राष्ट्रवाद पर बहस- संघ नजरिया
राकेश सिन्हा,आर एस एस विचारक
राष्ट्रवाद की परिभाषा और राष्ट्रवाद का वर्तमान संदर्भ दोनों को समझना पड़ेगा. वर्तमान संदर्भ फिर से उस बहस को पुनर्जीवित कर रहा है जिस बहस को 1920 में रोक दिया गया था. मैं 1920 इसलिए कह रहा हूं कि बाल गंगाधर तिलक का निधन 1920 में हुआ था. औपनिवेशिक काल में एक ऐसा युग आया जब महर्षि अरविंद, बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, राजनारायण बसु ऐसे तमाम लोग जो अलग-अलग भाषा और प्रांतों के लोग थे, उन्होंने राष्ट्रवाद की बहस को भारतीय संदर्भ में शुरू करने की कोशिश की. इस बहस ने भारत के राष्ट्रवाद को एक मजबूत धरातल पर प्रस्तुत किया था. राष्ट्रवाद में जो एक नकारात्मकता थी, उसमें एक सकारात्मकता जोड़ने की कोशिश की थी. उनके पूरे मूल्यांकन में, उनकी बहस में प्रगतिशील भारतीय संस्कृति के तत्व थे. उन्होंने कभी रूढ़िवादी तत्वों को इसमें नहीं रखा, प्रगतिशील तत्वों को रखा ताकि राष्ट्रवाद को ताकत मिले. लेकिन हुआ यह कि इन लोगों के बाद राष्ट्रवाद की पूरी बहस यूरोप द्वारा स्थापित मापदंडों के आधार पर शुरू हो गई. यूरोप ने जो राष्ट्रवाद की परिभाषा, जो मापदंड दिया उसके आधार पर शुरू हो गई. वही बहस आज तक चलती रही है. इस बहस में जिन लोगों ने भी हस्तक्षेप करने का काम किया, या तो उनमें मौलिकता नहीं थी या मौलिकता थी तो वह बहुत विवेचनापूर्ण नहीं थी. जिससे तथ्यात्मक बहस पुनर्जीवित नहीं हो पाई. आज जेएनयू की घटना इस बहस को पुनर्जीवित करने का एक निमित्त बन गई. मैं एक संदर्भ तो यह मानता हूं.
मैंने यूरोप की बात इसलिए की, क्योंकि यूरोप और भारत की राष्ट्रवाद की परिभाषा में एक बुनियादी अंतर है. ऐसा नहीं है जो मैं कह रहा हूं यूरोप में सब लोग वही मानते हैं पर मोटे तौर पर, यूरोप के राष्ट्रवाद को पढ़ने से समझ में आता है कि राष्ट्रवाद ने राष्ट्र पैदा किया. साधारणतया देखें तो वहां राष्ट्रवाद पर विमर्श तब शुरू हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रों का टूटना और जुड़ना शुरू हुआ. भाषा के आधार पर राष्ट्र बनते गए, जातीयता के आधार पर राष्ट्र बनते गए. इसके कारण प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहां राष्ट्रवाद पर विमर्श बहुत तेज हो गया. राष्ट्रवाद पर बहुत-सी किताबें लिखी गईं.
भारतीय राष्ट्रवाद की प्रकृति अलग है. भारत में हमारा मानना है कि राष्ट्र ने राष्ट्रवाद को पैदा किया. वे मानते हैं कि राष्ट्रवाद आधुनिकता का प्रतीक है, आधुनिकता का उत्पाद है और हम मानते हैं कि राष्ट्रवाद एक सनातन सत्य है. इसका आधुनिकता से और पुरातनता से कोई लेना-देना नहीं. इसका मैं एक प्रमाण देता हूं. राधा कुमुद मुखर्जी ने आजादी के बाद जब इस बहस को पुनर्जीवित करने की कोशिश भारतीय विद्या भवन में शुरू की थी तो उन्होंने एक पुस्तिका लिखी और उस पुस्तिका में वेदों में 68 श्लोकों का एक संग्रह प्रस्तुत किया जिसमें राष्ट्र और राष्ट्रवाद यानी मातृभूमि का विशेष उल्लेख है. इस तरह भारत की कल्पना यूरोप की कल्पना से भिन्न है.
कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जाते हैं. मैं यह मानता हूं कि जो लोग आरएसएस के खिलाफ जहर उगलते हैं, अनर्गल बातें करते रहते हैं, क्या वह अभिव्यक्ति पर हमला नहीं है?
दूसरी बात, महर्षि वाल्मिकी ने जो लिखा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, इससे एक सकारात्मक राष्ट्रवाद का संकेत मिलता है कि हम अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग से भी ज्यादा बहुमूल्य और महत्वपूर्ण मानते हैं. तो अब मैं कहता हूं कि भारतीय परिवेश में राष्ट्रवाद का तात्पर्य होता है कि राष्ट्र के प्रति सरोकार रखना. राष्ट्र के प्रति सरोकार रखने में सिर्फ भूमि के लिए सरोकार नहीं है बल्कि भूमि, भूमिपुत्र यानी यहां के लोग, यहां की विरासत, यहां का इतिहास, हमारी संस्कृति इन सबके प्रति जब आप सरोकार रखते हैं तो वह राष्ट्रवाद कहलाता है. उस सरोकार का तात्पर्य यह नहीं है कि आप क्रिटिकल नहीं हैं, आप यहां की भूमि, यहां के भूमिपुत्र, यहां की संस्कृति या सरोकार के प्रति क्रिटिकल हों. हमारे पूरे विमर्श में आलोचनात्मकता को बहुत महत्व दिया गया है. लेकिन राष्ट्रवाद में जो विमर्श हो, उसमें सृजनशीलता हो. उसका मैं एक उदाहरण देता हूं. राष्ट्रवाद के महत्व में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था. बाकी लोगों ने भी राष्ट्रवाद पर बातें कहीं पर रवींद्रनाथ टैगोर जी का हस्तक्षेप सैद्धांतिक हस्तक्षेप है. यूरोपियन राष्ट्रवाद के समांतर उन्होंने उस विवेचन को देखने की कोशिश की.
उस वक्त राष्ट्रवाद शब्द इसलिए नकारात्मक बन गया था क्योंकि यूरोप ने राष्ट्रवाद का ही इस्तेमाल करके द्वितीय विश्वयुद्ध में मानवता को धकेल दिया था. राष्ट्रवाद का जो यूरोपीय दृष्टिकोण है उसने ही फासीवाद को पैदा किया, नाजीवाद को पैदा किया, जापानी सैन्यवाद को पैदा किया. इस कारण राष्ट्रवाद के प्रति एक भ्रांति बनी.
टैगोर ने उस संदर्भ में राष्ट्रवाद की आलोचना करते हुए एक वैकल्पिक स्वरूप दिया. उन्होंने राष्ट्रवाद का तात्पर्य बताया और उन्होंने उस शब्द को छोड़कर एक नई शब्दावली देने की कोशिश की. उन्होंने राष्ट्रवाद के मूल तत्व जो भारत का मूल तत्व है, जो तिलक में दिखाई दिया, जो विपिन चंद्र पाल में दिखाई पड़ा, बंकिमचंद्र में दिखाई पड़ा, उन तत्वों को ही उभारने की कोशिश की इसलिए मैं उनकी आलोचनाओं को उस पृष्ठभूमि में जो यूरोपीय राष्ट्रवाद की विसंगतियां थीं, उसकी आलोचना मानता हूं. उसे भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना नहीं मानता. शब्द भले ही दोनों जगह एकसमान थे पर उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना नहीं की. भारत में राष्ट्र की जो एक सांस्कृतिक विरासत है, यह सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक बहुलतावाद विश्व में कहीं और नहीं मिलता है. आध्यात्मिक लोकतंत्र जो भारत के समाज में मौजूद है वह राष्ट्रवाद को वैश्विक परिवेश में ले जाता है. इसी कारण से हिंदू राजा चिरामन ने केरल में मंदिर को मस्जिद में बदल दिया ताकि अरब से आने वाले व्यापारियों को पूजा का स्थान मिल सके और यह दुनिया की दूसरी सबसे पुरानी मस्जिद है. जिसकी चर्चा भारत की टेक्स्टबुक में नहीं होती है. जैसे दारा शिकोह की बहुत चर्चा नहीं होती है, जो तत्व भारत में धर्मों के बीच संवाद, धर्मों के बीच सत्संग की बात करते हैं उन तत्वों को मार्क्सवादी इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने बाहर रखा है. इसके दो उदाहरण हैं, चिरामन और दाराशिकोह.
जहां तक भारत में फासीवाद की आहट का सवाल है तो फासीवाद कोई अनऑर्गेनाइज्ड विचार नहीं है. फासीवाद का मतलब होता है कि राज्य के प्रश्रय में राज्य की सहमति से संगठित पार्टी द्वारा किसी अभिव्यक्ति के विचार पर हमला करना और उसे हिंसा से शांत करना. जो आपने एक काॅन्स्टेबल के साथ घटी घटना का जिक्र किया उसकी निंदा पूरे भारतीय समाज ने की है. उससे पहले भी वकीलों ने पत्रकारों पर हमला किया और पूरे भारतीय समाज ने उसकी आलोचना की. ऐसी घटनाएं यदा-कदा इस देश में घटित होती हैं. ग्वालियर में विवेक कुमार की सभा में हमले को लेकर एबीवीपी पर आरोप लगे. उसमें एबीवीपी का हाथ नहीं था. एबीवीपी के कोई लोग नहीं थे और यह जांच का विषय है कि कभी-कभी किसी संस्था को बदनाम करने के लिए ऐसी हरकतें की जाती हैं. जैसे जो भगवा ध्वज कांस्टेबल को दिया उसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है. सभी लोगों ने उसकी आलोचना की. लेकिन अगर कोई ताकत इसी तरह का काम करना चाहेगी तो वह इसकी जिम्मेदारी लेगी. कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं. मैं यह मानता हूं कि जो लोग आरएसएस के खिलाफ जहर उगलते हैं, अनर्गल बातें करते हैं, क्या वह अभिव्यक्ति पर हमला नहीं है?
यदि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफजल गुरु की फांसी की सजा पर उसे ज्यूडिशियल किलिंग कहते हुए सिर्फ बहस होती तो किसी का ध्यान नहीं जाता. कोई विरोध करना भी चाहता तो विरोध नहीं कर पाता. यदि वहां पर ‘हम लड़कर लेंगे कश्मीर, छीनकर लेंगे कश्मीर’ के नारे लगाए जाते हैं तो यह कौन छीनने वाले लोग हैं, कौन लड़ने वाले लोग हैं? कश्मीर तो हमारे पास है, यदि वहां पीओके को लेकर नारा लगता कि हम लड़कर लेंगे पीओके, छीनकर लेंगे पीओके तो समझ आता कि किस से लड़ने की बात हो रही है. वहां पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे वह राष्ट्रद्रोह वास्तव में है कि नहीं यह तो न्यायालय ही बताएगा. लेकिन वे नारे एक शब्द में कहें तो एंटीनेशनल हैं. किसी भी संप्रभु राष्ट्र में यदि संसद के सामने कोई कहता है कि पाकिस्तान जिंदाबाद तो यह नैतिक अधिकार है कि उसकी जांच हो. यह सब जेएनयू में खुल्लमखुल्ला हो रहा है, यह तो अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रवाद की बहस में ले जा रहे हैं. अब यह मामला न्यायालय में है और न्यायालय ही इसे दूध का दूध और पानी का पानी करेगा. अब अगर इसमें सरकार की गलती होगी तो हम सरकार की आलोचना करेंगे, अगर गलती नहीं होगी तो सराहना करेंगे. कोई भी बुद्धिजीवी सरकार का बंधुआ मजदूर नहीं होता और न होना चाहिए. पर सरकार पर बुद्धिजीवियों का निर्णय दे देना कहां तक सही है? जेएनयू के प्रोफेसर यह बताएं कि दस दिनों तक ये नारे लगाने वाले छात्र गायब थे, अचानक विश्वविद्यालय में आ गए और उनकी सभा में जेएनयू के शिक्षक सम्मिलित थे. कल तक मैं मानता था कि कन्हैया के लिए वे बोलते थे. अब उमर खालिद और उनके साथियों के साथ वे खड़े हो गए और पुलिस और राज्य को चुनौती देते रहे कि पुलिस को यहां भेजकर गिरफ्तार करो. जेएनयू क्या एक अलग टापू है क्या? क्या राष्ट्र के भीतर एक राष्ट्र है क्या?
दूसरी बात मैं और कहना चाहता हूं, गलतफहमी थोड़ी दूर करनी चाहिए. मैं आधिकारिक रूप से कहना चाहता हूं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय का भी शिक्षा के क्षेत्र में तनिक भी कम योगदान नहीं है. जितनी सुविधाएं जेएनयू को दी जा रही हैं यदि उनकी सुविधाएं इनको भी दी जाएं तो संभवत इनका योगदान और भी अधिक हो सकता है. छात्रों को जो सब्सिडी जेएनयू में मिल रही है वह बीएचयू में, अलीगढ़ में, जामिया में, उस्मानिया में नहीं मिल पा रही है. यह दावा करके दूसरे विश्वविद्यालयों को नीचा दिखाने का काम नहीं करना चाहिए. जेएनयू हमारे लिए गर्व का कारण है. लेकिन वह लालगढ़ के रूप में है. वाम मार्ग की प्रयोगशाला है. मैं कहता हूं माओवाद पर बहस हो लेकिन एक चीज बता दीजिए जब 76 सीआरपीएफ के जवान मारे जाते हैं, उसे सेलिब्रेट करना कम से कम मानवीय दृष्टि से तो अनुचित है. जेएनयू ने जिन विकृतियों को जन्म दिया है, उन विकृतियों से लड़ने, उनसे असहमति जताने को वे अभिव्यक्ति के साथ जोड़ देते हैं, यह नाइंसाफी है.
राम जन्मभूमि के समय में लालकृष्ण अाडवानी ने जो रथ यात्रा निकाली उसके प्रति सहमति-असहमति पर अलग-अलग लोग अलग-अलग धारणाएं रखते हैं, अलग-अलग व्याख्याएं होती हैं. एक बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि 1989 से भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक नई और खुली बहस शुरू हुई. उसी तरह राष्ट्रवाद पर बहस कई दशकों से रुकी थी, राष्ट्रवाद पर जो बहस होती थी वो लगता था जैसे यूरोप की पाइपलाइन से हम बहस करते थे, उनके द्वारा प्रमाणित मापदंड के आधार पर कर रहे थे. मुझे लगता है राष्ट्रवाद पर बहस में कई विकृतियां थीं, जब बहस होती है तो विकृतियों के साथ होती है. कोई भी चीज जब नई शुरू होती है तो उसमें विकृतियां आती हैं, लेकिन यह बहस अब लंबे समय तक चलेगी. राष्ट्रवाद की जो हमारी अपनी धारणा है, भारतीय परिवेश में राष्ट्रवाद की क्या भूमिका है, यह बहस जेएनयू के बहाने शुरू हुई है. इस बहस को मैं तिलक और बिपिनचंद्र पाल के काल से जोड़ता हूं.
संघ के प्रति मुस्लिम विरोधी होने की एक धारणा बना दी गई है. यह धारणा 1925 से 1945 तक नहीं थी. इसका कारण मैं बताता हूं कि जब पहली बार मध्य प्रांत की लेजिस्लेटिव कांउसिल में 7-8 मार्च, 1934 को दो दिनों तक संघ पर बहस हुई है. भारत के इतिहास में पहली बार हुआ कि संघ पर दो दिनों तक लेजिस्लेटिव काउंसिल में बहस हुई. उस बहस में एक एमएस रहमान जो मध्यप्रांत के सबसे लोकप्रिय नेता थे, उन्होंने संघ का समर्थन किया और सरकार से पूछा कि क्या संघ के खिलाफ एक भी शिकायत आई है? तो सरकार ने कहा नहीं. 6 मई, 1945 को पहली बार ‘डान’ जो मुस्लिम लीग का अखबार है, उसने संघ पर संपादकीय लिखा और मांग की कि संघ पर प्रतिबंध लगाया जाए. लेकिन वह यह भी जिक्र नहीं कर पाया कि संघ के संस्थापक कौन हैं? यह मांग करते हुए उसने गांधी, नेहरू से अपील की कि वे सहयोग दें. 13 मई, 1945 को उसने दूसरा संपादकीय लिखकर गांधी-नेहरू की आलोचना की कि वे उसकी मांग का समर्थन नहीं कर रहे. 1945 के बाद दूषित प्रचार कर संघ की छवि मुसलमान विरोधी बना दी गई, लेकिन आप हाल के वर्षों में देखेंगे कि सभी पैमाने पर तो नहीं कहूंगा लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग संघ के साथ संवाद कर रहा है और संघ भी संवाद कर रहा है. जो परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व है वह असहज महसूस नहीं कर रहा है. जहां तक दलितों का सवाल है, दलितों का वह वर्ग जो ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में है, जो लिबरेशन थ्योरी के प्रभाव में है, उनके एनजीओ में है, वह संघ का घोर विरोधी है लेकिन दलित बुद्धिजीवी वह चाहे जेएनयू में हो या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हो, वह संघ को क्रिटिकली देखते हैं, वे संघ की धारणा के विरोध में नहीं हैं. आखिर में इसका मैं एक और प्रमाण दे दूं कि गांधी जी ने संघ के बारे में जो भी चाहे अच्छा या बुरा बोला, जिस राष्ट्रीय आंदोलन में लगभग वर्ष 1925 से 1930 के बाद जितने नेता थे सबने संघ पर टिप्पणी की. अपने पूरे जीवन काल में बाबा साहेब आंबेडकर ने उस संगठन के बारे में, जो महाराष्ट्र में ही सबसे ज्यादा प्रबल था और जिसके बारे में बार-बार यह आरोप लगता था कि ब्राह्मणों का वर्चस्व है, उस संघटन के बारे में एक भी टीका-टिप्पणी नहीं की. एक भी शब्द संघ के खिलाफ उन्होंने नहीं कहा. संघ लगातार उनसे संवाद करता रहा, वे संघ के स्वयंसेवक तो नहीं बने. संघ के प्रति उनकी असहमति तो थी, पर संघ की नीयत पर उन्हें कभी शक नहीं था कि दलितों के प्रति संघ की नीयत साफ है. और आज बड़े पैमाने पर संघ जमीनी स्तर पर दलितों के बीच काम कर रहा है. इसी का परिणाम है कि भारतीय जनता पार्टी में दलित सांसदों की संख्या, ट्राइबल सांसदों की संख्या सबसे अधिक है.
This is a slap for the antinational.
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