैं। वे आज इसके अगुआ बनना चाहते हैं। वे आज संविधान के प्रति वचनबद्धता पर बहस कर रहे हैं।

श्रीमती गांधी ने कही- हमारे संविधान का निर्माण दशकों के संघर्ष का परिणाम है। हमारे देश के हर वर्ग ने संघर्ष करते हुए देश को आजाद कराया। इस संविधान को बनाने में तीन साल लगे।

श्रीमती गांधी ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कही-हमें डॉक्टर आंबेडकर की चेतावनी नहीं भूलनी चाहिए। उन्हीं के शब्दों में- कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वाले बुरे निकले तो वह निश्चित रूप से बुरा ही साबित होगा। कितना भी बुरा संविधान क्यों न हों, यदि उसे लागू करने वाले अच्छे हुए तो वह अच्छा ही साबित होगा।
जिसपर बीजेपी के सांसदों ने कड़ा विरोध करते हुए सदन में नारेबाजी करने लगे।

चूंकि आर-एस-एस और मुस्लिम लीग की स्थापना हो जाने के बावजुद किसी भी तरह से देश निर्माण में सहयोग नही दे सके।हां यह सच है कि लीग ने देश के लिए लड़ा लेकिन एक अवधारणा उन्हें काफी हद तक बांध कर रख दिया।
सोमवार,20 जनवरी 1947 को संविधान पर बहस करते हुये,हाऊस ऑफ लॉर्ड के लगाये गए आरोप पर चर्चा और खंडन करते हुए राष्ट्रपति ने कहा की (आरोप-"only one major community in India") शुरुआती शेशन 210 सदस्यों ने हिस्सा लिया जिसमें 160 में से 155 हिन्दू ,30 एस सी/33,सभी 5 सिख,5 भारतीय ईसाई/7,सभी 3 एंग्लो-इंडियन,सभी 3 पारसी और 80 मुसलमानों में से सिर्फ 4 जिनका उन्हें दुख था।

मुस्लिम लीग ने जरूर आंदोलन में हिस्सा लिया जेल गये।अंग्रेजो के विरुद्ध लड़ाई में नीतिगत, गांधी जी का साथ दिया बल्कि आंदोलन तेज कर स्वराज की कल्पना की।परंतु अपनी मांग को लेकर संविधान निर्माण में शामिल नही हुये।

आजादी के यूं तो संविधान सभा के 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के सदस्य भी थे लेकिन वैचारिक रूप से यह सभी अलग अलग राय रखते थे जैसे इनमें से कुछ नास्तिक और धर्मनिरपेक्ष थे तो कुछ ऐसे थे जो तकनीकी रूप से कांग्रेसी थे लेकिन आध्यात्मिक तौर पर  हिंदू महासभा के सदस्य थे। कुछ अपनी सोच में समाजवादी थे तो कुछ ज़मींदारों के हक़ में बोलने वाले थे। मोटे तौर पर इस सभा में लोकमत के हर पहलू को जगह देने की कोशिश की गई थी। आज (राज्यसभा टीवी,समय:12 बजे से) एक एपिसोड के दौरान नेहरू ने जब भारत का झंडा सदन के समक्ष रखा तो एक सदस्य ने यह कहते हुये ध्वज का विरोध करने लगे कि हम इसे नही मानते क्योकि इसमें स्वस्तिक का चिन्ह नही है,उनका मांग अशोक चक्र के बदले स्वस्तिक था

संसद की दूसरी कड़ी जो की आज सबसे ज्यादा विवादित रही वह राजनाथ सिंह का यह बयान-आंबेडकर ने समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग संविधान में नहीं किया।
सेक्युलर शब्द का आज सबसे ज्यादा गलत इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन यह आंबेडकर के संविधान में नहीं था। अगर उन्हें लगा होता कि यह शब्द लाया जाना चाहिए तो जरूर लाते।
42वें संविधान संसोधन से सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्दों को लाया गया। धर्म निरपेक्ष की जगह पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए।
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भाषाशास्त्र यह भी बताता है की अनेक पद या शब्द अनवरत प्रयोग से अपने मूल अर्थ को छोड़ दूसरे अर्थों में रूढ़ हो जाते हैं। कुछ इसी तरह समझे जब हम किसी वाक्य को हिन्दी में दर्शाते है तो उसके भावार्थ में शब्द ढूंढकर वहां लगाते है।यानी की शुद्ध तौर पर उसका रूपांतरण में कई रूप से परिभासा दी जायेगी। परंतु उस शब्द को जिस सम्बन्ध में कही जा रही हो और बात समझ में भी आ जाये तो वही उसका मूल होता है।
According to Justice Dharmadhikari, “The real meaning of Secularism in the language of Gandhi is ‘Sarva-Dharma-Sambhav’ meaning equal treatment & respect for all religions, but we have misunderstood the meaning of secularism as ‘Sarva-Dharma-Sam-Abhav ‘ meaning negation of all religions.”
पंथ-निरपेक्ष के बदले हम यह सोचे की अगर सेकुलर का मतलब दूसरों की संस्कृति,रहन-सहन,धर्म और खान-पान में   दखलंदाजी ना दे।और इसका सम्मान करें तो यही वास्तविक सेकुलरिज्म हैं।
जस्टिस धर्माधिकारी के अनुसार सभी को सामान आदर देना ना की सभी धर्मों को नकार देना।

मूल लेख की और लौटे तो-
संविधान सभा की न जाने कितनी बैठक हई जिसमें देश और देशवासियों से जुड़े तमाम पहलुओं पर सदस्यों और जनता ने अपनी राय रखी। इन बैठक से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का ज़िक्र इतिहासविद् रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में किया है। प्रस्तुत है उस किताब में शामिल संविधान सभा से जुड़े कुछ रोचक अंश -

9 जनवरी 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई थी जिसमें कांग्रेस के प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल आगे की सीटों पर बैठे थे। लेकिन कहीं इस बैठक को सिर्फ कांग्रेस पार्टी का शो न मान लिया जाए इसलिए विपक्ष के नेताओं को भी आगे की सीट पर बैठाया गया। एक राष्ट्रीय अखबार ने उस सम्मेलन की रिपोर्ट छापते हुए लिखा था कि 'गांधी टोपी और नेहरू जैकेट से भरी इस सभा में 9 महिला सदस्यों ने रंग भर दिया था।'

ब्रिटेन के लोकप्रिय नेता विंस्टन चर्चिल ने भारतीय संविधान के निर्माण पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'संविधान सभा में भारत के एक बहुसंख्यक समुदाय का बोलबाला रहेगा।' चर्चिल के इस वक्तव्य को नकारते हुए संविधान को मूल रूप देने से पहले जनता से भी अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था। हज़ारों की संख्या में लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं भेजी जैसे अखिल भारतीय वर्णश्रम स्वराज संघ ने कहा कि संविधान का आधार हिंदू धर्म होना चाहिए, साथ ही गो-हत्या और बूचड़खाने बंद करने की सिफारिश भी की गई थी। वहीं अल्पसंख्यक समूहों ने अपने अधिकारों की सुरक्षा की बात कही और दलितों ने ऊंची जाति के अत्याचारों के खात्मे की मांग की थी। इस तरह संविधान को तैयार करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों की हिस्सेदारी मांगी गई थी।

संविधान को तैयार करने के दौरान महिला आरक्षण पर भी बात हुई लेकिन मौजूदा दौर से इतर उस वक्त की महिला नेताओं ने सीटों और कोटे को दरकिनार करते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता की मांग की। लेकिन महिला आरक्षण के पक्ष में सबसे दिलचस्प तरीके से एक पुरुष सदस्य आर के चौधरी ने अपनी बात रखी - मुझे लगता है कि हमें औरतों को एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र दे देना चाहिए। वैसे भी जब औरतें कुछ मांगती हैं तो उनकी मांग पूरी करना आसान हो जाता है लेकिन जब वो कुछ नहीं मांगती तो यह जानना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि आखिर वह चाहती क्या हैं। अगर हम उन्हें एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र दे देंगे तो वह उसी के लिए आपस में भिड़ती रहेंगी और सामान्य चुनावी क्षेत्रों से दूर रहेंगी। ऐसा नहीं किया तो हमें उन्हें वह सीटें देनी पड़ेंगी जिसके वह लायक नहीं हैं।

संविधान सभा में सबसे विवादित विषय रहा भाषा जिसे लेकर अक्सर सदस्य ज्यादा ही भावुक हो जाते थे। ऐसे ही एक सदस्य आरवी धुलेकर ने हिंदी में अपनी बात कही जिस पर अध्यक्ष ने उन्हें टोकते हुए कहा कि सभा में मौजूद कई लोगों को हिंदी नहीं आती है और इसलिए वह उनकी बात समझ नहीं पा रहे हैं। इस पर धुलेकर ने तिलमिलाते हुए कहा कि 'जिन्हें हिंदी नहीं आती, उन्हें इस देश में रहने का हक नहीं है।' जब काफी समझाने के बाद भी धुलेकर नहीं माने तो नेहरू ने आगे बढ़कर उन्हें अपनी सीट पर लौटने को कहा और सदन की गरिमा की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि 'ये कोई आपके झांसी की आमसभा नहीं है जहां आप 'भाइयो और बहनो' कहकर ऊंची आवाज़ में भाषण देना शुरू कर दें।'

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