हमने शहीदों का सम्मान करना सीख लिया हैं !!!

18:39:00 Manjar 0 Comments

जवानों की शहादत  ( मौत कहूँ या शहादत) सर्वोच्च होती हैं। हम क्यों इतना फिक्र करते हैं ? क्या हम उनकी शहादत को समझ रहे हैं? क्या हमने सोंच, विचार, लिख - बोलकर शहादत के पीछे को जानने का अवसर दे दिया हैं। हमने
शहादत की आड़ में कमियां छुपाना सिख लिया हैं ।
बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि वह पाकिस्तान के नाम का उपयोग ग्राम चुनावों से लेकर विधान सभा, लोकसभा में कैसे करेगी।
कहाँ हमने जाना कि सैनिकों को आधुनिकता की जरूरत हैं। इसी आतंकवादी हमला मे अगर फायरप्रूफ टेंट का इस्तमाल होता तो नुकसान को कम किया ही जा सकता था। ढ़ेर सारे देशभक्ति गीत, आंसू बहाकर कुछ दिन बाद भूल जायेंगे। हमें तो फैन में बांट दिया गया हैं। कोई खांग्रेसी हैं तो कोई भक्त, कोई सिकुलर हैं तो कोई कट्टर। राजनीति ने फैन पैदाकर अपने लिये चुनौती खत्म कर दिये। अब यह कोई पूछने नहीं जाता कि ऐसा वह क्यों कर रहे हैं। हमने अपने सरकार से सवाल करने के बजाय सवाल पुछनों वालों को खदेड़ना सिख लिया हैं। हमें अब मंजूर नही कि कोई उसके खिलाफ बोले जिसके हम फैन हैं। पाकिस्तान को दोष देकर बेशक परंपरा निभाइए और अपनी गलतियां छिपा लीजिए
कश्मीर में पर्यटन बढ़ने लगा था। कर्फ्यू हट रहे थे।
राष्ट्रवाद और आतंकवाद क्या एक दूसरे के पूरक है ? कौन यहाँ चुप बैठा है ? अगर तुम हथियार इकट्ठे करोगे तो मैं क्यों नहीं?
जैसा हमेशा से होता आया है इस बार भी पाकिस्तान ने अपना हाथ होने से इंकार किया। सरकार ने कह दिया, हमले के पीछे जो लोग भी हैं, उन्हें हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा। इस बार सरकार ने  पहले से भी ज्यादा कड़े शब्दों में इसकी निंदा कर दी है। सरकार रूस से लेकर फ्रांस अमेरिका सब जगह घूम आई है लेकिन पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करवाते रह गई।

गिरिराज सिंह कहते थे, "अगर आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होते तो हम लाहौर तक पहुँच गए होते।"
अमित शाह अप्रैल 2014 में कहे, "अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान के घुसपैठिए सीमा लाँघने की हिम्मत तक न कर पाएँगे।"
अब इनकी बुद्धि कहाँ चली गई हैं ?

नरेंद्र मोदी ने जो वक्तव्य दिये हैं अगर लिखने लगुं तो न जाने कितने और पन्नों की जरूरत पड़ेगी।
देश तो कबसे एकजुट है फिर एक्सन क्यों नहीं।
फिर तो हम पाकिस्तान से ज्यादा समझदार और ज़िम्मेदार भी है।
हमेशा की तरह मीडिया चैनलों ने ईंट से ईंट बजाकर अपना काम पूरा कर दिया हैं। बाकि अभी अंग्रेजी में रात 9 बजे प्राइम टाइम में डिस्कस कर युद्ध जितने की घोषणा कर दी जायेगी। उन टीवी एक्सपर्टों को नमन जो कहते हैं, रणनीति को गोली मारो,युद्ध करो। हमने शहादत को फेसबुक लाइक से तौलना सीख लिया है।

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कौन हीरो ? कौन जीरो ?

20:19:00 Manjar 0 Comments


शाम के वक़्त हाईस्कूल के प्रांगण में बैठे मेरे मित्र 'अभिषेक' से खेलों के विषय में कुछ ऐसा ही बात कर रहें थे।
ओपी जैशा का नाम हम सब को याद रखनी चाहिए। खिलाड़ी क्यों मेडल नही ला पाये यह समझने के लिये अगर जैशा का किस्सा सुन लिये हो तो आपको समझते देर नही लगेगी। कोई क्रिकेट प्रेमी हो और वह इस खेल से अनभिज्ञ हो तो उन्हें इस लेख से दूर ही रहनी चाहिये। आखिर जान कर वह कर करेंगे भी क्या ? जैशा ओलंपिक में 42 किलोमीटर के मैराथन दौड़ में हिस्सा लेने रियो गई। एथलीटो के ट्रेनिग और उनके जरूरी सुविधा की बात तो करने से रहें, हर बात को देशभक्ति से जोड़ने वाला देश,हॉकी स्टीक लिए बाइक पर स्टंटबाजी करते हुए तिरंगा यात्रा पर निकलने वाला देश, यह देखने जांचने और पूछने की जोहमत नही उठाता कि हमारे एथलीट जरूरी सुविधाएँ लिये रियो जा रहें हैं क्या ? जैशा जब दौड़ने उतरी होगी वह इस बात को लेकर निश्चिंत होगी कि भारतीय अधिकारी उसकी मदद के लिए तैयार बैठे होंगे।
42 किलो मीटर के मैराथन में राष्ट्रीय रिकार्ड होल्डर ओपी जैशा, रियो में फिनिश लाइन पर पहुँचते ही बेहोश हो जाती है और तीन घंटे बाद होश आता है ,सात बोतल ग्लूकोज चढ़ाना पड़ता है। सभी देश लगभग दो-ढाई किमी पर अपने स्टैंड लगाये हुए थे। वे वहाँ पानी, स्पंज और ग्लूकोज बिस्किट, एनर्जी ड्रिंक जैसी चीजें अपने खिलाड़ियों को मुहैया करा रहें थे। जैशा हर दो-ढाई किमी में भारतीय स्टाफ को ढूंढती और वह आगे बढ़ती रहती, वह भारतीय डेस्क को बड़े आशा से निहारती लेकिन वहां केवल झंडा और देश के नाम की तख्ती ही दिखाई देता, न ही कोई सामान और न ही कोई अधिकारी। मजबूरन जैशा को हर आठ किमी पर ओलम्पिक आयोजकों के तरफ से मिलने वाले पानी से ही रेस पूरी करनी पड़ी। जैशा को उस भारतीय डेस्क में उस देश का प्रतिनिधि नही मिला जो राष्ट्रवाद को लेकर हमेशा भावुक रहता है। अफसोस वह इस राष्ट्रवाद से वह ताकत हासिल नही कर सकी जो उसे पदक दिलाये क्योंकि इसके लिये मुकम्मल ट्रेनिंग और सुविधा की जरूरत थी।
जैशा ने इंटरव्यू में कहा कि वह लगभग मर चुकी थी..! पिछले साल बीजिंग में 2 घंटे 34 मिनट का समय लेने वाली जैशा, रियो में 2 घंटे 47 मिनट में फिनिश लाइन तक पहुँचने में सफल  हो गई।

जिस देश में लगभग सतहत्तर सौ करोड़ युवा हों वहाँ भला पदक का अकाल कैसे पड़ गया ? क्योंकि समाज सच जान गया है? कैसा सच ? यही की धर्म खतरे में है,खास धर्म के लोगो की जनंसख्या बड़ रही है और इसतरह चलता रहा तो एक दिन वे लोग बहुसंखयक हो जाएंगे। धर्म बचाओ अभियान पर लाखो रुपये खर्च किये जा रहें हैं। जगह-जगह सेमिनार कर लोगों को चेताया जा रहा हैं। नेता युवाओं से जलूस में नारे लगवा रहें है। युवाओं को नेताओं के भाषण सुन मनमुग्ध है वे भीड़ में ताली पीट कर जबरदस्त जोश दिखा रहें हैं। वहां से मुक्ति मिलते ही तुरंत सोशल मीडिया में आकर ईट से ईट बजा देते हैं। हर समय नेताओं का बचाव करते-करते धन,समय और ऊर्जा का इस्तेमाल करना सीख लिया है।  

ठीक है खेल रत्न मिलनी चाहिये इनाम मे रूपये, जमीन और नौकरियां भी मिलनी चाहिये। लेकिन करोड़ो रुपया सिर्फ एक-दो खिलाड़ी पर लूटा देना। क्या अन्य खिलाड़ियों के बीच असमानता नही पैदा कर देगा? सरकारें और कॉरपोरेट अचानक से इनामों की बारिश कर उस हिस्से को खरीदने कोशिश नही कर रही है जिसे खिलाड़ी ने अपने गौरव में जोड़ा हो । कई और खिलाड़ियों पर ट्रेनिंग के लिए पैसा खर्च किया जाता और उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दी जाती तो वह भी आज भारत के लिए पदक लाते। केवल यह दोनों खिलाड़ी ही नहीं, कई और ऐसे खिलाड़ी हैं जो बेहतर प्रशिक्षण और सुविधाएं न मिलने की वजह से पीछे रह गए। पुरस्कार से ज्यादा यह जरुरी है कि हर मोर्चे पर संघर्ष कर रहे लाखों खिलाड़ियों के लिए कुछ किया जाय। अभी जो सफलता पर इनाम देकर श्रेय खरीदा जा रहा है वह कुछ हद तक ही सही है।  मैंने ऐसा सुना है किसी को हद से ज्यादा उठा लेने से उसके अंदर से सामूहिकता की भावना नष्ट हो जाता है। सफलता जब व्यक्तिगत रह जाती तब वह कल्याणकारी नही रह जाती। सवा सौं करोड़ वाले जनसंख्या में ओलंपिक में दो मेडल गर्व इसलिये करते है क्योंकि यहां लगभग हर खेल का हेड खिलाड़ी ना होकर राजनेता बन जाता है जो बेहद सटीक खेलनिति का मुज़ाहिरा विश्व मंच पर करता है। बाकि ट्रेनिंग, सुविधा, आधारभूत संरचना का विकास बेईमानी वाली बात होगी।
ख्याल रहें केवल जैशा ही अकेली न थी अभी जो दीपा को खेल पुरस्कार मिला है उसे भी क्वार्टरफाइनल में फ़िजियो मिला।
खेल मंत्री जी का सेल्फ़ी मुझे काफी आकर्षक लगा, पता नही क्यों नेताजी को ओलंपिक वालों से डांट सुनना पड़ा।

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फिल्म रिव्यू: रुस्तम

16:51:00 Manjar 0 Comments


निर्देशक: टीनू सुरेश देसाई

निर्माता: नीरज पांडे, अरुणा भाटिया, आकाश चावला, नितिन केनी

संगीत: अंकित तिवारी, जीत गांगुली, राघव सच्चर

लेखक : विपुल के. रावल

गीत: मनोज मुंतशिर

रेटिंग : **** (4स्टार)


12 अगस्त को रिलीज हुई साल की चर्चित फिल्मों में एक अक्षय कुमार स्टारर रुस्तम अपनी कहानी और अदाकारी से दर्शकों के नजरियों में खरी उतरती हैं। फिल्म जैसी आपेक्षा की जा रही थी वैसे ही बनी है बल्कि उससे कही ज्यादा तालियां बटोर ले जाती है। स्क्रिप्ट बेहद कसा हुआ है और स्क्रीन प्ले जो फिल्म के अंत तक आपको कुर्सी से उठने का मौका नही देती। एक धोखा खाए हुए पति का शारीरिक हावभाव कैसा रहता है ? यह आपको अक्षय कुमार के एक्सप्रेसन में दिख जाता है। अक्षय कुमार इस किरदार में बिल्कुल फिट बैठे है या यूँ कहिये कि उनमें हर किरदार को निभाने की जबर्दस्त क्षमता है। 
यह फिल्म 1959 में हुए केएम नानावती केस से प्रेरित है।
हालांकि फिल्म की रिलीज से तीन दिन पहले 12 निर्माताओं में से एक नीरज पांडे एक इंटरव्यू में यह साफ किया कि यह फिल्म 1959 के प्रसिद्ध नानावटी केस से आंशिक रूप से ही प्रभावित है। 

कहानी: 'रुस्तम' पावरी एक नेवी ऑफिसर है।  जो महीनों जहाज पर रहता है। जहाज पर एक लंबा वक्त बिताने के बाद जब रूस्तम घर आता है तो देखता है उसकी पत्नी सिंथिया (इलीना डीक्रूज) घर पर नहीं है। अलमारी से कुछ प्रेम पत्र मिलते हैं, जो रुस्तम के दोस्त विक्रम मखीजा (अर्जन बाजवा) ने सिंथिया को लिखे थे। उसे समझने में देर नही लगती उसकी पत्नी के साथ विक्रम का एक्स्ट्रा अफेयर चल रहा है। इसी बीच वह खुद को नियंत्रण नही कर पाता है और अपने दोस्त विक्रम का कत्ल कर देता है। और थाने जाकर खुद को सरेंडर कर देता है। फिर वह अदालत में अपने को निर्दोष साबित करने की दलील देता है।

फिल्म: फिल्म सभी मानकों पर खरी उतरती हैं। कोर्ट सिंस को देखते हुए अगर आप पर उदासी छा जाय तो बड़ी सरलता से मनोरंजन का छौंक आ जाता हैं। पवन मल्होत्रा और कुमुद मिश्रा और अन्य बाकि कलाकार ने बहतरीन अभिनय किया है, जिससे सभी पात्र जीवंत लगते हैं। यह फिल्म  सभी का एफर्ट मिलने से बहुत अच्छी फिल्म बन कर उभरी है। फिल्म की एडिटिंग ठीक ढंग से की गई है जो आपको बोरियत से बचाती है। सिनेमेटोग्राफ़ी प्रभावशाली होने से फिल्म आकर्षक लगता है और खुबसूरती से फिल्माया गया है। 

निर्देशन: टीनू देसाई अपने सभी एक्टर से काम लिया है। एक अच्छी स्क्रिप्ट होने से स्क्रिप्ट को हु ब हु पर्दे पर उतारना आसान नही रहता है। निर्देशक बधाई के पात्र हैं वह अपने काम को संजीदगी से निभा दिये हैं।

संगीत: गाने तो पहले से हिट हैं। तेरे संग यार कानों को सुकून देता हैं।

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फिल्म रिव्यू : मोहनजोदड़ो

13:50:00 Manjar 0 Comments


कलाकार:  रितिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह
निर्देशक-लेखक-पटकथा: आशुतोष गोवारिकर
निर्माता: सुनीता गोवारिकर, सिद्धार्थ राय कपूर
संगीत: ए. आर. रहमान
संवाद : प्रीति ममगैन
गीत: जावेद अख्तर
रेटिंग : ***

12 अगस्त को एक साथ दो बड़ी फिल्म रिलीज हुई। यंगस्टर में जहां 'रुस्तम' को लेकर क्रेज था वही 'मोहनजोदड़ो' को ह्रितिक के फैंस फर्स्ट शो मिस करना नही चाह रहें थे।गोवारिकर ऐतिहासिक फिल्मों में भव्यता के पुट के साथ प्रेम प्रसंगों को खूबसूरती से परदों पर उतारते हैं। प्री-हिस्टोरिक इंडस वैली सिविलाइजेशन के समय को परदे पर उतार तो दिया गया है लेकिन कही भी उस काल में घटित घटनाओं को इतिहासकारों ने जो राय अपने किताबों में दर्ज की है उसकी मेल नही खाती। अगर आप इस फिल्म के माध्यम से इतिहास समझने का प्रयास करते है तो आपका प्रयास असफल हो जायेगा।

 मुअनजोदड़ो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित के लेखक थानवी लिखते है " सिंधु सभ्यता के बारे में कमोबेश सभी विशेषज्ञ अध्येता मानते आए हैं कि वह शांतिपरक सभ्यता थी। खुदाई में अकेले मुअन/मोहनजोदड़ो से जो पचास हज़ार चीज़ें प्राप्त हुईं, उनमें एक भी हथियार नहीं है। सिंधु सभ्यता को जो बात बाक़ी दो महान सभ्यताओं (मिस्र और मेसोपोटामिया/इराक़) से अलग करती है, वह है यहाँ (सभ्यता के मुअनजोदड़ो या हड़प्पा आदि बड़े केंद्रों में) बड़ी इमारतों, महलों, क़िलों, उपासना स्थलों, भव्य प्रतिमाओं आदि के प्रमाण या संकेत न मिलना। सबसे विचित्र चीज़: शोधकर्ताओं ने माना है कि सिंधु सभ्यता में घोड़ा नहीं था, उसे आगे जाकर वैदिक सभ्यता में ही पालतू बनाया जा सका। इसका प्रमाण खुदाई में मिली हज़ारों चीज़ों में शेर, हाथी, गैंडा आदि अनेक पशुओं की आकृतियों के बीच कहीं भी घोड़े की छवि न होना समझा जाता है। पर फ़िल्म एक नहीं, अनेक घोड़े हैं। 
घोड़े, पुजारी, कर्म-भेद, वेश-भूषा, अनुष्ठान आदि सिंधु/हड़प्पा सभ्यता को किसी और सभ्यता (वैदिक संस्कृति?) में रोपने की कोशिश का संदेह खड़ा करती हैं।"

चीजों की खरीद-बिक्री के लिए चीजों का आदान-प्रदान किया जाता था। और तब के समय जब गांव से आया युवक दुमंजिला भवन देखता है तो उसकी कल्पना की सारी सीमाएं टूट जाता हैं। यह सब देखना आपको रोचक लग सकता है। मोहनजोदड़ो की ख़ास पहचान ईंटों वाले कुएँ  और ड्रेनेज सिस्टम रहा है जो शहर को सिस्टमेटिक बनाता है इसकी झलक फिल्म में लाई जा सकती थी। यह फिल्म यह कहकर बच निकलती है कि ऐतिहासिक नहीं है और न किसी प्रामणिकता का दावा करती है। तो सीधे फिल्म पर आते है।

कहानी: एक ऐसा शहर जो रातों रात सिंधु नदी के पानी में समा गया। कहानी आमरी गांव के एक किसान के बेटे सरमन (ऋतिक रोशन) की है, जो चर्चित नगर मोहनजोदाड़ो जाने का सपना देखता है और एक दिन वहां पहुंच जाता है। मोहनजोदड़ो पहुंच कर सरमन की नजर चानी (पूजा हेगड़े) पर पड़ती है, जो वहां के सबसे बड़े पुजारी की बेटी है। सरमन को चानी से प्यार हो जाता है, जिसकी शादी वहां के महम से तय हो चुकी है। यहां पर राज चलता है प्रधान माहम की जो किसी की नही सुनता है। राजा और उसका बेटा के द्वारा की गई क्रूरता उसे असहज लगता है। और वह इसका विरोध करने का निश्चय लेता है।
इधर सरमन से बात करने पर पुजारी को पता चलता है कि सरमन दरअसल सुरजन का बेटा है, जिसने बरसों पहले माहम के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई थी।

फिल्म: फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स का इस्तेमाल खूबसूरती से रचा गया है जो फिल्म को आकर्षित करती हैं और बांधे भी रखती है। नरभक्षी से लड़ाई,मगरमक्ष का शिकार और डराने वाली नदियां ये सिंस को आप सीट से बिना हिले-डुले बस देखते रह जाते  है। फिल्म अपने शिल्प की वजह से ध्यान खींचती है।
अभिनय: ऋतिक रोशन सरमन के रोल में जमे हैं। पूजा हेगड़े ने भी अच्छा काम किया है। बाकि कलाकारों के लिए ज्यादा स्कोप नजर नही आता है।
म्यूजिक: गाने तो पहले से ही हिट है। बैकग्राउंड म्यूजिक कमाल का है।
निर्देशन: इंडस वैली को दिखाने के लिए आशुतोष की मेहनत और रिसर्च वर्क अच्छी कही जा सकती है क्योंकि सभी इतिहासकारों का एक राय नही है। कल्पनाओं के सहारे कथा बुना जा ही सकता है। गोवारिकर फिल्म में अपनी पकड़ बनाये रखे है। फिल्म को बड़ा पर्दा पर देखना रोमांचक लगता है।
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वैसे हमने किसी एक फिल्म का मन नही बनाया था जो नजदीक के सिनेमा घर में निर्धारित समय में जो भी चल रही हो वह ही देखा जायेगा। तय समय पर पहुंचने पर मोहनजोदड़ो चलने वाली थी इसलिए पहली रिव्यू मोहनजोदड़ो की।

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GST: खूब पढ़िये ! खूब समझिये ! खूब बहस कीजिये !

20:49:00 Manjar 0 Comments


GST बिल पास हो गया। रोज-रोज का हो हल्ला भी शायद अब समाप्त हो जाये। राज्यसभा में GST पर सबने अपने विचार रखे फायदा नुकसान खूब गिनाया। सबके वोट पक्ष में ही जाने वाला था कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो की आर्थिक नीति किस तरह से अलग है ? यह  जगज़ाहिर है।
ऐसा लगता है कि आम पाठक GST को लेकर दुनिया के अनुभव को जानना नही चाहता या फिर उसने सदन के बहस को पर्याप्त मान लिया है।
जो खुद कोंग्रेस GST को लाने का प्रयास करती रही है वह इसका विरोध क्यों करेगी ? इंटरनेट पर दर्जनों लेख और रिपोर्ट है इन सब को पढ़ना पड़ेगा जो आपकी समझ का आधार रखेगा। 
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स आम उपभोक्ता से लेकर छोटी बड़ी कंपनियों और सुक्ष्म उत्पादों वाले कारखाने सभी को प्रभावित करेगा। विशेषकर केंद्र और राज्य में कर वसूली का जो मौजूदा ढांचा है उसे पूरी तरह बदल देगा।
हालांकि तकनीकी तौर पर इसे लागू करने में अभी समय है। राज्यसभा से पास होने के बाद राष्ट्रपति इसे सभी राज्यों की विधानसभा के पास भेजेंगे। जिनमें से 15 विधानसभाओं को मंज़ूरी देनी होगी। उसके बाद जीएसटी काउंसिल बनाने का काम शुरू होगा। केंद्र सरकार को दो जीएसटी कानून बनाने हैं। सेंट्रल जीएसटी और इंटर स्टेट जी एसटी। 

भारत में कुल कर संग्रह (प्रत्यक्ष & अप्रत्यक्ष) रु 14.6 लाख करोड़ की है जिनमें अप्रत्यक्ष कर लगभग 34 फीसदी शामिल हैं इन अप्रत्यक्ष कर में Rs 2.8 लाख करोड़ उत्पाद शुल्क से और सेवा कर से रु 2.1 लाख करोड़ हैं। 
 पी चिदंबरम ने सरकार से अपील की है कि सरकार बिल में ही 18 फीसदी के स्टैंडर्ड टैक्स रेट को जोड़ दे। अगर जीएसटी आने के बाद भी 24 से 26 प्रतिशत का टैक्स लगता रहे तो कोई लाभ नहीं होगा। चिदंबरम ने कहा कि जीडीपी का 57 फीसदी सर्विस सेक्टर से आता है। अगर सर्विस टैक्स 14.5 से बढ़कर 24 प्रतिशत हुआ तो महंगाई बढ़ जाएगी।
येचुरी की बारी आई तो येचुरी ने कहना प्रारंभ किया कि एक समय सदन में ही जीएसटी का रेट 27 फीसदी बताया गया था। क्या हम नहीं जानते हैं  फ्रांस में 1954 में ही जीएसटी लागू हुई थी। फ्रांस की जीडीपी 1.16 प्रतिशत है। 140 देशों में जीएसटी है। चीन की जीडीपी 6.81 प्रतिशत है, जापान की जीडीपी 0.59 प्रतिशत है, जर्मनी की जीडीपी 1.51 प्रतिशत है, ब्रिटेन की जीडीपी 2.52 प्रतिशत है।
अमेरिका में जीएसटी नहीं है। वहां की जीडीपी 2.57 प्रतिशत है।

gstindia.com नामक एक साइट है उस साइट पर "GST: Lessons from countries that have implemented the Goods and Services Tax" नाम से एक लेख पढ़ने को मिलेगा जिसे विवेक पचीसिया ने लिखा है, इ वाइ इंडिया के टैक्स पार्टनर है। विवेक लिखते हैं vat, gst का विकल्प है लेकिन पूरी दुनिया को GST से जो मुश्किलात हो रही है वह टैक्स दर है। कोई भी देश इसको स्थिर नही रख पाया है।

30 मुल्कों का एक संगठन है OECD( organization of economic co-operation and development) पिछले पांच सालो में 30 में से 20 सदस्य देशों ने अपने यहां जीएसटी की दरें बढ़ाईं हैं। यानी सबके यहाँ महंगाई बढ़ती चली गई है। अगर सरकार बोलती है मात्र तीन साल महंगाई बढ़ेगा लेकिन ऐसा प्रतीत नही होता कि तीन साल बाद रुक जाएगा। एक बार महंगाई बढ़ गई तो बढ़ती चली जायेगी।
इंडिया के तरह कैनेडा है जिसने डुअल कॉन्सेप्ट अपनाया है। inflation के दर को लेकर भी आशंका जाहिर की गई।

मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में बताया है कि 2005 से 2014 के बीच दुनिया की 25 विकसित अर्थव्यवस्था में दो तिहाई परिवारों की वास्तविक आय घट गई है या फिर सामान रही हैं। 
आपका अपना अनुभव नही बताता कि गरीब और गरीब हो रहें है। गरीब अपना सारा जमा पूंजी धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर देते हैं।  पूंजी को आकर्षित करने और रोक कर रखने के लिए टैक्स और ब्याज़ दरों में कई प्रकार की छूट दी जाती है। 
जीएसटी एक ऐसा कर प्रणाली है जो उत्पादों के उपभोग पर कर लगा देने से कर वसूली व्यापक हो जाती है। न्यूज़ीलैंड का जीएसटी सबसे आइडियल मॉडल इसलिये है क्योंकि वहां सभी उत्पादों को जीएसटी के अंदर रखा गया है। जबकि भारत में शराब, तंबाकू और पेट्रोल को जीएसटी से बाहर रखा गया है। वही शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवा शामिल है। जबकि ऑस्ट्रेलिया में इनसब को बाहर रखा गया है। यह तो तय है कि अब यहाँ स्वास्थ्य और शिक्षा अभी के अपेक्षा और महंगे हो जाएंगे। कर वसूली कमी के कारण आस्ट्रेलिया  सरकार ने पिछले दस साल में शिक्षा और स्वास्थ्य में 80 अरब आस्ट्रेलियन डॉलर की कटौती की है। तो फिर ऑस्ट्रेलिया सरकार का GST से राजस्व गया कहाँ ? फिर यह सपना बेचना बंद कर देनी चाहिए। ज्यादातर देशों में (आइडियल के करीब) इंकम टैक्स में भी इसलिये कमी की गई है ताकि चीज़ों के दाम जब बढ़े तो लोग इक्वल कर सके।
कही की भी सरकार GST इसलिये लाती है ताकि कॉरपोरेट का विश्वास जीत सके उन्हें विश्वास हो कि सरकार आम जनता से इतनी उगाही कर लेगी कि उन्हें भयंकर आर्थिक संकट का सामना ना करना पड़े। ठहराव हो । रुक कर व्ययपार कर सकें। वैसे कुछ एक्सपर्ट का मानना है कि 18000 से नीचे कमाने वाला बर्बाद हो जायेगा। उसके हाथ कुछ नही लगने वाला पर मेरा आकलन 25000 प्रति महीना कमाने वाला वस्तु और सेवा पर कर देकर उसके हाथ कुछ नही लगेगा। 
गरीब और गरीब हो जायेगा जैसा पूरी दुनिया में हो रहा है। आम लोगों का पैसा कॉरपोरेट के हवाले किया जायेगा ताकि वे स्थिर रह सकें। निःसन्देह GDP में बढ़ोतरी दर्ज होगी ही।
राज्यों के हितो पर क्या असर पर पड़ रहा है इसपर किसी और दिन बात करते हैं।

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वक्त की रफ्तार में छूटते लोग

20:29:00 Manjar 0 Comments


            हमारे समय के सबसे बड़े लेखक सर्वाधिक व्यापक पहुँच वाले लेखक और वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धोड़पकर का लेख जो हर समय के लिये प्रासंगिक है। ख़ासकर इस पोर्टल का जो समय की रफ़्तार को इंगित करता है। इसलिए 'रफ़्तार' नाम रखा गया।
image: http://www.mohallalive.com

सन 1957 में बीआर चोपड़ा की फिल्म नया दौर आई थी, जो उस वक्त मदर इंडिया  के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म साबित हुई। नया दौर  की कथा संक्षेप में यह है कि एक कस्बे में एक बस आ जाती है, जिसकी वजह से वहां तांगे वालों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाती है। यह फिल्म बस वाले अमीर खलनायक के खिलाफ गरीब तांगे वालों के संघर्ष की कहानी है। बस और तांगे के बीच होड़ का समापन सचमुच दोनों के बीच दौड़ प्रतियोगिता में होता है। जाहिर है, अंत में तांगे वाले नायक दिलीप कुमार की जीत होती है।
नया दौर का फिल्मांकन भोपाल के पास नर्मदा किनारे के कस्बे बुडनी में हुआ था। उसमें भाग लेने के लिए भोपाल से कई तांगे गए थे। तांगा दौड़ में तो जीत गया, लेकिन वास्तविक जीवन में कहानी कुछ दूसरी तरफ चली गई। कुछ वक्त बाद ही भोपाल में काली-पीली टैक्सियां आ गईं, जिनसे तांगे वालों के रोजगार को खतरा पैदा हो गया। बताते हैं कि टैक्सियों का आना रोकने के लिए तांगे वालों ने कुछ टैक्सी वालों की हत्या तक कर दी, लेकिन इससे टैक्सियां रुकी नहीं और तांगों का चलन घटता चला गया। कुछ और दिनों के बाद ऑटो रिक्शा आ गए और उन्होंने तांगे और टैक्सियों, दोनों को शहर की सड़कों से बाहर कर दिया।
यह सब कथा याद करने की वजह ऑटो रिक्शा और टैक्सी वालों की हड़ताल है, जो इस समय दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में चल रही है। ये लोग वेब आधारित या स्मार्टफोन एप आधारित टैक्सियों का विरोध कर रहे हैं। वेब आधारित सेवाओं जैसे ‘उबर’ और ‘ओला’ ने आम नागरिकों के लिए नई सुविधा पैदा कर दी है और परंपरागत ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। रेडियो कैब आने के बाद दिल्ली की परंपरागत काली-पीली टैक्सियां लगभग जा चुकी हैं।
वेब आधारित सेवा में फायदा यह है कि आप जहां हैं, वहां से आपको सिर्फ मोबाइल से दर्ज करना होता है कि आपको कब व कहां कैब चाहिए, और आपको विश्वसनीय कैब वक्त पर मिल जाएगी। आपको हर वक्त यह भी जानकारी मिल सकती है कि आपके लिए आने वाली कैब इस वक्त कहां है, किस किस्म की कार है, उसका किराया कितना है? आपको किराये के लिए मोल-भाव करने की भी जरूरत नहीं, और भी कोई झंझट नहीं। ऑटो, टैक्सी वालों को खतरा इस बात से भी हो रहा है कि ‘उबर’ और ‘ओला’ बहुत बड़ी कंपनियां हैं, वे बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए किराये में भारी कमी कर रही हैं, जिससे लोग ऑटो रिक्शा की बजाय इन्हें पसंद कर रहे हैं।
यह औद्योगीकरण का एक दुखद, लेकिन अनिवार्य पहलू है कि जब नई तकनीक आती है, तो पुराने कई रोजगार खतरे में पड़ जाते हैं। वेब आधारित सेवाओं के खिलाफ लड़ने वाले ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों की स्थिति वही है, जो कभी तांगे वालों की थी।
जब सूचना प्रौद्योगिकी जीवन के हर क्षेत्र में आ गई है, तो उसे सार्वजनिक परिवहन में आने से कैसे रोका जा सकता था? जिन लोगों ने यह पहचाना उन्होंने उबर और ओला जैसी सेवाएं शुरू कर दीं। पहले भी तो कई लोग टैक्सी स्टैंड पर फोन करके काली-पीली टैक्सी बुलाया ही करते थे, तमाम लोगों की फोन डायरी में एक नंबर करीब के टैक्सी स्टैंड का भी होता था। उबर और ओला हजारों करोड़ रुपये की कंपनियां हैं, उबर तो बहुराष्ट्रीय कंपनी हैै। जाहिर है, यह पूंजी कैब के धंधे के मुनाफे या मुनाफे की उम्मीद से ही जुटी है। इसके अलावा इन सेवाओं के तहत कैब चलाने वाले लोगों की भी कमाई अच्छी है, क्योंकि उन्हें अच्छा-खासा काम रोज मिल जाता है। ग्राहक भी खुश हैं।
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रेडियो कैब कंपनियों को ठेका दिया गया था, लेकिन वहां से टैक्सी चलाने वाले गिरोहों ने उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। ऐसी ही कोशिश इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भी हुई थी, लेकिन हवाई अड्डा चलाने वाली निजी कंपनी ने पुलिस की सहायता से उनकी कोशिश विफल कर दी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि अंत में क्या होने की संभावना है।
हमारे दौर में यह सब ज्यादा दिखता है, क्योंकि तकनीक तेजी से बदल रही है, लेकिन यह आदिम काल से होता रहा होगा। बाबरनामा  से पता चलता है कि जब बाबर की सेना बंदूक लेकर आई, तो भारत की सीमा पर कुछ छोटे राज्यों की सेना के लोग उनके सामने डट गए, क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं था कि सामने वाली सेना के पास ऐसे हथियार हैं, जिनसे वे बारूद के जरिये वार कर सकते हैं। जब किताबों की छपाई होने लगी, तो किताबों की नकल करने का काम खत्म हो गया। अब हमारी पीढ़ी के लोगों को किताबों से कितना ही भावनात्मक लगाव हो, लेकिन हमारी अगली पीढ़ियां तो मोबाइल, कंप्यूटर और टैबलेट पर ही सब कुछ पढ़ना चाहती हैं।
तकनीक को इंसान ही बनाते हैं, लेकिन अक्सर उसे नियंत्रित करना इंसानों या सरकारों के बस में नहीं होता। जिस तकनीक का वक्त आता है, उसे फिर कोई नहीं रोक पाता। पुराने रोजगारों को बचाने के लिए दुनिया भर में साम्यवादी या अन्य अधिनायकवादी सरकारों ने कई बार नई तकनीक को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसका नतीजा यह हुआ कि पुरानी तकनीक अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर रह गई। सोवियत साम्राज्य के पतन का एक बड़ा कारण यह भी था। हमारे यहां भी कई लोगों ने कंप्यूटर के आने का विरोध किया था कि इससे रोजगार घटेंगे, लेकिन अंत में यह पता चला कि कंप्यूटर के विरोध से रोजगारों का बढ़ना कम हुआ, कंप्यूटर ने तमाम नए रोजगार पैदा कर दिए।
ऑटो रिक्शा वालों से हमें कई शिकायतें होती हैं, वे अनाप-शनाप पैसे मांगते हैं, हम जहां जाना चाहते हैं, वहां जाने से रोक देते हैं, वगैरह। लेकिन हमें लूटकर वे कोई अमीर नहीं बन जाते। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक गरीब या निम्न मध्यम वर्गीय लोग हैं, जो दिन के अंत में मुश्किल से घर चलाने लायक पैसा कमा पाते हैं। वास्तविकता यह है कि ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था व तकनीक, दोनों ही गड़बड़ है। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक उनके मालिक नहीं हैं, और वे उसका भारी किराया मालिक को चुकाते हैं। किराये और रख-रखाव पर खर्च करने के बाद उनके पास बहुत कम बच पाता है। इसी तरह ऑटो रिक्शा के विकल्प की तरह लगभग उसी कीमत के चार पहिया आरामदेह वाहन कुछ बड़ी कंपनियों ने बनाए हैं, लेकिन उन्हें किसी कारण से सड़क पर आने से रोका जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो हो रहा है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, आखिरकार बदलाव वही अच्छा है, जो सबके भले के लिए हो। यह समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि जो लोग छूट रहे हैं, उन्हें भी साथ लाने के लिए कोशिश की जाए।
जब हिंदी सिनेमा की अर्थव्यवस्था और अंदाज बदला, तो नया दौर और वक्त  के निर्माता बीआर चोपड़ा की भी फिल्में पिटने लगी थीं। लगातार फ्लॉप पर फ्लॉप फिल्में बनाने पर उनकी मायूस टिप्पणी यह थी कि क्या करें, हमें फिल्म बनाने के अलावा और कोई काम आता ही नहीं है। बाद में टेलीविजन के दौर में महाभारत   बनाकर उन्होंने वापसी की। उनके भाई यश चोपड़ा हर नए दौर में ढलते हुए कामयाब बने रहे। वक्त अपने साथ सबको बहा ले जाता है। कालाय तस्मै नम:।

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राष्ट्रवाद का ओवरडोज

17:14:00 Manjar 0 Comments

कल खबर आई कि अमेरिका ने भारत में 'बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा' पर चिंता जाहिर की। अमेरिका ने भारत सरकार से कहा है कि नागरिकों की सुरक्षा और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए वह 'हर संभव प्रयास करे।' असहिष्णुता का चर्चा भारत में नई सरकार के आने से ही प्रमुखता से छाई रही है। 
अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा, ‘‘सभी तरह की असहिष्णुता से मुकाबला करने और धार्मिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश में हम भारत सरकार और नागरिकों के साथ हैं।’’
भारत में नागरिक सुरक्षा का मामला दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा है। अखलाक मामला के बाद मीडिया ने जब इस तरह के मामलों को कवर करना शुरू किया तो अख़बार के पन्ने ज़ुल्मो से भर गए। अल्पसंख्यक के बाद इसके शिकार दलित भी हो रहें है।
इस हफ्ते की शुरुआत में मध्य प्रदेश के मंदसौर में रेलवे स्टेशन पर गाय के स्वयंभू संरक्षकों ने गोमांस होने की शक में दो महिलाओं की पुलिस की मौजूदगी में पिटाई की थी। लोगों को शक था कि उनके पास गोमांस है। हालांकि उनके पास जो मांस था, वह भैंस का था। पुलिस ने दोनों महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था।

असहिष्णुता के चर्चा से तो पूरा इंटरनेट का कोना भरा पड़ा। तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया का काम आग में पेट्रोल डालने का ही रहता है। वह लगातार जनमानस में नफरत के घोल इसतरह घोलती है कि लगातार उनकी गाड़ी चलती रहें। आप रोज देखिए ये तथाकथित मीडिया कैसे हरेक छोटे मामलों को राष्ट्रवाद से जोड़ देती है। सांप्रदायिकता अब मीडिया राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक महत्वाकांक्षी के लिए दर्शकों को परोस रही है। यह बहुत बड़ी बात है,इतना कि जब मीडिया के इस चाल को समझ लीजियेगा तबतक आप दलदल में फस चुके होंगे। 30/07/2016 को IIMC के कार्यक्रम में ज़ी न्यूज़ वाले मनोहर पर्रिकर के साथ कश्मीर समस्या में बतौर वक्ता क्या कर रहें थे ? सेना सरकार की है, सरकार ने पैलेट गन के इस्तेमाल को गलत माना। अगले दिन सेना ने भी खेद प्रकट किया। सोशल मीडिया में वो लोग पाला क्यों बदल दिए जो शुरू से पैलेट गन का वकालत कर रहें थे।  सेना सरकार की है और सेना देश की है इसमें बुनियादी फर्क है इसको समझिये। 
Image:Indian Express

अर्नब गोस्वामी सरकार से कहते है कि कश्मीर पर बहुआयामी और बारीकी से की गई पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की ‘ख़बर’ ली जाए।
तटस्थ रहना और सच कहने में फर्क है। सरकार के साथ खड़े रहने मे,चाटुकारिता करने में और सचमुच का पत्रकारिता करने में बहुत फर्क है। पत्रकारिता रिपोर्टिंग के आधार पर होनी चाहिए न की पूर्वाग्रह भरे दिमाग से। 
मीडिया राष्ट्रवाद को लेकर उग्र हो रहा है। वह हर दिन सेना और सीमा के नाम पर राष्ट्रवाद उभारता है। और जब ये ठंडा पड़ता है तब गो रक्षा आ जाता है।
अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी का साफ इशारा था कि उन पत्रकारों को बोलने से रोका जाय जो सरकार से सवाल कर रहें हैं। जो सभी पक्ष को सामने ला रहें हैं। पत्रकारों की इस लड़ाई में सरकार के लिए स्वर्णिम पल है कि अब सरकार से बुनियादी सवाल नही पूछा जा रहा है। नौकरी,बेरोजगारी,भुखमरी,सड़क,नाली,बिजली सारा का सारा आधारभूत संरचना ध्वस्त हो गया है। कल फेसबुक पर SCRAE का ग्रुप मिला वे लोग बता रहें थे कि तीन साल इस परीक्षा की तैयारी करते रहें और अचानक से सरकार इस परीक्षा को हटा दी जबकि इसको हटाने के लिए सरकार को ठोस वजह देनी चाहिए थी। SSC में नई नौकरियों का अकाल पड़ गया है। पिछली सरकार के मुकाबले इस सरकार ने करीब 2 लाख कम नौकरियां पैदा की। क्या यह आंकड़े भयावह मंजर पैदा नही करते। क्यों सब इन बातों पर चुप रहना पसंद कर रहें हैं ? यह नही लगता कि जो राजनीतिक पोषित राष्ट्रवाद पैदा किया गया है उसपर हमारी चुप्पी मूर्खता है और कुछ नही। यह राष्ट्रवाद हमारी समस्या तो सुलझा नही सकता लेकिन समस्या जरूर खड़ा कर दिया है। एकतरह से संप्रभुता पर हमला।
सरकारी नौकरियां अब कारपोरेट की जागीर बनने जा रही हैं। आपको नही लगता कि हमें अपनी सरकार से पूछनी चाहिए कि वह नागरिक सुविधा के लिया क्या कर रही हैं ? हमारा मिलेनियम सिटी का जब यह हाल है तब सोंचिये कागज पर उतारे गए स्मार्ट सिटी के लोग अपने शहर को कैसे देख रहें हैं?
मीडिया सवाल पूछने के लिए बने थे। निष्पक्ष रिपोर्टिंग दिखाने के लिए। अफसोस की वह सरकार की प्रचार टीम का हिस्सा बन कर रह गए।
और हर दिन कभी गाय तो कभी सेना के नाम पर हर शाम को स्टूडियों में बैठ कर अदालत लगाते रहतें है।
उनसे कहिये कि वे हमारी सवाल उठाये..नौकरी..नागरिक सुविधा..सब के सब
तटस्थ न बने सच दिखाए। 

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पहली पुण्यतिथि: डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की जिंदगी से जुड़े कुछ प्रसंग

23:45:00 Manjar 0 Comments


 देश के पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन अब्दुल कलाम आज ही के दिन एक साल पहले हमें छोड़कर चले गए. अब्दुल कलाम हमेशा देश को दिशा दिखाते रहेंगे.

पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अवुल पकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम न सिर्फ एक महान वैज्ञानिक, प्रेरणादायक नेता थे बल्कि अद्भुत इंसान भी थे. उन्होंने जिन लोगों के साथ भी काम किया उनके दिलों को छू लिया. आइए जानते हैं उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ प्रेरणादायक प्रसंग

1. एक बार डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) में उनकी टीम बिल्डिंग की सुरक्षा को लेकर चर्चा कर रही थी. टीम ने सुझाव दिया कि बिल्डिंग की दीवार पर कांच के टुकड़े लगा देने चाहिए. लेकिन डॉकलाम ने टीम के इस सुझाव को ठुकरा दिया और कहा कि अगर हम ऐसा करेंगे तो इस दीवार पर पक्षी नहीं बैठेंगे.

2. डीआरडीओ के पूर्व चीफ की मानें तो 'अग्नि' मिसाइल के टेस्ट के समय कलाम काफी नर्वस थे. उन दिनों वो अपना इस्तीफा अपने साथ लिए घूमते थे. उनका कहना था कि अगर कुछ भी गलत हुआ तो वो इसकी जिम्मेदारी लेंगे और अपना पद छोड़ देंगे.

3. एक बार कुछ नौजवानों ने डॉ कलाम से मिलने की इच्छा जताई. इसके लिए उन्होंने उनके ऑफिस में एक पत्र लिखा. कलाम ने राष्ट्रपति भवन के पर्सनल चैंबर में उन युवाओं से न सिर्फ मुलाकात की बल्कि काफी समय उनके साथ गुजार कर उनके आइडियाज भी सुनें. आपको बता दें कि डॉ कलाम ने पूरे भारत में घूमकर करीब 1 करोड़ 70 लाख युवाओं से मुलाकात की थी.

4. डीआरडीओ में काम का काफी दवाब रहता था. एक बार साथ में काम करने वाला एक वैज्ञानिक उनके पास आया और बोला कि उसे समय से पहले घर जाना है. दरअसल वैज्ञानिक को अपने बच्चों को प्रदर्शनी दिखानी थी. डॉ कलाम ने उसे अनुमति दे दी. लेकिन काम के चक्कर में वह भूल गया कि उसे जल्दी घर जाना है. बाद में उसे बड़ा बुरा लगा कि वो अपने बच्चों को प्रदर्शनी दिखाने नहीं ले जा सका. जब वह घर गया तो पता चला कि कलाम के कहने पर मैनेजर उसके बच्चों को प्रदर्शनी दिखाने ले जा चुका था.

5. साहस पर डॉ कलाम ने अपनी एक किताब में एक घटना का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि जब वो SU-30 MKI एयर क्राफ्ट उड़ा रहे थे तो एयर क्राफ्ट के नीचे उतरने पर कई नौजवान और मीडिया के लोग उनसे बातें करने लगे. एक ने कहा कि आपको 74 साल की उम्र में सुपरसोनिक फाइटर एयरक्राफ्ट चलाने में डर नहीं लगा? इस पर डॉ कलाम का जवाब था, '40 मिनट की फ्लाइट के दौरान मैं यंत्रों को कंट्रोल करने में व्यस्त रहा और इस दौरान मैंने डर को अपने अंदर आने का समय ही नहीं दिया.'
(स्रोत:आज तक)

महान वैज्ञानिक होने और देश के राष्ट्रपति बनने के बावजूद एपीजे अब्दुल कलाम में कभी गरूर नहीं आया. उन्होंने हमेशा एक आम आदमी की जिंदगी जीने की कोशिश की. उनकी जिंदगी के ऐसे कई किस्से हैं जो उनकी दरियादिली की छाप छोड़ते हैं.

1. जब मोची और ढाबा मालिक को बनाया मेहमान

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम साल 2002 में राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार केरल गए थे. उस वक्त केरल राजभवन में राष्ट्रपति के मेहमान के तौर पर दो लोगों को न्योता भेजा गया. जानते हैं कौन थे ये दोनों मेहमान?

पहला…मोची और दूसरा…एक छोटे ढाबे का मालिक. दरअसल कलाम ने काफी दिनों तक केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में रहे थे. तभी से उनकी सड़क पर बैठने वाले मोची से जान पहचान हो गई थी. उस दौरान अक्सर वो एक ढाबे में खाना खाने जाया करते थे. राष्ट्रपति बनने के बाद भी डॉ कलाम इन्हें नहीं भूले…और जब मेहमानों बुलाने की बारी आई तो कलाम ने उन दोनों को खासतौर से चुना.

 2. ट्रस्ट को दान कर देते थे अपनी पूरी तन्ख्वाह

 डॉ कलाम ने कभी अपने या परिवार के लिए कुछ बचाकर नहीं रखा. राष्ट्रपति पद पर रहते ही उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी और मिलने वाली तनख्वाह एक ट्रस्ट के नाम कर दी. प्रोवाइडिंग अर्बन एमिनिटीज टू रुरल एरियाज ..यानी PURA नाम का ये ट्रस्ट देश के ग्रामीण इलाकों में बेहतरी के लिए काम में जुटा हुआ है. अमूल के संस्थापक और देश में श्वेत क्रांति लाने वाले डॉ वर्गीज कुरियन ने इस बारे में डॉ कलाम से पूछा …तो उनका जवाब था ‘चूंकि मैं देश का राष्ट्रपति बन गया हूं, इसलिए जबतक जिंदा रहूंगा सरकार मेरा ध्यान आगे भी रखेगी ही. तो फिर मुझे तन्ख्वाह और जमापूंजी बचाने की क्या जरूरत. अच्छा है कि ये भलाई के काम आ जाएं.’

 3. जूनियर वैज्ञानिक व्यस्त था तो उसके बच्चे को खुद प्रदर्शनी ले गए

 डॉ कलाम जब DRDO के डायरेक्टर थे…बात तब की है. अग्नि मिसाइल पर काम चल रहा था. काम का दवाब काफी थी. उसी दौरान एक दिन एक जूनियर वैज्ञानिक ने डॉ कलाम से आकर कहा कि ‘मैंने अपने बच्चों से वादा किया है कि उन्हें प्रदर्शनी घुमाने ले जाऊंगा. इसलिए आज थोड़ा पहले मुझे छुट्टी दे दीजिए.’ कलाम ने खुशी-खुशी हामी भर दी. उस दिन वो जूनियर वैज्ञानिक काम में ऐसा मशगूल हुआ कि उसे प्रदर्शनी जाने की बात याद ही नहीं रही. जब वो रात को घर पहुंचा तो ये जानकर हैरान रह गया कि डॉ कलाम वक्त पर उसके घर पहुंच गए और बच्चों को प्रदर्शनी घुमाने ले गए…ताकि काम में फंसकर उसका वादा न टूटे.

 4. मंच पर बड़ी कुर्सी पर बैठने से मना किया

 देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बाद भी डॉ कलाम को गुरूर कभी छू नहीं पाया था. साल 2013 का किस्सा सुन लीजिए. IIT वाराणसी में दीक्षांत समारोह के मौके पर उन्हें बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया गया था. कार्यक्रम में मंच पर 5 कुर्सियां लगाई गई थीं, जिसमें बीच वाली कुर्सी पर डॉ कलाम को बैठना था. लेकिन वहां मौजूद हर शख्स उस वक्त हैरान रह गया जब कलाम ने बीच वाली कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया . वजह थी बीच वाली कुर्सी बाकी चार कुर्सियों से बड़ी थी. कलाम बैठने के लिए तभी राजी हुए जब आयोजकों ने बड़ी कुर्सी हटाकर बाकी कुर्सियों के बराबर की कुर्सी मंगवाई.

 5. IIM अहमदाबाद की कहानी

डॉ कलाम में एक बड़ी खूबी ये थी कि वो अपने किसी प्रशंसक को नाराज नहीं करते थे. बात पिछले साल की है. डॉ कलाम IIM अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर गए. कार्यक्रम से पहले छात्रों ने डॉ कलाम के साथ लंच किया और छात्रों की गुजारिश पर उनके साथ तस्वीरें खिंचवाने लगे. कार्यक्रम में देरी होता देख आयोजकों ने छात्रों को तस्वीरें लेने से मना किया. इस पर कलाम ने छात्रों से कहा कि ‘कार्यक्रम के बाद मैं तबतक यहां से नहीं जाऊंगा जबतक आप सबों के साथ मेरी तस्वीर न हो जाए.’ ऐसे थे डॉक्टर कलाम.

 6. मां की जली रोटी पर पिता के व्यवहार ने दी सीख

 मिलने आने वाले बच्चों को डा. कलाम अक्सर अपने बचपन का एक किस्सा बताया करते थे. किस्सा तब का है …जब डॉ कलाम करीब आठ-नौ साल के थे. एक शाम उनके पिता काम से घर लौटने के बाद खाना खा रहे थे. थाली में एक रोटी जली हुई थी. रात में बालक कलाम ने अपनी मां को पिता से जली रोटी के लिए माफी मांगते सुना. तब पिता ने बड़े प्यार से जवाब दिया- मुझे जली रोटियां भी पसंद हैं. कलाम ने इस बारे में पिता से पूछा तो उन्होंने कहा- जली रोटियां किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं, कड़वे शब्द जरूर नुकसान पहुंचाते हैं. इसलिए रिश्तों में एक दूसरे की गलतियों को प्यार से लो…और जो तुम्हें नापसंद करते हैं, उनके लिए संवेदना रखो.

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फिल्म रिव्यू सह पोस्ट मोर्टम : उड़ता पंजाब

23:23:00 Manjar 0 Comments

सितारे : शाहिद कपूर, करीना कपूर, आलिया भट्ट, दिलजीत दोसांझ, सतीश कौशिक
निर्देशक : अभिषेक चौबे
निर्माता : अनुराग कश्यप, एकता कपूर, समीर नायर, शोभा कपूर, विकास बहल
कहानी-पटकथा-संवाद : अभिषेक चौबे, सुदीप शर्मा
गीत : शीली, शिव कुमार बटालवी, वरुण ग्रोवर
संगीत : अमित त्रिवेदी

तू लेया दे मेनू गोल्डन झुमके 
मैं कन्ना विच पावां चुम चुम के 
मन जा वे मैनु शॉपिंग करा दे 
मन जा वे रोमांटिक पिक्चर दिखा दे 
रिक्विस्टाँ पाईआं वे 
चिट्टिया कलाइयां वे 
ओह बेबी मेरी चिट्टिया कलाइयां वे 
चिट्टिया कलाइयां वे 

चिट्टा वे,चिट्टा वे
जिसने वी एहनु लिट्टा वे
कुण्डी नशे वाली खोल के देख

यह दो गीत दो अलग-अलग फ़िल्म से हैं।
एक में जहां चिट्टा का प्रयोग फिल्म की नायिका रोमांस के लिए कर रही हैं।
वही दूसरी गीत में चिट्टा का प्रयोग ड्रग्स के लिए की जा रही हैं।
पंजाबी में चिट्टा का मतलब सफेद होता हैं। हीरोइन(नशा वाला) का रंग सफेद होता हैं। पंजाब में हीरोइन के बदले चिट्टा को इस्तेमाल में लाते हैं।

पहली ऊपरी तौर पर कुछ बात करते है।
निर्देशक ने एक अच्छी कहानी का स्वाद बिगाड़ दिया। फिल्म देखते हुए लगता है आप कुछ मिस कर रहें हैं। फिल्म ड्रग्स समस्या के पास तो पहुंचती है लेकिन सही अंजाम तक पहुंचाने की कोशिस नही दिखती। फिल्म बनाने वाले कहते है कि वे पंजाब में नशे के प्रति गंभीर है। लेकिन फिल्म पंजाब में नशे के प्रति गंभीरता के नाम पर महज खानापूर्ति करती दिखती है। पंजाब में एनजीओ चलाने वाले और पंजाब रियासत के पूर्व डीजीपी कहते है उन्होंने बकायदा लिखित और ठोस सबूत के साथ एनडीए के मुख्यमंत्री को सबूत सौंपे थे। जिसमें पुलिस वाले से लेकर कई बड़े नेता ड्रग्स के गिरोह में शामिल थे। लेकिन मुख्यमंत्री ने वह रिपोर्ट ही दबा दी ।
फिल्म में नेताओं (इक्का-दुक्का) के कर्म तो छोड़िये उनका जिक्र भी मुनासिब नही समझा है।
फिल्म को संस्कृति के बारे में बात करनी चाहिए।
पंजाब में आजकल विदेशों का धमक ज्यादा सुनाई देता है। पंजाब अपनी पंजाबियत कब का पीछे छोड़ चुका है।

फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष यही बनकर उभर है कि फिल्म बताने में कामयाब रहती है ड्रग्‍स क्‍या कर सकते हैं ? ड्रग्स किसी इंसान को किस हद तक गिरा सकता है। ड्रग्‍स किसी को भी बर्बाद कर सकते हैं। ड्रग्‍स लेने वाला खुद का जान दे सकता है और सामने वाले का जान ले भी सकता है। ड्रग्‍स सिर्फ समस्या पैदा कर सकता है। समस्या का हल नही कर सकता है। 
इस टीम को इस बात के लिए शाबासी दी जा सकती है बहुत बड़ी पहलू को नजरंदाज करने के बावजूद संवेदनशील मुद्दे पर सावधानी से काम हुआ जो लोगों का ध्यानाकर्षण करता है।
जब आलिया ड्रग्स माफियाओं से किसी तरह लड़ते गिरते उठते उनकी चुंगल से निकल भाग रही होती है तब आप भी उसके साथ आधी रात में सूनसान सड़कों पर भाग रहें होते है। और निर्देशक की यही बड़ी जीत है हम भी फिल्म में घुस जाते है।
आलिया के किरदार का नाम 'बेनाम' है। आलिया हर वह जगह की कहानी कहती है जहां के हवा में नशा घुल गया हो। चाहें वह मैक्सिको हो या फिर पंजाब कोई भी शहर। 

करीना कपूर का किरदार अहम है। इसे लिखा भी अच्छे ढंग से गया है। फिल्म में दोनो महिला किरदारों को काफी मजबूत से पेश की गया है।

कहानी : पंजाब पुलिस में एएसआई सरताज सिंह (दिलजीत दोसांझ) अपने अफसरों के साथ मिलकर सीमापार से पंजाब में ट्रक से आने वाले ड्रग्सो को मिलीभगत से जाने देता है।  ये ट्रक लोकल एमएलए पहलवान के हैं। अचानक एक दिन सरताज को पता लगता है उसका छोटा भाई बल्ली भी ड्रग्स के लगातार सेवन से बीमार हो गया है। सरताज अपने भाई को डॉक्टर प्रीति साहनी (करीना) के अस्पताल में इलाज के लिए लाता है। अपने भाई की हालत देखकर सरताज टी करता है वह नशे के विरुद्ध काम करेगा। और इस लड़ाई में डॉक्टर प्रीति के एनजीओ क मुहिम का हिस्सा बन जाता है।

पंजाब का पॉप स्टार 'गबरू' हमेशा नशे में ही रहता है। आजके जमाने का हीरो गबरू अपने गीत के बोलो में सिर्फ नशा की बात करता है। नशे में धुत्त गबरू कुछ उल्टा-पुल्टा कर देता है जिससे की पुलिस उस गिरफ्तार कर जेल भेज देती है। सात दिन जेल में रहने वाला गबरू को हकीकत काटने दौड़ती है। जेल में उसे एक ऐसे लड़के से सामना होता है जो नशे की हालात में गबरू का गाना सुनते हुए अपनी मां का हत्या किया हुआ होता है।

वही आलिया पिता के मौत के बाद असहाय हो जाती है। अपने कैरियर बनाने की बजाय खेतों में मजबूरन काम करना पड़ता है। काम करते हुए एक दिन उसे ड्रग्स का एक पैकेट मिलता है। यह पैकेट उसकी जिंदगी में तूफान ला देता है।

एक्टिंग: आलिया ने किरदार के मर्म को परखा है। और वह दर्शकों में दर्द और सहानुभूति पैदा करने में कामयाब रही है।
दिलजीत पंजाब के बड़े स्‍टार हैं और वे बॉलीवुड में धमाकेदार तरीके से एंट्री मारी है। स्क्रीन पर करीना कपूर के साथ काफी फ़बे है। ये दोनो प्राकृतिक लगने की वजह से केमेस्ट्री खूब रंग जमाई है।
शाहिद कपूर ने अपने अभिनय में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखे है। वे किरदार की तह तक जाते दिखाई दिए और उन्होंने अपने रोल को जीवंत करने का भरपूर प्रयास किया है।

निर्देशन : अभिषेक चौबे ने शुरू से अंत तक बांधे रखा है। शुरुआत में जरूर फिल्म धीमी रहती है। वह सिर्फ इस लिए की किरदारों का परिचय कराया जाय। फिल्म को खास मुद्दे पर केंद्रित करके रखा है। कुछेक सिन पंजाब में सूट होने से लोकल टच है।

संगीत: संगीत मिलाजुला के ठीक है।

इस फिल्म को कोई स्टार नही, आशा जितनी थी उतना बेहतर स्क्रिप्ट नही लिखा गया है।

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अमेरिकी नजदीकी से भारत को कितना फ़ायदा ?

00:07:00 Manjar 0 Comments

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस बार का अमेरिका दौरा कई मायनो में पिछले दौरों से थोड़ा अलग है। इस बार मेडिसन स्कॉयर वाला रॉकस्टार परफोर्मेंस नही था। कुटनीति में मोदी हमेशा से पर्सनल टच ले आते है चाहे विश्व के किसी भी देश का दौरा हो। मोदी ने भरसक प्रयास किया की भारत और अमेरिका एक-दूसरे के और करीब आयें और लगभग करीब आते दिख रहे हैं। दो साल में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चौथी बार अमेरिका में हैं। ओबामा और मोदी की यह सातवीं मुलाकात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के पहले दिन भारत को बड़ी सफलता मिली है। अमेरिका न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप NSG की सदस्यता के लिए भारत को समर्थन देने को तैयार हो गया है। इसके अलावा भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम यानी MTCR के सदस्य देशों में भी शामिल होने की प्रक्रिया पूरी हो गई है। भारत अब MTCR यानी मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम में शामिल हो गया।
34 देशों के इस समूह में किसी भी देश ने भारत के सदस्य बनने पर आपत्ति नहीं जताई। इसके साथ ही भारत अमेरिका से मानवरहित ड्रोन खरीद सकेगा और बह्मोस जैसी अपनी मिसाइल को बेच सकेगा।
MTCR का सदस्य बनने पर भारत को कुछ नियमों का पालन करना पड़ेगा जैसे अधिकतम 300 किलोमीटर से कम रेंज वाली मिसाइल बनाना ।
अमेरिका ने मिसाइल क्लब में तो भारत की एंट्री करा दी है। NSG के लिये हमें चीन की जरूरत है। कोई दुसरा देश हस्तझेप करें तो बात बन सकती है। लेकिन सवाल उठता है चीन के कड़े प्रतिरोध के बाद कोई देश उससे सामना करना चाहेगा ? अमेरिका चीन पर दबाव बना पाने में कामयाब होगा? खबर तो यह भी मिल रही है कि South Africa जैसा अहम साझेदार देश NSG में भारत की सदस्यता का विरोध कर रहा है।

 कल मोदी ने अमेरिकी संसद को भी संबोधित किया। भाषण में कई कमियां थी,जिस कारण अब जग हंसाई भी हो रहा है। मोदी जी अंग्रेजी बोलने के लिये टेलीप्रॉम्पटर का प्रयोग करते है। जिस पर लिखा देखकर वो बोलते हैं। एक वाक्य दायें मुड़ कर बोलते हैं तो अगले वाक्य के लिए बायें मुड़ते हैं। हालांकि अंग्रेजी न जानना बुरी बात नही है। मोदी जो भाषण पढ़ते है,उसको एक बार रीचेक किया ही जा सकता है। निश्चित ही अंग्रेजी जानने वालो की अच्छी टीम मोदी के साथ होगी मगर वे लोग हमेशा इतिहास में शुन्य बटा नील हो जाते है। अमेरिका में जग हंसाई का कारण यूं हुआ कि एक कल्चरल प्रोग्राम में पुरानी मूर्तियों के बारे में बोलते हुए कहा कि 'कोणार्क के सूर्य मंदिर में कलाकारों ने मॉडर्न गर्ल की मूर्तियां बनाई हैं, जिनमें उन्हें स्कर्ट पहने और पर्स हाथ में लिए देखा जा सकता है। ये मूर्तियां दो हजार साल पुरानी हैं। इसका मतलब है कि शायद ये चलन उस वक्त रहा होगा।' जबकि सच्चाई यह है कि कोणार्क मंदिर को गंग वंश के राजाओं ने 13वीं शताब्दी में बनवाया था। फिर होना क्या था सोशल मीडिया पर उनका भद्द पीट गया। बिहार,युपी,गुजरात और भी कई संदर्भों में इतिहास में की गई गलतियां दिखती रहती हैं।

मैं आठवीं क्लास में था, तब संसद में गतिरोध तेज हो गया था। पहली बार संसद को समझने में खुब मजा़ आ रहा था। बीजेपी भारत-अमेरिका परमाणु करार का विरोध कर रही थी, लेकिन अब देखिये अब जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इसकी तारीफ की और कहा कि यह दोनों देशों की नई रणनीतिक साझेदारी में मुख्य बिंदु है। इसमें कतई दो राय नही हो सकती कि पिछली सरकार के दौरान की गई मेहनत का फल अब बीजेपी चख रही है। एनएसजी और एमसीटीआर की मेंबरशिप जैसे उदहारण सामने दिख रहें हैं। चीन का धमक देखते हुये अमेरिका ने तय कर लिया था कि वह इस मामले में भारत की मदद करेगा। प्रतिबंध से आजादी दिलाने का यह सहयोग न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफेरेशन ट्रीटी (एनपीटी) पर दस्तखत न करने वाले भारत को न्यूक्लियर क्लब की मेंबरशिप दिलाने के लिए भरपुर प्रयास करेगा।
NSG 48 देशों का समूह है, जो परमाणु संबंधी चीजों के व्यापार को संचालित करते है।
इस समूह का मकसद है न्यूक्लियर मैटेरियल का इस्तेमाल बिजली बनाने जैसे शांतिपूर्ण कामों के लिए हो।
NSG यह भी सुनिश्चित करता है कि न्यूक्लियर सप्लाई मिलिट्री इस्तेमाल के लिए डाइवर्ट न की जाए।
NSG के 48 देशों में से एक देश भी अगर भारत को शामिल करने का विरोध करता है तो NSG में भारत को शामिल नहीं किया जाएगा।
उम्मीद करते है कि भारत को यह रूतबा भी हासिल हो जायें। इस डील में युपीये और एनडीए क्रमश: दोनो सरकार की भागीदारी,उर्जा और प्रयास लगा है। मोदी इस डील को सकारात्मक लेते हुए आगे बड़ाने को गंभीर है जो बेहतर और स्वागत योग्य कदम है।
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अपने पहले कार्यकाल में ओबामा अफगानिस्तान मुद्दे पर केंद्रित थे और दक्षिण एशिया के लिए अपनी नीति में वे अफगानिस्तान, तथा उसके विस्तारित रूप में पाकिस्तान से आगे गौर नहीं कर सके थे और इसमें भारत के लिए ज्यादा जगह नहीं बचती थी.’ पर, कुगलमन के अनुसार, ओबामा के दूसरे कार्यकाल में, और खासकर अंतिम दो वर्षों के दौरान अफगानिस्तान के संघर्षों से मुक्त होकर ओबामा प्रशासन भारत को वह शक्ति मानने लगा है, जो चीन तथा दक्षिण चीन सागर में उसके सामुद्रिक आक्रमण को प्रतिसंतुलित कर सकता है.

जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान की दिशा में अमेरिका तथा भारत के साझा प्रयासों का स्वागत करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून ने कहा कि दोनों देशों ने पेरिस समझौते के कार्यान्वयन की दिशा में बढ़ती प्रगति प्रदर्शित की है.
-  वॉयस ऑफ अमेरिका की रिपोर्ट का मुख्य अंश

दोनों देशों ने साझा बयान भी जारी किया, इसमें भारत को अमेरिका का बड़ा रक्षा साझेदार कहा गया है. वॉशिंगटन ने तकनीक मुहैया कराने और मेक इन इंडिया अभियान के तहत भारत में निर्माण करने का एलान किया है.

दोनों देशों ने तीन मुद्दों पर साथ काम करने के लिए एक रोडमैप भी तैयार किया है. एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा, "इस बात को स्वीकार किया गया है कि विकास के साथ भारत अपने हितों की भी रक्षा करेगा, सिर्फ इलाके में ही नहीं बल्कि व्यापक पैमाने पर एशिया प्रशांत में, खास तौर पर हिंद महासागर में, जब तक भारत सुरक्षा तंत्र मुहैया कराने में सक्षम नहीं हो जाता तब तक उसकी मदद करना अमेरिका के हित में है."

अमेरिकी अधिकारी ने यह भी कहा कि, "भारत हमारे साथ ऑपरेट करे या न करे, हम भारत को उसके हितों की रक्षा करने लायक बनाने के प्रति वचनबद्ध हैं, ताकि हिंद महासागर इलाके में समुद्री परिवहन को किसी भी तरह के खतरे से मुक्त रखा जाए, जिस तरह से यह दक्षिण चीन सागर में किया जा रहा है."

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कम्प्युटर के पिता एलेन ट्यूरिंग की दिलचस्प कहानी

16:03:00 Manjar 0 Comments


पुरा नाम: एलेन मैथिसन ट्यूरिंग
जन्म: 23 जून 1912
मृत्यु: 7 जून 1954 (उम्र-41 वर्ष)
अवार्ड:  स्मीथ पराईज
            ओ बी ई
            एफ आर एस
थेसीस:   Systems of Logic Based on Ordinals
जाने जाते हैं:  Cryptanalysis of the Enigma
                   Turing machine
                   Turing test
                   LU decomposition
शिक्षा: किंगस कॉलेज,कैम्ब्रीज
         प्रिंसटन युनिवर्सिटी

एलेन ट्युरिंग के बारे में रिसेंट जानकारी सर्वप्रथम मेरे मामा जी के पुत्र ने पिछले वर्ष दिल्ली भ्रमण के दोरान दी थी। तब अचानक ही चोथी कक्षा में पढ़ी कंप्युटर बुक में एलेन के बारे में वो जानकारी याद आ गई। एलेन के बारे में जानकारी तब के समय में न होना मेरे लिये हतप्रभ और हैरान कर देने वाली बात थी। एसे करिशमाई पुरूष समाज को अपने सोंच और क्रांतिकारी परिणाम के बदौलत सदियों आगे ले चले जाते हैं।
एलेन ट्युरिंग एक महान गणितज्ञ और कम्प्युटर वैज्ञानिक थे। वह डिजिटल कम्प्यूटरों पर काम करने वाले सर्वप्रथम लोगों में से थे। वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कम्प्यूटर के बहुप्रयोग की बात सोची। उन्होंने लोगों को बताया की कम्प्यूटर अलग-अलग प्रोग्रामों को चला सकता है। ट्युरिंग ने 1936 में ट्युरिंग यंत्र का विचार प्रस्तुत किया। यह एक काल्पनिक यंत्र था जो अनुदेशों के समूह पर काम करता था। ट्यूरिंग को व्यापक रूप से सैद्धांतिक कंप्यूटर विज्ञान और कृत्रिम बुद्धि के पिता माना जाता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, ट्यूरिंग सरकार के लिये गवर्नमेंट कोड & सायफर स्कुल में काम करते थे । जो ब्रिटेन के codebreaking केंद्र के तौर पर काम करता था। जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बुरी तरह हार गया था। बदला लेने को जर्मनी बेकरार था वह द्वितिय विश्व युद्ध का खांचा खीचने लगा। युद्ध के तैयारी के दौरान नए-नए हथियार बनाने लगा। जर्मनी ने एक ऐसी मशीन बनाई जिसे एनिग्मा मशीन कहा जाता था। यह मशीन गुप्त सन्देशों के कूटलेखन या कूटलेखों के पठन के लिये प्रयुक्त होती थी। युद्ध में इसका प्रयोग सरकार और सेना के बीच भेजे गये संदेशो के लिये किया जा रहा था। एलेन ने बॉम्ब मेथड में सुधार ला कर तथा एल्कट्रो मेकेनिकल मशीन बनाकर एनिग्मा मशीन का कोड तोड़ दिया। इसके आने से ब्रिटेन को काफी लाभ मिला और विश्व युद्ध को कम से कम 4 साल छोटा कर दिया।

युद्ध के बाद वे National Physical Laboratory से जुड़े जहां उन्होने एसीई (एटोमेटीक कंप्युटिंग इंजीन) का डिजाईन किया। जो की स्टोर्ड प्रोग्राम कंप्युटर का डिजाईन करने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे।

एलेन के पिता इंडियन सिविल सर्विस में अफसर थे और छतरपुर में कार्यरत थे। जो कि बिहार और उड़ीसा प्रांत में आता था। इनके नाना मद्रास रेलवे में इंजिनियर थे। ऐलन का जन्म स्थान उनके माता-पिता ने लंदन में चुना। यहां से उन्होने अवकाश लिया ओर लंदन पहुंच गये। जहां ऐलन पैदा हुए।

एलेन ट्यूरिंग समलैंगिक थे। 1952 में उन्होंने ये माना की उन्होंने एक पुरुष से यौन संबंध बनाए थे। उस समय इंग्लैड में समलैंगिकता अपराध था। एक ब्रिटिश न्यायालय में उनके उपर मुकदमा चलाया गया और इस अपराध का दोषी पाया गया और उनसे एक चुनाव करने के लिए कहा गया। उन्हें कारागृह में जाने या "रासायनिक बधियापन" (अपनी यौन उश्रृखंलता को कम करने के लिए एस्ट्रोजन जैसे महिला अंतःस्रावों का सेवन) में से किसी एक को चुनने को कहा गया। उन्होंने अंतःस्रावों को चुना। पर इस कारण वे नपुंसक (यौनक्रिया करने में असमर्थ) हो गए और इस से उनके स्तन उग आए। ऐलन यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाए किसी तरह दो वर्ष झेलने के बाद उन्होने एक सेब में साइनाइड लगा कर खा लिया। इस तरह महज 41 साल में ही अपने जन्मदिन से मात्र 16 दिन पहले आज के दिन (7 जून) एलेन ने अपनी जान ले ली।

अगस्त 2009 में, जॉन ग्राहम-कमिंग ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक सिग्नेचर कैंपेन आरंभ किया जिसमें की उन्होनो मांग की एक समलैंगिक के रूप में ट्यूरिंग के खिलाफ चला मुकदमा गलत था और ब्रिटिश सरकार माफी मांगे।

10 सितंबर 2009 को ब्रिटिश सरकार से जारी बयान में कहा गया की ऐलन को दी गई सजा गलत थी। प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने माफ़ी मांगी। लेकिन तबतक दुनिया का एक जीनियस जा चुका था।


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व्यक्ति विशेष: मोहम्मद अली

13:49:00 Manjar 0 Comments

नाम: मोहम्मद अली
जन्म: 17 जनवरी 1942
निधन: 4 जून 2016
कुल मुकाबले: 61
जीत:56, हार: 5
तीन बार वर्ल्ड हैवीवेट चैम्पियन

बहुत कम देखने को यह मिलता है कि किसी एक की मृत्यु पर दुनिया बिल्कुल ठहर सी जायें। दुनिया के हर कोने से मोहम्मद अली के लिये संदेश भेजे जा रहे हैं। कुछ ही घंटो में लाखो ट्वीट (1 घंटे में 15 लाख ट्वीट) और फेसबुक संदेशो में अली को बड़ी सिद्दत से याद किया जा रहा है।दुनिया में मौत हर एक को आई है। कोई भी मौत से बच न सका। चाहे वह दुनिया का सबसे बुरा आदमी हो या फिर महान इंसान मौत से कोई नहीं बच सकता, 'महानतम' इंसान को भी जाना पड़ता है। कैसियस मार्केल्स क्ले जूनियर जो मोहम्मद अली के नाम मशहूर हैं, ज़िंदगी की अपनी जंग हार गये। मुक्केबाजी के युगपुरुष और तीन बार के विश्व चैंपियन मोहम्मद अली का शनिवार को 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 17 जनवरी 1942 को अमेरिका के केंचुकी के अश्वेत परिवार में जन्में अली के बचपन का नाम कैशियस क्ले था। वर्ष1964 में लिस्टन को हराकर हेवीवेट खिताब जीतने के बाद उन्होंने यह घोषणा करके मुक्केबाजी जगत को हैरानी में डाल दिया कि वह धार्मिक संगठन 'नेशन ऑफ इस्लाम' के सदस्य हैं और उन्होंने बाद में अपना नाम बदल दिया, क्योंकि उनका मानना था कि वह 'गुलामों का नाम' है। 1965 में उन्होंने इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद खुद को अश्वेत मुस्लिम घोषित कर दिया तथा नाम बदलकर मोहम्मद अली रख लिया। बाद में दुनिया उन्हें मोहम्मद अली के नाम से ही जानती रही।साल 1967 में हुए मुक़ाबले के दौरान एर्नी ट्रेल ने उन्हें मोहम्मद अली कहने से इंकार कर दिया। इस पर मोहम्मद अली ने कहा, "मेरा नाम क्या है, मूर्ख? मेरा नाम क्या है? "
अली ने 12 वर्ष की उम्र में ही मु्क्केबाजी की ट्रेनिंग शुरू की। इसके पीछे दिलचस्प कहानी यह है कि 12 साल के कैसियस क्ले अपनी साइकिल से मुफ्त में खाना मिलने वाले एक कार्यक्रम में गए थे। जब बाहर आए तो साइकिल चोरी हो चुकी थी। उन्होंने पुलिसकर्मी जोए मार्टिन से इसकी शिकायत की और साथ ही गुस्से में उन्होंने चोर का मुंह तोड़ने की धमकी भी दी। मार्टिन ने अली के गुस्से को सही जगह लगाने के लिए उन्हें स्थानीय बॉक्सिंग सीखने को प्रेरित किया। जिसका नतीजा यह रहा कि उन्होंने रोम में 1960 में हुए ओलंपिक खेलों में लाइट हैवीवेट वर्ग का स्वर्ण पदक जीता। इस जीत की कहानी भी बड़ी मजेदार है हुआ यु़ की मोहम्मद अली को हवाई जहाज में बैठने से डर लगता था। इतना ज्यादा कि, उन्होंने 1960 के रोम ओलंपिक में नहीं जाने का मन बना लिया था। हालांकि बाद में वह अमरीकी सेना का पैराशूट साथ में लेकर ओलम्पिक जाने के लिए विमान में सवार हुए, ताकि दुर्घटना होने पर जान बचाई जा सके। इस ओलंपिक में अली ने स्वर्ण पदक जीता। अली का सफ़र 5 सितंबर 1960 से शुरू होता है, इस फ़ाइनल मुक़ाबले में पोलैंड के बीगन्यू ज़ीग्गी पैत्रिज्वोस्की को मात दी थी।अगर वे हवाई जहाज़ में उड़ने के डर से रोम नहीं गए होते तो दुनिया उनके जलवे से महरूम रह जाती। तीन बार विश्व चैंपियन रह चुके हैं। पहली बार उन्होंने 1964 में फिर 1974 में और फिर 1978 में विश्व चैंपियनशिप का खिताब जीता था।
वे बॉक्सिंग के अलावा नस्लभेद के मामलों में सक्रिय रहे।वे देश से बड़ा इनसानियत को मानते थे।  मोहम्मद अली हमेशा जंग के खिलाफ रहे। यही कारण रहा था कि 1966 में उन्होंने वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सेना में शामिल होने से इनकार कर दिया। वियतनाम के खिलाफ युद्ध मे जाने से इंकार करने के लिए उन्होंने कुरआन का हवाला देकर कहा - कुरआन की शिक्षाए निर्दोषो के खिलाफ युद्ध का विरोध करती हैं। बाद में वियतनाम युद्ध के कारण अमेरिका को काफी फजीहत उठानी पड़ी। जिसके लिए बाद में उन्हें अरेस्ट भी कर लिया गया था। अरेस्ट होने के बाद भी उन्होंने यही कहा था कि मेरी वियतनाम के साथ कोई दुश्मनी नहीं है। अली ने दलील दी कि युद्ध इस्लाम और कुरान के खिलाफ है। इसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनसे विश्व चैंपियनशिप का खिताब छीन लिया गया। मुक्केबाजी लाइसेंस रद्द कर दिया गया। लोगों ने उन्हें देशद्रोही कहा। 10 हजार डॉलर के जुर्माने के साथ-साथ 5 साल की सजा भी सुनाई गई। हालांकि ट्रायल के दौरान वह जेल नहीं गये और वर्ष 1971 में अदालत ने इस फैसले को पलट दिया। अमेरिकी सेना ने अली की उनकी समझदारी (आईक्यू) के लिए 78 अंक दिये थे जिसके बाद महान मुक्केबाज ने अपनी आत्मकथा में मजाकिया लहजे में कहा 'मैंने यह कहा था कि मैं दुनिया में महानतम हूं लेकिन सबसे होशियार नहीं'। अली केस जीत गयें ओर अली को मुक्केबाजी की अनुमति दी गई।ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बावजूद मोहम्मद अली को अमेरिका के श्वेत लोगों के एक रेस्टोरेंट में खाना ऑर्डर नहीं किया गया। बाद में उनकी झड़प अश्वेत गुंडों से भी हुई। अपनी आत्मकथा 'द ग्रेटेस्ट' में अली ने लिखा कि जब मोटरसाइकल पर सवार श्वेत लोगों के एक समूह ने उनके साथ झगड़ा किया तो उन्होंने अपना पदक ओहियो नदी में फेंक दिया था।  अली ने 1981 में मुक्केबाजी से हमेशा के लिए संन्यास ले लिया।1984 में यह उजागर हुआ कि अली पर्किन्सन बीमारी से जूझ रहे हैं। उन्हें यह बीमारी मुक्केबाजी के दौरान लगी चोट से हुई थी।

अली को राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2005 में प्रेसीडेंशियल मैडल ऑफ फ्रीडम प्रदान किया। अली ने 2012 के लंदन ओलिंपिक के शुभारंभ समारोह में उपस्थिति दर्ज कराई थी।


'ऐसा इनसान, जिसने कभी अपने लोगों को नहीं बेचा। अगर यह मांग बहुत ज्यादा है तो सिर्फ एक अच्छे मुक्केबाज की तरह। अगर आप यह नहीं भी बताएंगे कि मैं कितना अच्छा था, तो भी मैं बुरा नहीं मानूंगा।’ -मोहम्मद अली (जब उनसे पूछा गया कि दुनिया से जाने के बाद आप कैसे याद किया जाना पसंद करेंगे।)

 बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ने  महान मुक्केबाज मोहम्मद अली को श्रृद्धांजलि देते हुए कहा कि वह महानतम थे और ऐसे चैम्पियन थे जो सही के लिये लड़े । 'मोहम्मद अली ने दुनिया हिला दी थी और इसे बेहतर बनाया। मिशेल और मैं उनके परिवार को सांत्वना देते हैं और दुआ करते हैं कि इस महानतम फाइटर की आत्मा को शांति मिले।' ओबामा ने कहा कि उन्होंने अपनी निजी स्टडी में अली के फोटो के नीचे उनके दस्तानों का जोड़ा रखा है जब 22 बरस की उम्र में उन्होंने सोनी लिस्टन को हराया था।ओबामा और मिशेल ने कहा, 'अली महानतम थे। ऐसा इंसान जो हमारे लिये लड़ा। वह किंग और मंडेला के साथ थे और कठिन हालात में उन्होंने आवाज बुलंद की। रिंग के बाहर की लड़ाई के कारण खिताब गंवाये। उनके कई दुश्मन बने जिन्होंने लगभग उन्हें जेल में भेज दिया था लेकिन वह अडिग रहे। उनकी जीत से हमें यह अमेरिका मिला जिसे हम आज जानते हैं।' उन्होंने बयान में कहा, 'वह परफेक्ट नहीं थे। रिंग में जादूगर लेकिन तोल मोल कर नहीं बोलते थे लेकिन अपने बेहतरीन जज्बे के दम पर उन्होंने प्रशंसक ज्यादा बनाये।'


मोहम्मद अली की आत्मा को शांति मिले। आप एक आदर्श खिलाड़ी और प्रेरणा के स्रोत रहे जिसने मानव की ऊर्जा और दृिढ़ता को प्रमाणित किया।-नरेन्द्र मोदी


वह एक महान मुक्केबाज थे। उन्होंने कई मुक्केबाजों को इस खेल में आने के लिए प्रोत्साहित किया।-एमसी मैरीकोम
मोहम्मद अली आप हमेशा एक लीजेंड रहेंगे। लीजेंड मरा नहीं करते। हम आपको हमेशा याद रखेंगे।-विजेन्दर सिंह


भविष्य में फिर कभी कोई मोहम्मद अली नहीं होगा। दुनिया भर के अश्वेत समुदाय के लोगों को उनकी जरुरत थी। वह हमारी आवाज थे। मैं आज जिस भी मुकाम पर हूं उसमें अली का बहुत योगदान है।-फ्लायड मेवेदर


हमने एक महान खिलाड़ी को खो दिया। मुक्केबाजी को अली की प्रतिभा से उतना फायदा नहीं हुआ जितना कि मानवजाति को उनकी इंसानियत से।-मैनी पैकियाओ


भगवान खुद अपने चैंपियन खिलाड़ी को लेने आए। अली अभी तक के महानतम खिलाड़ी हैं। उनकी आत्मा को शांति मिले।-माइबनाये।

'My top five quotes of Ali

1. “Even the greatest was once a beginner. Don’t be afraid to take that first step.”

2. “I am gonna show you,how great I am.”

3. “The man who has no imagination has no wings.”

4.“The only limitations one has are the ones they place on themselves.”

5.“He who is not courageous enough to take risks will accomplish nothing in life.”

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पंचायत चुनाव: खबरो को तोड़ना कितना सही है ?

16:55:00 Manjar 0 Comments

पंचायती राज :गांव की सरकार
भारत गांवो का देश है गांवो के विकास के बिना भारत का विकास नामुमकीन है । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश हैं। 1993 में संविधान में 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता मिली। पंचायतो के अधिकारो को काफी विसतृत किया गाया आर्थिक विकास के साथ सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करना और लागु करवाना पंचायतो के विवेक पर छोड़ दिये गये। प्रत्येक पंचायतो के अधिकार वहां के आर्थिक-सामाजिक-भगौलिक आधार पर तय होता हैं। वैसे ही बिहार में बिहार पंचायत राज अधिनियम,2006 की विभिन्न धाराओं से संचालित होते है। ग्राम पंचायत के सदस्यो का चुनाव ग्राम पंचायत के मतदाताओं द्वारा तय होता है।
जिंदगी में पहली बार इस चुनाव में हिस्सा लिया। बतौर वोटर वोट डालने का मौका भला कैसे छोड़ देता। मैने जिस चुनाव में अपना मत का प्रयोग किया उसके नतीजें अभी घोषित नही हुये है। जीत-हार के समीकरण में और कुछ शामे बाकि रह गई हैं। करीब करीब दोनो योद्धा एक दुसरे की जीत का भविष्यवाणी कर रहे हैं। कोई स्पष्ट नही है। किसी ने भी जीत के लड्डु के ऑडर नही दिये है। हर दिन बेचैनी,कयास और जोड़ घटाव में दिन बीत जा रहा है अब इंतजार फैसले के दिन का है। यह हाल मेरे गांव का है। लेकिन अभी जहां हूं इस प्रखंड के सभी ग्राम पंचायतो के चुनाव के नतीजे घोषित किये जा रहें है। इस प्रखंड के एक पंचायत के चुनाव परिणाम को किसी एक अखबार ने जिस ढ़ग से प्रसतुत किया वो पत्रकारिता के पैमाने पर कहीं से भी खरा नही उतरता और वह भी कल यानी पत्रकारिता दिवस के दिन। जिस घटना की मीस रिपोर्टींग हुई है उस घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखा हूं। तराजु के हर झुकाव को बेहद नजदिक से देख रहा था। 11 घंटे से ज्यादा तनाव के उस दौर को मैने महसुस किया है। जब चीजे बिल्कुल उल्ट थी तो फिर इस कदर तोड़-मरोड़ कर खबर क्यो बनाया गया ? तर्कसंगत ओर सबुत के साथ यह साबित कर सकता हूं कि पत्रकार महोदय आपने खबर को गलत तरीके से पेश किया है।
भारत में प्रेस की आजादी का बात करना वैसे भी बेईमानी है। यु ही नही 133 रैंक मिल जाते। आपने कई बार अखबारों-चैनलो में यह बात प्रमुखता से पढ़ी या सुनी होगी कि अमिताभ बच्चन या क्रिस गेल या फलाना सेलिब्रेटी ने अपने बर्ताव के लिए पत्रकारो से मांगी माफी। क्या आपने गलत रिपोर्टींग के लिये किसी अखबार वालो को माफीनामा छापे देखा है ? बहुत बड़े खबरो के लिये इक्का-दुक्का बार सुना होगा। मुझे तो फिलहाल दो खबर याद आता है एकबार ABP NEWS के पत्रकार ने गलत तथ्य बोल दिया था जिसके अगले दिन वेब संसकरण में खेद प्रकट किया गया था। दुसरा बीबीसी के पत्रकार ने ट्वीटर पर महारानी के निधन की गलत सूचना दे दी थी जिसके बाद में बीबीसी ने माफी मांगी थी।

लेकिन छोटी खबरो को मोनीटर करने वाला कोई नही होता। कस्बा लेवल पर पत्रकार जो मन में आये लिख भेजते है। संपादक सिर्फ भाषा में सुधार कर हु ब हु छाप देते है। उपर जिक्र की गई खबर का असर दैनिक दिनचार्या में हुआ होगा या नही शायद नही ही हुआ होगा लेकिन मेरे जानकारी में एेसे गलत प्रस्तुति कई के जिंदगी में कई साल तक टीस बनाये रखा। कस्बो और मध्यम शहरो के पत्रकारो को ट्रेनिग तो दी जाती है। लेकिन यह अंतराल काफी बड़ा होता है। उन्हे इतनी भी तनख्वाह नही मिलती की वे अपने जरूरतो को पुरा कर सके। जिंदगी को सुगम बनाने के लिये वह जोड़-तोड़ करने लगता है। फायदे का रिलेशनसीप बनाता है फायदा का खबर लिखता है। कभी एडीटर खबर को रोचक बनाने के लिये मुल खबर को ही इतना छेड़ देता है कि खबर वास्तविकता से कोसो दुर चली जाती है। यह इत्तेफाकन नही होता बल्की पाठको को इंटरेस्ट बढ़ाने के उद्देश्य से किया जाता है। जब खबरो के साथ ऐसा बर्ताव हो़ रहा हो तो क्या आपको नही महसुस होता इसका असर सामाजिक स्तर पर पड़ रहा है ?
कई पत्रकारो के गलत रिपोर्टींग से बहुत कुछ घटना उनके साथ घटित हो जाता है। जिनके साथ ऐसी कोई घटना घटित हुई हो उनकी रिपोर्टींग की जांच होनी चाहिए कि आखिर किस तरह के खबरे वे लिखते और किस तरह की सुचना उनके पास संग्रहित है।
या फिर कोइ एेसी व्यवस्था हो जिसमें पत्रकार डरे नही साथ ही साथ मानसिकता सिर्फ खबर का हो न की खबरो के व्यापार का। इसके लिये अखबार मालिको का अपना मुनाफा थोड़ा कम करना पड़ेगा। पत्रकारिता साहस का नाम कब का खत्म हो चुका है। लेकिन अब बिजनेस हो गया है। मगर सारा मुनाफा उपर के लोग ही खा जाते है तो भला निचले स्तर पर सुधार कैसे संभव हो पायेगा ? ये लोग तो जुगाड़ करेंगे ही और खबरो में गुणवता कहां से आ पायेगा ?
मैं जहां रह रहा हूं उस प्रखंड के पंचायत चुनाव परिणाम को जब कुछ पत्रकारो ने असमान दृष्टी से देखा तो मैं हैरान रह गया..! आखिर सोचियें जब अंदरखाने में सब आपकी मदद कर रहे है तब भी कोई क्यो हार जाए ?
खैर, जिसको जो मिला उसको तो कबुलना पड़ेगा। हार-जीत सिक्के के दो पहलु है और इसमें भी इसी सिक्के ने अपनी भुमिका निभाई । हार कई मायनो में अपना होता है जो आत्मलोचन, रणनीति और कमी को सुधारने का भरपुर मौका देता है। सही तैयारी ही जश्न की आधारशील होती है। लेकिन जब कर्म अंतिम समय पर भाग्य पर अपना फैसला छोड़ देता है और भाग्य आपका साथ छोड़ दे तो यह आपके बस की बात नही है। चुनाव के लिये सब जरूरी है और कुछ भी संभव हो जाता है।

वर्तमान पत्रकारिता परिदृश्य पर कुछ महीनो पहले लिखा मेरा लेख-https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=1821058916320108681#editor/target=post;postID=7991749712142450092;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=40;src=postname

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काना राजा,अंधा प्रजा ?

11:45:00 Manjar 0 Comments




रघुराम राजन किसी परिचय के मोहताज नही है। राजन की अगुवाई में रिजर्व बैंक को भी इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उसने देश की वित्तीय प्रणाली को बाहरी झटकों से बचाने के लिए कई उचित कदम उठाए हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री राजन विश्व बैंक व आईएमएफ की सालाना बैठक के साथ साथ जी20 के वित्तमंत्रियों व केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक में भाग लेने अमेरिका गए थे।

डाउ जोंस एंड कंपनी द्वारा प्रकाशित पत्रिका मार्केटवाच को एक साक्षात्कार में राजन ने कहा, हमारा मानना है कि हम उस मोड़ की ओर बढ़ रहे हैं जहां हम अपनी मध्यावधि वृद्धि लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं क्योंकि हालात ठीक हो रहे हैं। निवेश में मजबूती आ रही है। हमारे यहां काफी कुछ व्यापक स्थिरता है। (अर्थव्यस्था) भले ही हर झटके से अछूती नहीं हो लेकिन बहुत से झटकों से बची है।
राजन से जब चमकते बिंदु वाले इस सिद्धांत पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा, मुझे लगता है कि हमें अब भी वह स्थान हासिल करना है जहां हम संतुष्ट हो सकें। वर्तमान परिवेश को देखते हुए यही लगता है कि "अंधों में काना राजा" और हम वैसे ही हैं।
उन्होंने कहा, निसंदेह रूप से, ढांचागत सुधार चल रहे हैं। सरकार नयी दिवाला संहिता लाने की प्रक्रिया में है। वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) आना है। लेकिन अनेक उत्साहजनक चीजें पहले ही घटित हो रही हैं।

 उन्होंने कहा, 'केंद्रीय बैंकर को व्यावहारिक होना होता है, और मैं इस उन्माद का शिकार नहीं हो सकता कि भारत सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज करने वाली विशाल अर्थव्यवस्था है।'

राष्ट्रीय बैंक प्रबंधन संस्थान (एनआईबीएम) के दीक्षांत समारोह में राजन ने कहा कि भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे ऐसे देश के तौर पर देखा जा रहा है, जिसने अपनी क्षमता से कम प्रदर्शन किया है और उसे ढांचागत सुधार को 'कार्यान्वित, कार्यान्वित और कार्यान्वित' करना चाहिए।

हो सके आपको यह बात आपके स्वाद को बिगाड़ दे या मोदी के समर्थक होने के नाते बहुत बुरी लगे।
आखिर कोई भी मोदी सरकार के दो वर्षों का कार्यकाल का समीक्षा करेगा तो उसे समझ में आ जाएगा कि अगले 5 साल में यह सरकार की नीतियां हमें कितना आगे ले जा सकती हैं ? ब्रिक्स में शामिल सभी सदस्य देशों में सबसे कम प्रतिव्यक्ति आय हमारा ही है। 




अर्थव्यवस्था के दो सबसे अहम मापदंड होते हैं पहला कीमतों में गति तथा दूसरा उत्पादन सक्रियता।लेकिन इन दोनो में कोई बड़ी उछाल अब तक देखने को नही मिला हैं। मुद्रा स्फीति में हल्की सी सुधार जरूर मार्च में 5.3% से 4.8% देखने को मिला। लेकिन फिर भी कोई बड़ा तीर नही लग गया। यह संभव हो पाया क्योंकि अंतरास्ट्रीय स्तर पर वस्तु की कीमत गिरी। यहाँ तक की यूरोपीय देशों में कच्चे तेल की मांग घटी फिर भी अंतरास्ट्रीय बाजार को सही से इस्तेमाल नही कर सके। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ 'खेती' हैं, जो की पिछले दो वर्षों से मानसून की लुका-छिपी खेल ने भारतीय अर्थव्यवस्था को थाम कर रख दिया। ऊपर से सचिन पायलट की बातों को भरोसा करें तो सरकार कृषि की रीढ ग्राम सेवा सहकारी समितियों के अस्तित्व को मिटाने का षडयंत्र रच रही है। सचिन ऐसा इसलिए कह रहें है क्योंकि इन समितियों को केन्द्रीय सहकारी बैंकों के एजेन्ट के रूप में काम करने के लिए बाध्य किया जा रहा है।

अर्थव्यस्था के सुधार में पब्लिक सेक्टर को तेजी से निजीकरण किया जा रहा हैं? क्या इससे दोहरी मार जनता नही झेलेगी ? 
यह कहने में बड़ा अजीब लगता हैं कि उदारीकरण में मानवीय संबंध भी एक उत्पाद बन गया हैं।
जी न्यूज़,इंडिया न्यूज़ और इंडिया टीवी पर रोज रात आप चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध तो जीत ही जाते हैं। लेकिन वास्तविकता क्या है ? इसका कभी आपने पड़ताल किया है? चीन के साथ मुकाबला करने पर हम पाते है कि 2014 में चीन में प्रति व्यक्ति 1,531 अमेरिकी डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश हुआ था, जबकि भारत में यह निवेश मात्र 183 अमेरिकी डॉलर था।
'वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गेनाइजेशन' के आंकड़ों के अनुसार हम पेटेंट कराने में इनसे बहुत पीछे हैं।
'मेजरिंग रेग्यूलर क्वालिटी ऐंड एफिशियंसी'। इनमें 11 क्षेत्रों, विषयों की गहराई से जांच की जाती है, जिसमें व्यवसाय की शुरुआत करने के नियम, कर-प्रणाली से लेकर उत्पादन, वितरण व अन्य सभी तरह की सुविधाओं के आकलन के बाद देश की 'रैंकिंग' की जाती है। विश्व बैंक इसके तहत 189 देशों का आकलन करता है। भारत 2016 में इसमें 130 वें पायदान पर था। 
बैंको के साथ हर दिन नई समस्या तो खड़ी हो जा रही हैं। कभी माल्या तो कभी अडानी, माल्या का 9 हजार करोड़ को एक तरफ रख दे तो पंजाब की बात कर लेते है। पंजाब में सीएजी की रिपोर्ट कहती है 2009 से 2013 के बीच 3319 ट्रकों का पता नही चल रहा है। इन ट्रकों से गेहूँ खरीदना था और इस लिए 12,000 करोड़ रुपया रिलीज किया गया था और अब इन 30 बैंकों के समूह को 12,000 करोड़ के स्टॉक का हिसाब नहीं मिल रहा है। यानी 12,000 करोड़ का घोटाला हो गया है। 2007 से ही यहाँ शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी की संयुक्त गठबंधन की सरकार है।
उधर सवाल उठ रहा है की सरकार जापान को बुलेट ट्रेन चलवाने के लिए लिया गया कर्ज किस तरह से चुकता करेगी? चूंकि हम तो बड़े देश है, विदेश से हमें दान(donate..as India giving huge amounts of money to other countries) मिलेगा नही।

केंद्र सरकार की अति महत्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन परियोजना की व्यवहार्यता को लेकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद ने सवालिया निशान लगाया है। आईआईएम की रिपोर्ट के मुताबिक बुलेट ट्रेन को मुंबई-अहमदाबाद के बीच हर रोज कम से कम 100 फेरे लगाने पड़ेंगे तभी यह मुनाफे की ट्रेन बन सकेगी।

'डेडिकेटेड हाई स्पीड रेलवे नेटवर्क इन इंडिया
इशूज इन डेवलपमेंट' शीर्षक से प्रकाशित हुई है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक रेलवे को कर्ज और ब्याज समय पर चुकाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। चूंकि हमने जापान से 97,636 करोड़ रुपये का ऋण और इसका ब्याज तय समय पर चुकाने का वादा किया है। इसके लिए ट्रेन संचालन शुरू होने के 15 साल बाद तक रेलवे को 300 किलोमीटर के लिए किराया 1500 रुपये रखना होगा।
शोध से दो निष्कर्ष निकल कर आएं हैं।
1. एक यात्री औसतन 300 किलोमीटर का सफर करे और 1500 रुपये लिया जाये। राशि ब्याज सहित लौटने के लिए रोजाना 88,000-118,000 यात्रियों की जरूरत होगी।
2. अमूमन एक ट्रेन में 800 यात्री सफर करते हैं, तो 88000 यात्रियों को ढोने के लिए 100 फेरों की जरूरत होगी।
लेकिन आमतौर पर बुलेट ट्रेनों में अधिकतम 500-600 यात्री तक ही सफर करते हैं। और गति पर विश्वास किया जाये तो मान लीजिये 534 किमी के लिए 2 घंटे का समय लेगी। इस लिहाज से अधिकतम 24 घन्टा में 24 जोड़ी ट्रेन ही दौड़ पायेगी।
जो जादुई आंकड़ा पूरा करना है उससे तो हम कोसो दूर है।
खैर,इस चिंता को छोड़ ही दीजिये। क्योंकि हमलोग हिन्दू-मुस्लिम टॉपिक में ज्यादा अच्छे लगते हैं।


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