नेपाल का हाल और भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंध
बॉर्डर पर नेपाल जितना अशांत दिख रहा था,शहर उतना ही सामान्य ढंग से व्यवहार कर रहा था। व्यपारियों से जब मैंने पूछा की आप भी मधेशी हो आंदोलन का साथ क्यों नही दे रहें? वे बताने लगे आखिर कब तक साथ देते रहें 4 महीनें से ज्यादा वक़्त हो रहा और जिनमे लगभग 2-3 महीना दुकाने बंद-खुलती रही। इन 4 महीना में आमदनी नगण्य रहा ऊपर से दुकान का किराया स्कूल का फी घर का राशन इन सब के लिये पैसे कहां से लाऊँ। नेताओं ने बोला था की पैसा माफ़ करा देंगे लेकिन कुछ हुआ नही।ऊपर से स्कूल,मकान मालिक और दुकान मालिक के यहां से नोटिस आ गए। जो पैसे बैंक में बचें थे वह भी इनलोगो को दे दिया। अब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के लिए काम करने के सिवा और दूसरा कोई रास्ता नही। नेपाल सरकार बहरी हैं,सुनना होता तो शुरू में ही सुन लेती। जो राग मधेश जनता अलाप रही हैं वैसा ही राग पहाड़ी जनता भी अलाप रही हैं।
तब मुझे लगा की क्यों न इस साल भारत की विदेश नीति
दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के रिश्तों के संदर्भ में समीक्षा की जाये।विश्व के राजनीतिक मंच पर भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाए, इसके लिए यह ज़रूरी है कि उसे पड़ोसी देशों को भरोसे में लेना ही पड़ेगा।
दोनों देशों के बीच संबंधों का असर साल 1983 में श्रीलंका में सिंहला समुदाय और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच हुए जातीय संघर्ष का रहा है। प्रधानमंत्री का श्री लंका दौरा जिनमें
भारत और श्रीलंका की सरकारों ने चार समझौतों पर दस्तखत किए हैं। इनमें अधिकारियों के दौरों पर वीज़ा नियमों में छूट, कस्टम मामलों में सहयोग, दोनों देशों के युवाओं के बीच बेहतर संवाद और विश्वविद्यालय में एक ऑडिटोरियम बनाने समेत शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग के मुद्दे शामिल हैं। श्री लंका में रेलवे सुधार के लिए 31.8 करोड़ डॉलर मदद देने की घोसना की।
दोनों देशों का संबंध तमिल अल्पसंख्यकों के साथ मेल मिलाप, मछुआरों की रिहाई और हिंद महासागर में सुरक्षा सहयोग जैसी बातों पर हमेशा से निर्भर रहा है।
साल 2009 में तमिल टाइगर्स की हार के बावजूद राजपक्षे की सरकार तमिल अल्पसंख्यकों से मेलजोल की प्रक्रिया शुरू करने में नाकाम रही।
भारत सरकार कहती रही है कि श्रीलंका के संविधान के 13वें संशोधन को लागू किया जाए। ये संशोधन राजीव-जयवर्धने समझौते पर आधारित हैं और इसमें प्रांतों को और अधिकार दिए जाने की बात है।
सड़क मार्ग,रेल मार्ग और समुद्री मार्ग पर बात बेहद सफल रही।
ढाका होते हुए कोलकाता-अगरतला के अलावा दूसरी बस सेवा शिलॉन्ग होते हुए ढाका-गुवाहाटी के लिए है।
अखुरा-अगरतला रेल लिंक पर भी बातचीत हुई और जो बांग्लादेश के ज़रिए कोलकाता को पूर्वोत्तर से जोड़ेगा।
इन सारे विकल्प के मिलने से दोनो देशो के बीच व्यपार, संबंध और भी मजबूत होंगे।
बस एक तीस्ता जल को ले कर बात नही बन पाई।
रूस की ऊफा बैठक से शुरू हुई लाहौर आते-आते रिश्तों में गर्माहट ले आई। पहले सुषमा स्वराज फिर प्रधानमंत्री मोदी इन संबंधो को सुधारने में इन लोगो का बड़ा असर रहा।
दोनों नेता जब चाहें एक दूसरे के यहां आने जाने लगें। तो फिर दोस्ती के अलावा और कुछ रह नही जाता। जो कल बीजेपी समर्थक पाकिस्तान के नाम से चुनाव में हल्ला कर रहें थे वे अभी भौचक हैं अब वे पाकिस्तान को अपना मित्र राष्ट्र बता रहें हैं। यूँ भी तारीख देखी जाएं तो भारत- पाकिस्तान पहला युद्ध 1965 में हुआ था। तभी 1962 की लड़ाई में चीन से हारने के बाद भारत अभी अस्थिर था। चीन ने चाल चलते हुए पाकिस्तान को बताया की यही सही समय हैं भारत को हराने का जिससे की तुम्हें तुम्हारा कश्मीर मिल जाएं।
ख़ैर,
पाकिस्तान से भारत के रिश्तों की मुश्किल से पूरी दुनिया वाकिफ है। किसी भी तरह की बातचीत से पहले आतंकवाद और कश्मीर का मसला आते ही बात बीच में ही अटक जाता हैं।
उम्मीद करते हैं आने वाले साल पाकिस्तान के साथ और भी बेहतर होगा सियाचिन, सिंधु जल,कश्मीर और आतंकवाद जैसे मसलो का हल आने वाले साल में बातचीत के द्वारा निकाला जाय।
एक और बात जोड़ ले की कुछ लोग कह रहें की नेपाल से हमारा रिश्ता खराब हो गया। हमारे खिलाफ नेपाल संयुक्त राष्ट्र संघ में चला गया। तो मैं उन्हें बता दु की भारत नेपाल की जनता के हक के लिए 51% जनता का साथ दे रहा तो उसमें क्या बुराई। जब नेपाल से हमारा संबंध शुरू से ही रोटी-बेटी का रहा हैं तो हम अपनों के पक्ष में क्यों न बोले। मधेश की जनता की जायज मांग हैं संविधान में बराबरी और आबादी के अनुरूप नेतृत्व। नागरिकता का दोहरा मापदंड मधेशी जनता के साथ क्यों? भारत की भूमिका नेपाल में महत्वपूर्ण हैं। अगर के पी ओलि इस बात को नही समझ रहें तो वे भूल ही नही भारी गलती भी कर रहें हैं। भारत नेपाल से बस आशवस्त होना चाहता हैं कि नेपाल अपनी जनता के साथ बराबरी का व्यवहार करें और यह जरूरी भी हैं।
कुल मिला के यह साल भारत के लिए पड़ोसी विदेश नीति लगभग सफल ही रहा।
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