राष्ट्रवाद का ओवरडोज
कल खबर आई कि अमेरिका ने भारत में 'बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा' पर चिंता जाहिर की। अमेरिका ने भारत सरकार से कहा है कि नागरिकों की सुरक्षा और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए वह 'हर संभव प्रयास करे।' असहिष्णुता का चर्चा भारत में नई सरकार के आने से ही प्रमुखता से छाई रही है।
अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा, ‘‘सभी तरह की असहिष्णुता से मुकाबला करने और धार्मिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश में हम भारत सरकार और नागरिकों के साथ हैं।’’
भारत में नागरिक सुरक्षा का मामला दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा है। अखलाक मामला के बाद मीडिया ने जब इस तरह के मामलों को कवर करना शुरू किया तो अख़बार के पन्ने ज़ुल्मो से भर गए। अल्पसंख्यक के बाद इसके शिकार दलित भी हो रहें है।
इस हफ्ते की शुरुआत में मध्य प्रदेश के मंदसौर में रेलवे स्टेशन पर गाय के स्वयंभू संरक्षकों ने गोमांस होने की शक में दो महिलाओं की पुलिस की मौजूदगी में पिटाई की थी। लोगों को शक था कि उनके पास गोमांस है। हालांकि उनके पास जो मांस था, वह भैंस का था। पुलिस ने दोनों महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था।
असहिष्णुता के चर्चा से तो पूरा इंटरनेट का कोना भरा पड़ा। तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया का काम आग में पेट्रोल डालने का ही रहता है। वह लगातार जनमानस में नफरत के घोल इसतरह घोलती है कि लगातार उनकी गाड़ी चलती रहें। आप रोज देखिए ये तथाकथित मीडिया कैसे हरेक छोटे मामलों को राष्ट्रवाद से जोड़ देती है। सांप्रदायिकता अब मीडिया राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक महत्वाकांक्षी के लिए दर्शकों को परोस रही है। यह बहुत बड़ी बात है,इतना कि जब मीडिया के इस चाल को समझ लीजियेगा तबतक आप दलदल में फस चुके होंगे। 30/07/2016 को IIMC के कार्यक्रम में ज़ी न्यूज़ वाले मनोहर पर्रिकर के साथ कश्मीर समस्या में बतौर वक्ता क्या कर रहें थे ? सेना सरकार की है, सरकार ने पैलेट गन के इस्तेमाल को गलत माना। अगले दिन सेना ने भी खेद प्रकट किया। सोशल मीडिया में वो लोग पाला क्यों बदल दिए जो शुरू से पैलेट गन का वकालत कर रहें थे। सेना सरकार की है और सेना देश की है इसमें बुनियादी फर्क है इसको समझिये।
अर्नब गोस्वामी सरकार से कहते है कि कश्मीर पर बहुआयामी और बारीकी से की गई पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की ‘ख़बर’ ली जाए।
तटस्थ रहना और सच कहने में फर्क है। सरकार के साथ खड़े रहने मे,चाटुकारिता करने में और सचमुच का पत्रकारिता करने में बहुत फर्क है। पत्रकारिता रिपोर्टिंग के आधार पर होनी चाहिए न की पूर्वाग्रह भरे दिमाग से।
मीडिया राष्ट्रवाद को लेकर उग्र हो रहा है। वह हर दिन सेना और सीमा के नाम पर राष्ट्रवाद उभारता है। और जब ये ठंडा पड़ता है तब गो रक्षा आ जाता है।
अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी का साफ इशारा था कि उन पत्रकारों को बोलने से रोका जाय जो सरकार से सवाल कर रहें हैं। जो सभी पक्ष को सामने ला रहें हैं। पत्रकारों की इस लड़ाई में सरकार के लिए स्वर्णिम पल है कि अब सरकार से बुनियादी सवाल नही पूछा जा रहा है। नौकरी,बेरोजगारी,भुखमरी,सड़क,नाली,बिजली सारा का सारा आधारभूत संरचना ध्वस्त हो गया है। कल फेसबुक पर SCRAE का ग्रुप मिला वे लोग बता रहें थे कि तीन साल इस परीक्षा की तैयारी करते रहें और अचानक से सरकार इस परीक्षा को हटा दी जबकि इसको हटाने के लिए सरकार को ठोस वजह देनी चाहिए थी। SSC में नई नौकरियों का अकाल पड़ गया है। पिछली सरकार के मुकाबले इस सरकार ने करीब 2 लाख कम नौकरियां पैदा की। क्या यह आंकड़े भयावह मंजर पैदा नही करते। क्यों सब इन बातों पर चुप रहना पसंद कर रहें हैं ? यह नही लगता कि जो राजनीतिक पोषित राष्ट्रवाद पैदा किया गया है उसपर हमारी चुप्पी मूर्खता है और कुछ नही। यह राष्ट्रवाद हमारी समस्या तो सुलझा नही सकता लेकिन समस्या जरूर खड़ा कर दिया है। एकतरह से संप्रभुता पर हमला।
सरकारी नौकरियां अब कारपोरेट की जागीर बनने जा रही हैं। आपको नही लगता कि हमें अपनी सरकार से पूछनी चाहिए कि वह नागरिक सुविधा के लिया क्या कर रही हैं ? हमारा मिलेनियम सिटी का जब यह हाल है तब सोंचिये कागज पर उतारे गए स्मार्ट सिटी के लोग अपने शहर को कैसे देख रहें हैं?
मीडिया सवाल पूछने के लिए बने थे। निष्पक्ष रिपोर्टिंग दिखाने के लिए। अफसोस की वह सरकार की प्रचार टीम का हिस्सा बन कर रह गए।
और हर दिन कभी गाय तो कभी सेना के नाम पर हर शाम को स्टूडियों में बैठ कर अदालत लगाते रहतें है।
उनसे कहिये कि वे हमारी सवाल उठाये..नौकरी..नागरिक सुविधा..सब के सब
तटस्थ न बने सच दिखाए।
अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा, ‘‘सभी तरह की असहिष्णुता से मुकाबला करने और धार्मिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश में हम भारत सरकार और नागरिकों के साथ हैं।’’
भारत में नागरिक सुरक्षा का मामला दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा है। अखलाक मामला के बाद मीडिया ने जब इस तरह के मामलों को कवर करना शुरू किया तो अख़बार के पन्ने ज़ुल्मो से भर गए। अल्पसंख्यक के बाद इसके शिकार दलित भी हो रहें है।
इस हफ्ते की शुरुआत में मध्य प्रदेश के मंदसौर में रेलवे स्टेशन पर गाय के स्वयंभू संरक्षकों ने गोमांस होने की शक में दो महिलाओं की पुलिस की मौजूदगी में पिटाई की थी। लोगों को शक था कि उनके पास गोमांस है। हालांकि उनके पास जो मांस था, वह भैंस का था। पुलिस ने दोनों महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था।
असहिष्णुता के चर्चा से तो पूरा इंटरनेट का कोना भरा पड़ा। तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया का काम आग में पेट्रोल डालने का ही रहता है। वह लगातार जनमानस में नफरत के घोल इसतरह घोलती है कि लगातार उनकी गाड़ी चलती रहें। आप रोज देखिए ये तथाकथित मीडिया कैसे हरेक छोटे मामलों को राष्ट्रवाद से जोड़ देती है। सांप्रदायिकता अब मीडिया राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक महत्वाकांक्षी के लिए दर्शकों को परोस रही है। यह बहुत बड़ी बात है,इतना कि जब मीडिया के इस चाल को समझ लीजियेगा तबतक आप दलदल में फस चुके होंगे। 30/07/2016 को IIMC के कार्यक्रम में ज़ी न्यूज़ वाले मनोहर पर्रिकर के साथ कश्मीर समस्या में बतौर वक्ता क्या कर रहें थे ? सेना सरकार की है, सरकार ने पैलेट गन के इस्तेमाल को गलत माना। अगले दिन सेना ने भी खेद प्रकट किया। सोशल मीडिया में वो लोग पाला क्यों बदल दिए जो शुरू से पैलेट गन का वकालत कर रहें थे। सेना सरकार की है और सेना देश की है इसमें बुनियादी फर्क है इसको समझिये।
Image:Indian Express |
अर्नब गोस्वामी सरकार से कहते है कि कश्मीर पर बहुआयामी और बारीकी से की गई पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की ‘ख़बर’ ली जाए।
तटस्थ रहना और सच कहने में फर्क है। सरकार के साथ खड़े रहने मे,चाटुकारिता करने में और सचमुच का पत्रकारिता करने में बहुत फर्क है। पत्रकारिता रिपोर्टिंग के आधार पर होनी चाहिए न की पूर्वाग्रह भरे दिमाग से।
मीडिया राष्ट्रवाद को लेकर उग्र हो रहा है। वह हर दिन सेना और सीमा के नाम पर राष्ट्रवाद उभारता है। और जब ये ठंडा पड़ता है तब गो रक्षा आ जाता है।
अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी का साफ इशारा था कि उन पत्रकारों को बोलने से रोका जाय जो सरकार से सवाल कर रहें हैं। जो सभी पक्ष को सामने ला रहें हैं। पत्रकारों की इस लड़ाई में सरकार के लिए स्वर्णिम पल है कि अब सरकार से बुनियादी सवाल नही पूछा जा रहा है। नौकरी,बेरोजगारी,भुखमरी,सड़क,नाली,बिजली सारा का सारा आधारभूत संरचना ध्वस्त हो गया है। कल फेसबुक पर SCRAE का ग्रुप मिला वे लोग बता रहें थे कि तीन साल इस परीक्षा की तैयारी करते रहें और अचानक से सरकार इस परीक्षा को हटा दी जबकि इसको हटाने के लिए सरकार को ठोस वजह देनी चाहिए थी। SSC में नई नौकरियों का अकाल पड़ गया है। पिछली सरकार के मुकाबले इस सरकार ने करीब 2 लाख कम नौकरियां पैदा की। क्या यह आंकड़े भयावह मंजर पैदा नही करते। क्यों सब इन बातों पर चुप रहना पसंद कर रहें हैं ? यह नही लगता कि जो राजनीतिक पोषित राष्ट्रवाद पैदा किया गया है उसपर हमारी चुप्पी मूर्खता है और कुछ नही। यह राष्ट्रवाद हमारी समस्या तो सुलझा नही सकता लेकिन समस्या जरूर खड़ा कर दिया है। एकतरह से संप्रभुता पर हमला।
सरकारी नौकरियां अब कारपोरेट की जागीर बनने जा रही हैं। आपको नही लगता कि हमें अपनी सरकार से पूछनी चाहिए कि वह नागरिक सुविधा के लिया क्या कर रही हैं ? हमारा मिलेनियम सिटी का जब यह हाल है तब सोंचिये कागज पर उतारे गए स्मार्ट सिटी के लोग अपने शहर को कैसे देख रहें हैं?
मीडिया सवाल पूछने के लिए बने थे। निष्पक्ष रिपोर्टिंग दिखाने के लिए। अफसोस की वह सरकार की प्रचार टीम का हिस्सा बन कर रह गए।
और हर दिन कभी गाय तो कभी सेना के नाम पर हर शाम को स्टूडियों में बैठ कर अदालत लगाते रहतें है।
उनसे कहिये कि वे हमारी सवाल उठाये..नौकरी..नागरिक सुविधा..सब के सब
तटस्थ न बने सच दिखाए।
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