हमारे समय के सबसे बड़े लेखक सर्वाधिक व्यापक पहुँच वाले लेखक और वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धोड़पकर का लेख जो हर समय के लिये प्रासंगिक है। ख़ासकर इस पोर्टल का जो समय की रफ़्तार को इंगित करता है। इसलिए 'रफ़्तार' नाम रखा गया।
सन 1957 में बीआर चोपड़ा की फिल्म नया दौर आई थी, जो उस वक्त मदर इंडिया के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म साबित हुई। नया दौर की कथा संक्षेप में यह है कि एक कस्बे में एक बस आ जाती है, जिसकी वजह से वहां तांगे वालों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाती है। यह फिल्म बस वाले अमीर खलनायक के खिलाफ गरीब तांगे वालों के संघर्ष की कहानी है। बस और तांगे के बीच होड़ का समापन सचमुच दोनों के बीच दौड़ प्रतियोगिता में होता है। जाहिर है, अंत में तांगे वाले नायक दिलीप कुमार की जीत होती है।
नया दौर का फिल्मांकन भोपाल के पास नर्मदा किनारे के कस्बे बुडनी में हुआ था। उसमें भाग लेने के लिए भोपाल से कई तांगे गए थे। तांगा दौड़ में तो जीत गया, लेकिन वास्तविक जीवन में कहानी कुछ दूसरी तरफ चली गई। कुछ वक्त बाद ही भोपाल में काली-पीली टैक्सियां आ गईं, जिनसे तांगे वालों के रोजगार को खतरा पैदा हो गया। बताते हैं कि टैक्सियों का आना रोकने के लिए तांगे वालों ने कुछ टैक्सी वालों की हत्या तक कर दी, लेकिन इससे टैक्सियां रुकी नहीं और तांगों का चलन घटता चला गया। कुछ और दिनों के बाद ऑटो रिक्शा आ गए और उन्होंने तांगे और टैक्सियों, दोनों को शहर की सड़कों से बाहर कर दिया।
यह सब कथा याद करने की वजह ऑटो रिक्शा और टैक्सी वालों की हड़ताल है, जो इस समय दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में चल रही है। ये लोग वेब आधारित या स्मार्टफोन एप आधारित टैक्सियों का विरोध कर रहे हैं। वेब आधारित सेवाओं जैसे ‘उबर’ और ‘ओला’ ने आम नागरिकों के लिए नई सुविधा पैदा कर दी है और परंपरागत ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। रेडियो कैब आने के बाद दिल्ली की परंपरागत काली-पीली टैक्सियां लगभग जा चुकी हैं।
वेब आधारित सेवा में फायदा यह है कि आप जहां हैं, वहां से आपको सिर्फ मोबाइल से दर्ज करना होता है कि आपको कब व कहां कैब चाहिए, और आपको विश्वसनीय कैब वक्त पर मिल जाएगी। आपको हर वक्त यह भी जानकारी मिल सकती है कि आपके लिए आने वाली कैब इस वक्त कहां है, किस किस्म की कार है, उसका किराया कितना है? आपको किराये के लिए मोल-भाव करने की भी जरूरत नहीं, और भी कोई झंझट नहीं। ऑटो, टैक्सी वालों को खतरा इस बात से भी हो रहा है कि ‘उबर’ और ‘ओला’ बहुत बड़ी कंपनियां हैं, वे बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए किराये में भारी कमी कर रही हैं, जिससे लोग ऑटो रिक्शा की बजाय इन्हें पसंद कर रहे हैं।
यह औद्योगीकरण का एक दुखद, लेकिन अनिवार्य पहलू है कि जब नई तकनीक आती है, तो पुराने कई रोजगार खतरे में पड़ जाते हैं। वेब आधारित सेवाओं के खिलाफ लड़ने वाले ऑटो रिक्शा, टैक्सी वालों की स्थिति वही है, जो कभी तांगे वालों की थी।
जब सूचना प्रौद्योगिकी जीवन के हर क्षेत्र में आ गई है, तो उसे सार्वजनिक परिवहन में आने से कैसे रोका जा सकता था? जिन लोगों ने यह पहचाना उन्होंने उबर और ओला जैसी सेवाएं शुरू कर दीं। पहले भी तो कई लोग टैक्सी स्टैंड पर फोन करके काली-पीली टैक्सी बुलाया ही करते थे, तमाम लोगों की फोन डायरी में एक नंबर करीब के टैक्सी स्टैंड का भी होता था। उबर और ओला हजारों करोड़ रुपये की कंपनियां हैं, उबर तो बहुराष्ट्रीय कंपनी हैै। जाहिर है, यह पूंजी कैब के धंधे के मुनाफे या मुनाफे की उम्मीद से ही जुटी है। इसके अलावा इन सेवाओं के तहत कैब चलाने वाले लोगों की भी कमाई अच्छी है, क्योंकि उन्हें अच्छा-खासा काम रोज मिल जाता है। ग्राहक भी खुश हैं।
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रेडियो कैब कंपनियों को ठेका दिया गया था, लेकिन वहां से टैक्सी चलाने वाले गिरोहों ने उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। ऐसी ही कोशिश इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भी हुई थी, लेकिन हवाई अड्डा चलाने वाली निजी कंपनी ने पुलिस की सहायता से उनकी कोशिश विफल कर दी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि अंत में क्या होने की संभावना है।
हमारे दौर में यह सब ज्यादा दिखता है, क्योंकि तकनीक तेजी से बदल रही है, लेकिन यह आदिम काल से होता रहा होगा। बाबरनामा से पता चलता है कि जब बाबर की सेना बंदूक लेकर आई, तो भारत की सीमा पर कुछ छोटे राज्यों की सेना के लोग उनके सामने डट गए, क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं था कि सामने वाली सेना के पास ऐसे हथियार हैं, जिनसे वे बारूद के जरिये वार कर सकते हैं। जब किताबों की छपाई होने लगी, तो किताबों की नकल करने का काम खत्म हो गया। अब हमारी पीढ़ी के लोगों को किताबों से कितना ही भावनात्मक लगाव हो, लेकिन हमारी अगली पीढ़ियां तो मोबाइल, कंप्यूटर और टैबलेट पर ही सब कुछ पढ़ना चाहती हैं।
तकनीक को इंसान ही बनाते हैं, लेकिन अक्सर उसे नियंत्रित करना इंसानों या सरकारों के बस में नहीं होता। जिस तकनीक का वक्त आता है, उसे फिर कोई नहीं रोक पाता। पुराने रोजगारों को बचाने के लिए दुनिया भर में साम्यवादी या अन्य अधिनायकवादी सरकारों ने कई बार नई तकनीक को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसका नतीजा यह हुआ कि पुरानी तकनीक अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर रह गई। सोवियत साम्राज्य के पतन का एक बड़ा कारण यह भी था। हमारे यहां भी कई लोगों ने कंप्यूटर के आने का विरोध किया था कि इससे रोजगार घटेंगे, लेकिन अंत में यह पता चला कि कंप्यूटर के विरोध से रोजगारों का बढ़ना कम हुआ, कंप्यूटर ने तमाम नए रोजगार पैदा कर दिए।
ऑटो रिक्शा वालों से हमें कई शिकायतें होती हैं, वे अनाप-शनाप पैसे मांगते हैं, हम जहां जाना चाहते हैं, वहां जाने से रोक देते हैं, वगैरह। लेकिन हमें लूटकर वे कोई अमीर नहीं बन जाते। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक गरीब या निम्न मध्यम वर्गीय लोग हैं, जो दिन के अंत में मुश्किल से घर चलाने लायक पैसा कमा पाते हैं। वास्तविकता यह है कि ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था व तकनीक, दोनों ही गड़बड़ है। ज्यादातर ऑटो रिक्शा चालक उनके मालिक नहीं हैं, और वे उसका भारी किराया मालिक को चुकाते हैं। किराये और रख-रखाव पर खर्च करने के बाद उनके पास बहुत कम बच पाता है। इसी तरह ऑटो रिक्शा के विकल्प की तरह लगभग उसी कीमत के चार पहिया आरामदेह वाहन कुछ बड़ी कंपनियों ने बनाए हैं, लेकिन उन्हें किसी कारण से सड़क पर आने से रोका जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो हो रहा है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, आखिरकार बदलाव वही अच्छा है, जो सबके भले के लिए हो। यह समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि जो लोग छूट रहे हैं, उन्हें भी साथ लाने के लिए कोशिश की जाए।
जब हिंदी सिनेमा की अर्थव्यवस्था और अंदाज बदला, तो नया दौर और वक्त के निर्माता बीआर चोपड़ा की भी फिल्में पिटने लगी थीं। लगातार फ्लॉप पर फ्लॉप फिल्में बनाने पर उनकी मायूस टिप्पणी यह थी कि क्या करें, हमें फिल्म बनाने के अलावा और कोई काम आता ही नहीं है। बाद में टेलीविजन के दौर में महाभारत बनाकर उन्होंने वापसी की। उनके भाई यश चोपड़ा हर नए दौर में ढलते हुए कामयाब बने रहे। वक्त अपने साथ सबको बहा ले जाता है। कालाय तस्मै नम:।
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