क्या हम बंदर है..!

22:55:00 Manjar 0 Comments

आज तीन बेहद महत्वपूर्ण विषय पर लिख रहा था। लेकिन नूरानी शाम में स्याह काली रंग छोड़ती माथे पर उभरी लकीरें मेरे मित्र 'अनुज' से बात कर बहुत कुछ निशान छोड़ गई।
एक कहानी सुनना चाहता हूँ..

एक बार कुछ वैज्ञानिकों ने एक बड़ा ही रोचक प्रयोग किया..
उन्होंने 5 बंदरों को एक बड़े से पिंजरे में बंद कर दिया और बीचों -बीच एक सीढ़ी लगा दी जिसके ऊपर केले लटक रहे थे..
जैसा की अनुमान था, जैसे ही एक बन्दर की नज़र केलों पर पड़ी वो उन्हें खाने के लिए दौड़ा..
पर जैसे ही उसने कुछ सीढ़ियां चढ़ीं उस पर ठण्डे पानी की तेज धार डाल दी गयी और उसे उतर कर भागना पड़ा..
पर वैज्ञानिक यहीं नहीं रुके,
उन्होंने एक बन्दर के किये गए की सजा बाकी बंदरों को भी दे डाली और सभी को ठन्डे पानी से भिगो दिया..
बेचारे बन्दर हक्के-बक्के एक कोने में दुबक कर बैठ गए..
पर वे कब तक बैठे रहते,
कुछ समय बाद एक दूसरे बन्दर को केले खाने का मन किया..
और वो उछलता कूदता सीढ़ी की तरफ दौड़ा..
अभी उसने चढ़ना शुरू ही किया था कि पानी की तेज धार से उसे नीचे गिरा दिया गया..
और इस बार भी इस बन्दर के गुस्ताखी की सज़ा बाकी बंदरों को भी दी गयी..
एक बार फिर बेचारे बन्दर सहमे हुए एक जगह बैठ गए...
थोड़ी देर बाद जब तीसरा बन्दर केलों के लिए लपका तो एक अजीब वाक्य हुआ..
बाकी के बन्दर उस पर टूट पड़े और उसे केले खाने से रोक दिया,
ताकि एक बार फिर उन्हें ठन्डे पानी की सज़ा ना भुगतनी पड़े..
अब वैज्ञानिकों ने एक और मजेदार चीज़ की..
अंदर बंद बंदरों में से एक को बाहर निकाल दिया और एक नया बन्दर अंदर डाल दिया..
नया बन्दर वहां के नियम क्या जाने..
वो तुरंत ही केलों की तरफ लपका..
पर बाकी बंदरों ने झट से उसकी पिटाई कर दी..
उसे समझ नहीं आया कि आख़िर क्यों ये बन्दर खुद भी केले नहीं खा रहे और उसे भी नहीं खाने दे रहे..
कुछ समय बाद उसे भी समझ आ गया कि केले सिर्फ देखने के लिए हैं खाने के लिए नहीं..
इसके बाद वैज्ञानिकों ने एक और पुराने बन्दर को निकाला और नया अंदर कर दिया..
इस बार भी वही हुआ नया बन्दर केलों की तरफ लपका पर बाकी के बंदरों ने उसकी धुनाई कर दी और मज़ेदार बात ये है कि पिछली बार आया नया बन्दर भी धुनाई करने में शामिल था..
जबकि उसके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था!
प्रयोग के अंत में सभी पुराने बन्दर बाहर जा चुके थे और नए बन्दर अंदर थे जिनके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था..
पर उनका व्यवहार भी पुराने बंदरों की तरह ही था..
वे भी किसी नए बन्दर को केलों को नहीं छूने देते..
दोस्तों, हमारे समाज में भी ये व्यव्हार देखा जा सकता है..

विचार एक अनुभव है
विचार एक वजुद हैं
विचार एक संभावना हैं
विचार एक जिज्ञासा हैं

हम किसी को रोक तो नही सकते लेकिन प्रभावित जरूर कर सकते। ठीक है; सब अपने अनुसार अपना मार्ग को दुरुस्त बताते हैं। लेकिन वे लोग तो इतना जरूर तो कर सकते हैं कि जो भी कहे समझे उसका परीक्षण-प्रयोग कर ले।
सीधा बात- आमतौर पर एक बालक का विचार उसके घर में पनपे विचारों से मिलता जुलता हैं। धीरे- धीरे उसकी अवधारणा जो पनपती है वो पिता जी, चाचा जी दोस्त भाई बहन से मिल रही होती है। क्योंकि बचपन से अब तक उन्हीं सब विचारों के मिलन से जो सोंच और समझ विकसित होती हैं वह इन लोगो के विचारों के समीप होता हैं। ये जो संबंधी है वे बचपन से ऐसी विचारों का विकास कर देते है कि अगर कोई उनके समक्ष किसी अन्य विचारधारा की बात करेगा तो उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा। मैं इनसे बस इतना कहना चाहूँगा कि आप बंदर की तरह मत बनिये । अगर कोई आपको आपके खांचे से बाहर निकाल कर किसी और राजनीतिक पहलु में फिट करना चाह रहा है तो आप उस पर विचार किजिये। खूब तर्क-बहस कीजिये। बिना तर्क बहस से आप सही स्थिती का आंकलन नही कर पायेंगे। सोंच संकीर्ण मत कीजिये। हर पहलू पर जाँचिए परखिये और विचार कीजिये भले ही आप घर में पहले सदस्य "BJP" के क्यों न हो,भले आपके पिता कांग्रेसी हो तो उन्हें बताईए कि उन्हें भी अपनी पसंद बदल लेनी चाहिये। यह संभव तर्क-बहस से ही है। नया शुरुआत कीजिये, किसी के डराने से मत डरिये जैसे कोई किसी पार्टी का नाम लेकर  किसी को डरता है। हमारे घर में तो ऐसा ही होता हैं, मेरे पिता से पूछ सकते हैं ?

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प्रधानमंत्री जी की तारीफ़ तो बनती है।

12:17:00 Manjar 0 Comments

प्रधानमंत्री का पद जिस ऊँचाई और गरिमा के लिये जाना जाता है,उनका शानदार बेजोड़ दिल को छु लेना वाला आज का (27 Nov 2015) भाषण रहा। संविधान पर जोर देकर उपोह की स्थिति साफ कर दिया । अंतर्निहित मूल्यों पर जिस तरह बल दिया, वह एक प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप था।
उन्होंने आइडिया ऑफ इंडिया को जिन सूत्रों के सहारे समझने और समझाने की कोशिश की, सभी को स्वीकार करने ही पड़ेगा। परधानमंत्री के इस भाषण को सभी लोग तारीफ करेंगे ही मैं तो जीं भर कर तारीफ़ कर रहा हूँ।
उन्होंने भारत की सामाजिक परंपरा में आत्मपरिष्कार की क्षमता का जिक्र करते हुए महात्मा गांधी से लेकर विद्यासागर तक याद कर कहा- यह वह परंपरा है जिसने भारतीय सामाजिकता का आधुनिकीकरण किया है, उसे ऐसा उदार बहुलतावादी चरित्र प्रदान किया है जिसका जवाब नहीं।

"आइडिया ऑफ इंडिया सत्यमेव जयते, आइडिया ऑफ़ इंडिया अहिंसा परमो धर्म,आइडिया ऑफ़ इंडिया सर्व धर्म समभाव, आइडिया ऑफ़ इंडिया सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, आईडिया ऑफ़ इंडिया जन सेवा ही प्रभु सेवा, आइडिया ऑफ़ इंडिया वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे, पर दुःखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न आने रे।"
ये वो आइडिया है- जिससे भारत में स्वस्थ परम्परा का ईतिहास रहा है।

लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के मुख्य अंश-
•संविधान की चर्चा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवाब देते हुए कहा कि संविधान पर संसद में उत्‍तम विचार रखे गए।
•सदन ने जो रूचि दिखाई वो सराहनीय है।
देश के सब जनप्रतिनिधि हैं। इस चर्चा का मूल उद्देश्‍य भी वही था।
•चर्चा की भावना 'मैं' नहीं, 'हम' है, पूरा सदन है।
भारत विविधताओं से भरा देश है।
•26 जनवरी की ताकत 26 नवंबर में निहित है।
संविधान में हम सभी को बांधने और बढ़ाने की ताकत है।
•कोई चीज आखिरी नहीं, उसमें विकास होता रहता है।
•26 नवंबर के संविधान दिवस की व्‍यवस्‍था प्रतिवर्ष बढ़ाएं।
•ये देश कईयों की तपस्‍या से आगे बढ़ा है। सब सरकारों के योगदान से आगे बढ़ा है।
•लोकतंत्र में शिकायत का हक सबका होता है।
राजा-महाराजाओं ने देश नहीं बनाया, कोटि-कोटि जनों ने बनाया है।
•संविधान के अंदर भी सबकी भूमिका रही है।
इतने उत्‍तम संविधान की जितनी सराहना करें, उतना कम है।
•बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की भूमिका को हम कभी भी नकार नहीं सकते।
•जन सामान्‍य की गरिमा और देश की एकता संविधान का मूल है।
•बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की विशेषता रही है कि उनके विचार हर कालखंड, हर पीढ़ी, हर तबके के हैं।
•अगर संविधान बनाने में बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर शामिल न होते, तो यह शायद सामाजिक दस्‍तावेज बनने से चूक जाता।
बचाव हो या प्रहार हो, बाबा साहब रास्‍ता दिखाते हैं।
•बाबा साहब ने कितनी यातनाएं झेली, अपमानित हुए, उपेक्षित हुए, लेकिन उनके हाथ में जब देश के भविष्‍य का दस्‍तावेज बनाने का अवसर आया, तो संविधान में कहीं पर बदले का भाव नहीं दिखा।
•डॉ. अंबेडकर ने सारा जहर पीया और हमारे लिए अमृत छोड़कर गए।
•हमें अपने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्‍यों को प्राप्‍त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
•हम सब लोकतंत्र की परिपाटी में पले-बढ़े लोग हैं।
•हमारे लिए आज संविधान और अधिक महत्‍वपूर्ण होता जा रहा है।
•जब सारे प्रयास विफल हो जाएं तब आखिरी रास्‍ता अल्‍पमत और बहुमत का हो जाता है। सहमति का रास्‍ता होना चाहिए।
•हर किसी का साथ और सहयोग होना चाहिए।
संविधान की पवित्रता हम सबका दायित्‍व है, हमारी जिम्‍मेदारी है।
•बहुमत का मतलब ये नहीं होता कि आप अपनी बात थोप दें।
•लोकतंत्र में सहमति के रास्‍ते से ज्‍यादा ताकत होती है।
•हमारे पास संविधान का सहारा है, हम बहुत कुछ कर सकते हैं।
•समाज राजनेताओं को कोसता रहता है, लेकिन इन्‍हीं राजनेताओं ने इसी सदन में बैठकर अपने पर बंधन लगाने का निर्णय भी दिया।
•राजनीति में साख घटी है, ये स्थिति हमारे लिए चुनौती है।
•लोहिया-नेहरू की बहस में संसद ने ऊंचाई दिखाई।
•संसद की महान परंपराओं का आदर बनाए रखना होगा।
•समय की मांग है कि हम अधिकारों पर जितना बल दें, उतना ही हम अपने कर्तव्‍यों पर भी बल दें।
•'मेरा क्‍या...' की स्थिति देश के लिए अच्‍छी नहीं। हमें कर्तव्‍य भाव जगाना होगा।
•कभी कोई संविधान बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकता है।
•दलित को अवसर नहीं मिला, इसलिए उसकी दुर्दशा हुई। उसे अवसर देना जरूरी है।
•राष्‍ट्र का सशक्तिकरण, समाज के सभी तबकों को सशक्त करने में है।
न्‍याय सबको मिले, सहज-सुलभ हो और त्‍वरित हो।
•बाबा साहब अंबेडकर ने ताकत दिखाते हुए श्रमिकों के लिए आठ घंटे की समयसीमा निर्धारित की।
•हमने मिनिमम पेंशन एक हजार रुपये कर दी और आधार कार्ड से डायरेक्‍ट बेनिफिट स्‍कीम से भी जोड़ दिया।
•इस सदन में भी अहम बोनस एक्‍ट आना है।
सरकार का एक ही धर्म होता है, 'इंडिया फर्स्‍ट' और एक ही धर्मग्रंथ होता है 'भारत का संविधान'।
•देश संविधान से ही चलेगा, संविधान से ही चल सकता है।
•भारत का विचार यानि सत्‍यमेव जयते।
•भारत का विचार अहिंसा परमो धर्म।

फिर भी, लेकिन वह कौन सी चीज़ है जो प्रधानमंत्री की तारीफ करने से रोक देती है।
प्रधानमंत्री का जो भाषण था, वह कई दिनों से चल रहें  उनके करीबी सहयोगियों से लेकर  समर्थकों तक के सामाजिक आचार-व्यवहार और विचार का विपरीत है। या तो यह भाषण सच है या फिर वह व्यवहार सच है। एक ही पार्टी और सरकार के भीतर दोनों तरह के व्यवहार और विचार नहीं चल सकते, क्योंकि वे बिल्कुल एक-दूसरे के उलट हैं। या तो सरकार को उसी ओर काम करने पड़ेंगे जिस भविष्य की विचार को  प्रधानमंत्री जी अपना संभावना तलाश कर रहें थे।

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पहला संविधान दिवस:26 नवंबर 2015

23:38:00 Manjar 2 Comments

संविधान के चर्चा के दौरान कई बातों पर टिप्पणी हुई। जहां सोनिया गांधी ने उस एतिहासिक दिन को ना सिर्फ याद किया बल्कि कांग्रेस के योगदान को भी उल्लेखित किया।
कांग्रेस को हमेशा से देशहित की पार्टी बताते हुये कही-जिन लोगों की संविधान में किसी तरह की आस्था नहीं रही है, न इसके निर्माण में जिनकी कोई भूमिका रही है, वे आज इसका नाम जप रहे हैं। वे आज इसके अगुआ बनना चाहते हैं। वे आज संविधान के प्रति वचनबद्धता पर बहस कर रहे हैं।

श्रीमती गांधी ने कही- हमारे संविधान का निर्माण दशकों के संघर्ष का परिणाम है। हमारे देश के हर वर्ग ने संघर्ष करते हुए देश को आजाद कराया। इस संविधान को बनाने में तीन साल लगे।

श्रीमती गांधी ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कही-हमें डॉक्टर आंबेडकर की चेतावनी नहीं भूलनी चाहिए। उन्हीं के शब्दों में- कोई संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वाले बुरे निकले तो वह निश्चित रूप से बुरा ही साबित होगा। कितना भी बुरा संविधान क्यों न हों, यदि उसे लागू करने वाले अच्छे हुए तो वह अच्छा ही साबित होगा।
जिसपर बीजेपी के सांसदों ने कड़ा विरोध करते हुए सदन में नारेबाजी करने लगे।

चूंकि आर-एस-एस और मुस्लिम लीग की स्थापना हो जाने के बावजुद किसी भी तरह से देश निर्माण में सहयोग नही दे सके।हां यह सच है कि लीग ने देश के लिए लड़ा लेकिन एक अवधारणा उन्हें काफी हद तक बांध कर रख दिया।
सोमवार,20 जनवरी 1947 को संविधान पर बहस करते हुये,हाऊस ऑफ लॉर्ड के लगाये गए आरोप पर चर्चा और खंडन करते हुए राष्ट्रपति ने कहा की (आरोप-"only one major community in India") शुरुआती शेशन 210 सदस्यों ने हिस्सा लिया जिसमें 160 में से 155 हिन्दू ,30 एस सी/33,सभी 5 सिख,5 भारतीय ईसाई/7,सभी 3 एंग्लो-इंडियन,सभी 3 पारसी और 80 मुसलमानों में से सिर्फ 4 जिनका उन्हें दुख था।

मुस्लिम लीग ने जरूर आंदोलन में हिस्सा लिया जेल गये।अंग्रेजो के विरुद्ध लड़ाई में नीतिगत, गांधी जी का साथ दिया बल्कि आंदोलन तेज कर स्वराज की कल्पना की।परंतु अपनी मांग को लेकर संविधान निर्माण में शामिल नही हुये।

आजादी के यूं तो संविधान सभा के 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के सदस्य भी थे लेकिन वैचारिक रूप से यह सभी अलग अलग राय रखते थे जैसे इनमें से कुछ नास्तिक और धर्मनिरपेक्ष थे तो कुछ ऐसे थे जो तकनीकी रूप से कांग्रेसी थे लेकिन आध्यात्मिक तौर पर  हिंदू महासभा के सदस्य थे। कुछ अपनी सोच में समाजवादी थे तो कुछ ज़मींदारों के हक़ में बोलने वाले थे। मोटे तौर पर इस सभा में लोकमत के हर पहलू को जगह देने की कोशिश की गई थी। आज (राज्यसभा टीवी,समय:12 बजे से) एक एपिसोड के दौरान नेहरू ने जब भारत का झंडा सदन के समक्ष रखा तो एक सदस्य ने यह कहते हुये ध्वज का विरोध करने लगे कि हम इसे नही मानते क्योकि इसमें स्वस्तिक का चिन्ह नही है,उनका मांग अशोक चक्र के बदले स्वस्तिक था

संसद की दूसरी कड़ी जो की आज सबसे ज्यादा विवादित रही वह राजनाथ सिंह का यह बयान-आंबेडकर ने समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग संविधान में नहीं किया।
सेक्युलर शब्द का आज सबसे ज्यादा गलत इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन यह आंबेडकर के संविधान में नहीं था। अगर उन्हें लगा होता कि यह शब्द लाया जाना चाहिए तो जरूर लाते।
42वें संविधान संसोधन से सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्दों को लाया गया। धर्म निरपेक्ष की जगह पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए।
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भाषाशास्त्र यह भी बताता है की अनेक पद या शब्द अनवरत प्रयोग से अपने मूल अर्थ को छोड़ दूसरे अर्थों में रूढ़ हो जाते हैं। कुछ इसी तरह समझे जब हम किसी वाक्य को हिन्दी में दर्शाते है तो उसके भावार्थ में शब्द ढूंढकर वहां लगाते है।यानी की शुद्ध तौर पर उसका रूपांतरण में कई रूप से परिभासा दी जायेगी। परंतु उस शब्द को जिस सम्बन्ध में कही जा रही हो और बात समझ में भी आ जाये तो वही उसका मूल होता है।
According to Justice Dharmadhikari, “The real meaning of Secularism in the language of Gandhi is ‘Sarva-Dharma-Sambhav’ meaning equal treatment & respect for all religions, but we have misunderstood the meaning of secularism as ‘Sarva-Dharma-Sam-Abhav ‘ meaning negation of all religions.”
पंथ-निरपेक्ष के बदले हम यह सोचे की अगर सेकुलर का मतलब दूसरों की संस्कृति,रहन-सहन,धर्म और खान-पान में   दखलंदाजी ना दे।और इसका सम्मान करें तो यही वास्तविक सेकुलरिज्म हैं।
जस्टिस धर्माधिकारी के अनुसार सभी को सामान आदर देना ना की सभी धर्मों को नकार देना।

मूल लेख की और लौटे तो-
संविधान सभा की न जाने कितनी बैठक हई जिसमें देश और देशवासियों से जुड़े तमाम पहलुओं पर सदस्यों और जनता ने अपनी राय रखी। इन बैठक से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का ज़िक्र इतिहासविद् रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में किया है। प्रस्तुत है उस किताब में शामिल संविधान सभा से जुड़े कुछ रोचक अंश -

9 जनवरी 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई थी जिसमें कांग्रेस के प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल आगे की सीटों पर बैठे थे। लेकिन कहीं इस बैठक को सिर्फ कांग्रेस पार्टी का शो न मान लिया जाए इसलिए विपक्ष के नेताओं को भी आगे की सीट पर बैठाया गया। एक राष्ट्रीय अखबार ने उस सम्मेलन की रिपोर्ट छापते हुए लिखा था कि 'गांधी टोपी और नेहरू जैकेट से भरी इस सभा में 9 महिला सदस्यों ने रंग भर दिया था।'

ब्रिटेन के लोकप्रिय नेता विंस्टन चर्चिल ने भारतीय संविधान के निर्माण पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'संविधान सभा में भारत के एक बहुसंख्यक समुदाय का बोलबाला रहेगा।' चर्चिल के इस वक्तव्य को नकारते हुए संविधान को मूल रूप देने से पहले जनता से भी अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था। हज़ारों की संख्या में लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं भेजी जैसे अखिल भारतीय वर्णश्रम स्वराज संघ ने कहा कि संविधान का आधार हिंदू धर्म होना चाहिए, साथ ही गो-हत्या और बूचड़खाने बंद करने की सिफारिश भी की गई थी। वहीं अल्पसंख्यक समूहों ने अपने अधिकारों की सुरक्षा की बात कही और दलितों ने ऊंची जाति के अत्याचारों के खात्मे की मांग की थी। इस तरह संविधान को तैयार करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों की हिस्सेदारी मांगी गई थी।

संविधान को तैयार करने के दौरान महिला आरक्षण पर भी बात हुई लेकिन मौजूदा दौर से इतर उस वक्त की महिला नेताओं ने सीटों और कोटे को दरकिनार करते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता की मांग की। लेकिन महिला आरक्षण के पक्ष में सबसे दिलचस्प तरीके से एक पुरुष सदस्य आर के चौधरी ने अपनी बात रखी - मुझे लगता है कि हमें औरतों को एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र दे देना चाहिए। वैसे भी जब औरतें कुछ मांगती हैं तो उनकी मांग पूरी करना आसान हो जाता है लेकिन जब वो कुछ नहीं मांगती तो यह जानना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि आखिर वह चाहती क्या हैं। अगर हम उन्हें एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र दे देंगे तो वह उसी के लिए आपस में भिड़ती रहेंगी और सामान्य चुनावी क्षेत्रों से दूर रहेंगी। ऐसा नहीं किया तो हमें उन्हें वह सीटें देनी पड़ेंगी जिसके वह लायक नहीं हैं।

संविधान सभा में सबसे विवादित विषय रहा भाषा जिसे लेकर अक्सर सदस्य ज्यादा ही भावुक हो जाते थे। ऐसे ही एक सदस्य आरवी धुलेकर ने हिंदी में अपनी बात कही जिस पर अध्यक्ष ने उन्हें टोकते हुए कहा कि सभा में मौजूद कई लोगों को हिंदी नहीं आती है और इसलिए वह उनकी बात समझ नहीं पा रहे हैं। इस पर धुलेकर ने तिलमिलाते हुए कहा कि 'जिन्हें हिंदी नहीं आती, उन्हें इस देश में रहने का हक नहीं है।' जब काफी समझाने के बाद भी धुलेकर नहीं माने तो नेहरू ने आगे बढ़कर उन्हें अपनी सीट पर लौटने को कहा और सदन की गरिमा की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि 'ये कोई आपके झांसी की आमसभा नहीं है जहां आप 'भाइयो और बहनो' कहकर ऊंची आवाज़ में भाषण देना शुरू कर दें।'

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मिलन की आस;एक सफर सुहाना

22:35:00 Manjar 0 Comments

सुबह-सुबह का ख्वाब आधे सोये आधे जागे में देखते है.नींद अंगड़ाई ले रही होती आंखे ख्वाब बुन रही होती । कुछ हकीकत होती है कुछ अफसाना...
अगर ये मिलन के आस का स्वपन हो तो भला कौन जागना चाहता है ।
क्योकि ये तो तुम्हारे ख्वाब थे..जो मैने जीया था तुम्हारे साथ
वो 16 घंटे की सफर ..हर रात ख्वाबो में खुद को पीरो देता हूं I सिर्फ 16 घंटे की यादे और हाय....! आज 16 दिन हो गए फिर भी तुमसे पिछा नही छुट रही । तुमसे ये मुलाकात मेरा वहम भी हो सकता था,लेकिन मेरा दिल गवाही दे रहा था कि ये तुम हो जिसके कारण मै जीना चाहता हूं ।
अब मै कहना चाहता हू मुझे ईशक है तुमसे ,प्यार की पहचान सिर्फ बाते नही होती,रूहानी भी होती है ज्जबाती भी ।
तुमने बीना कहे सबकुछ कह दिया मैने बीना सुने सबकुछ सुन लिया,बीना जाने सबकुछ जान लिया । तुम पास आना चाहती थी ओर करीब ईतना करीब की तुम जब अपनी आत्मा से पुछो तो मेरी आत्मा वह आवाज सुन ले ।
तुम डर रही थी खुद से या दुनिया से ,ईक लम्हा भी ना दे पायी उन वक्तो में I वो कौन थी अरे वो...उम्मममम....हॉ-हॉ...लाल रंग का कोई ड्रेस था ।
देखो ना सारी यादे धुंघली हो रही है तुम्हे छोड़कर,उन बेचैन वक्तो में वही तो मेरे साथ थी(तुम्हारी बहन) जीसके वजह से मै खुद को सम्भाल पा रहा था
एक बिखरा ईनसान हूं मैं,मुझे आके समेट लो ।
रंगो की पहचान नही है,रंगो की पहचान सिखा दो ।
गुमशुम हूं मै कुछ बात करना सिखा दो...
समय जा रही थी,स्टेशन हमारी ओर तेजी से आ रहा था ।
हमारा बिछड़ने का गम अब बड़ रहा था..अफसोस अब कुछ ही पल रह गए थे ।
सीट के दायी तरफ जब तुम लेट के बैठी जब आँखे तुम्हारी एकटक से निचे देख रही थी मुझे अंदाजा हो गया था हम दोनो ओर करीब आ गए है..ईतना करीब जितना बिछड़ने का गम मुझे टुटकर बिखेर देगा ।
अब तो शायद एक-आध घंटे के और सफर रह गये थे । दिल्ली से यह सफर गोरखपुर आते-आते रिशते में तब्दील हो गई थी ये वो रिशता जो जन्म-जन्मांतर का है जो साथ जीने और मरने का है ।
हम्ममम..बात तो तुम्हारी बहन से हो रही थी लेकीन सिर्फ मेरे और तुम्हारे बारे में ।
ट्रेन गोरखपुर स्टेशन पर धीरे-घीरे प्लेटफार्म पर लग रही थी,सेनोरीटा मेरी बात सुनो हम दुर जा रहे थे बहुत पास आने के लिए..अब तकदीर ने यह फैसला कर लिया है हम दोनो का मिलन की । अधुरे ख्वाब को पुरा करने का..
....तुम्हारा चेहरा बार बार मेरी ऑखो के सामने आ जाती है Iतुमसे मैने सच्चा प्यार किया है । कहते है सच्चे प्यार की कोई अंत नही होती । लेकिन मैं ईसका अंत होते देखना चाहता हू । मेरी कहानी का अंत अलग है और वह अंत मै खुद लिखुंगा ।

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फ़िल्म:माय नेम इज़ खान के कुछ संवाद

22:31:00 Manjar 0 Comments


माइ नेम इज़ ख़ान वर्ष 2010 में बनी एक हिन्दी फ़िल्म है। फिल्म के मुख्य कलाकार शाहरुख खान और काजोल देवगन हैं। इसे करन जोहर ने निर्देशित किया है।

माँ की मौत के बाद ज़ाकिर रिजवान को अपने साथ रहने के लिए सेन फ्रांसिस्को बुला लेता है | जब ज़ाकिर की पत्नी हसीना (सोनिया जेहन) रिजवान का जाँच करती है तो उसे रिजवान की बीमारी (Asperger syndrome) के बारे में पता चलता है | रिजवान ज़ाकिर के लिए काम करना शुरू कर देता है उसी समय उसकी मुलाकात एक हिंदू महिला मंदिरा (काजोल) और उसके बेटे समीर (युवान मक्कड़) से होती है | मंदिरा बाल काटने का काम करती है | रिजवान और मंदिरा शादी कर लेते हैं और बेन्विले नगर में रहने लगते हैं |मंदिरा और समीर दोनों ही अपने नाम के पीछे खान लगा लेते हैं | वे गेरिक परिवार के पड़ोस में ही रहते हैं उनका छोटा बेटा रीस समीर का अच्छा दोस्त है |
रिजवान का अच्छा समय तब बुरा हो जाता है जब 11 सितम्बर को न्यू योर्क में हमला होता है | हमले के बाद न्यू योर्क के लोग मुस्लमान विरोधी हो जाते हैं | इसके बाद एक दोपहर समीर की कुछ अमेरिकन लड़कों से स्कूल के मैदान में लड़ाई हो जाती है रीस लड़ाई को रोकने की कोशिश करता है पर समीर तब तक दम तोड़ देता है है | मंदिरा इस सब से टूट जाती है और रिजवान के मुस्लमान होने के कारण उसे दोष देती है ।

पेश हैं फिल्म के कुछ संवाद-
" ईंसपेकटर गेरसीया ने हमें बताया कि हमारे सैम की मौत शायद एक मजहबी हमला था..
उसके जिस्म पे लगी चोटे ईस बात की गवाही थी की..
वह मुसलमान था इसलिए मारा गया..
लेकिन ये बात मेरी समझ में नही आई..क्योंकि मुसलमान होना तो बुरा नही है मंदिरा "
" मेरी अम्मी कहा करती थी कि दुनिया में सिर्फ दो किस्म के ईंसान रहते है
एक अच्छा ईंसान दुसरा बुरा ईंसान
मैं अच्छा ईंसान हुं..मैं अच्छे काम करता हूं "
"बस कुछ बाते है जो मुझे समझ में नही आती..
जैसे किसी के घर जाउं तो लोग कहते है
आऔ रिज़वान,ईसे अपना ही घर समझो..
कैसे समझु..जब मेरा घर नही है तो "

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