क्या आप सचमुच में है ?

01:16:00 Manjar 0 Comments



हाय! मैं मंजर आलम आज आपको ले चलेंगे विज्ञान कथाओं की सैर कराने। इस ब्लॉग ने छः माह पूरा कर लिए। आज ब्लॉग विशेष में बेहद स्पेशल आपके लिए।
आते रहिएगा।
विज्ञान कथा, काल्पनिक साहित्य की ही वह विधा है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संभावित परिवर्तनों को लेकर उपजी मानवीय प्रतिक्रिया को कथात्मक अभिव्यक्ति देती है।

मेरी शेली की 'द फ्रन्केनस्टआईन' [1717]पहली विज्ञान कथात्मक कृति मानी जाती है।

रौशनी-से-तेज़ ( Faster-than-light) या जिसे सुपरलुमिनल (Sumerluminal)कहते है। संचार और यात्रा के उस प्रकार को कहते है जिसमें जानकारी या वस्तुओं का आदान-प्रदान रौशनी की गति से तेज़ होता है। सापेक्षता के खास सिद्धांत के अनुसार एक कण को रौशनी की गति प्राप्त करने के लिए बेहिसाब शक्ति की आवश्यकता होगी हालांकि यह सिद्धांत ऐसे कणों की मौजूदगी से इनकार नहीं करता जो रौशनी की गति से तेज़ यात्रा करने में सक्षम है।

कुछ भौतिकी वैज्ञानिक जिसे "कारगर" गति (रौशनी-से-तेज़) कहते है,इस परिकल्पना पर निर्भर करती है की ब्रह्मांडीय समय के कुछ हिस्से किसी वस्तु को लंबी दुरी तक पहुँचने में रास्ता दे सकते है जहां रौशनी अपनी सामान्य गति से साधारण ब्रह्मांडीय समय में अधिक वक्त लेगी।

यानी ये परिकल्पनीय हैं,वास्तिवक जो भी है हमें पता हैं कि लाईट की निश्चित गति है जो की 299792458 मी/से० हैं।
प्रकाश न रहें तो क्या हम देख पायेंगे ?
नही
तो वास्तव में प्रकाश एक तरह से ब्रह्माण्ड के दो कणो के बीच सूचना पहुचाता है।
तो क्या इलेक्ट्रिसिटी या इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड में भी ऐसा होता है ?
हां
हर जगज यहाँ पर आपस में फोटॉन का आदान-प्रदान होता है
इस तरह से सोंचे तो लाइट ब्रह्माण्ड मे सूचना प्रवहन का कार्य करती है।
ब्रह्माण्ड की सबसे छोटी दूरी को मापने के लिए स्पेन का उपयोग होता हैं।
इस यूनिट को हम "प्लांक लेंग्थ" के नाम से जानते हैं ।
किसी प्रोग्राम का "मैक्सिमम प्रोसेसिंग स्पीड" क्या होता हैं ?
किसी भी प्रोग्राम में एक पिक्सल को प्रोसेस करने में कम से कम लगा समय ?
हमारे ब्रह्मांड में भी समय की सबसे छोटी इकाई होती है । जो कि 5.39*10^-44 सेकण्ड्स है।
जिसे हम "प्लांक टाइम" के नाम से जानते है

हमारे ब्रह्माण्ड में सबसे छोटे पिक्सल को प्रोसेस करने में कितना समय लगेगा ?
प्लांक लेंग्थ/प्लांक टाइम
1.616199×10^−35/5.39106×10^−44 =299792458 (लगभग)
ये क्या ?
wow कमाल! यह तो स्पीड ऑफ लाइट है।
तो क्या इसलिए भी संभव हैं कि लाइट की अधिकतम स्पीड इससे ज्यादा नही हो सकती।
जिस तरह कम्प्यूटर पर हम प्रोग्रामिंग करते हैं और सब चीज प्रोग्रामिंग की तरह होता है। यानी बिल्कुल फिक्स्ड न कम न ज्यादा।
इससे एक बात साबित होती है।
क्या?
अर्थात हमारी सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग की तरह ब्रह्माण्ड में भी प्रोग्रामिंग फिक्स्ड है।
जैसा की लाइट की मैक्सिमम स्पीड जो की ब्रह्माण्ड के सॉफ्टवेयर प्रोग्राम के ट्रांजीस्टर्स की अधिकतम स्पीड है !!!

अब आते हैं समय की गणना में।
हम जैसा जानते हैं कि पृथ्वी के मुकाबले स्पेस शटल में घड़ी जरा धीरे चलती हैं। इसे हम TIME DILATION कहते हैं।
क्योंकि अधिक द्रव्यमान वाले पिंड(ex- ब्लैक होल्स) के आस पास समय की गति बहुत कम अथवा शून्य तक पहुंच जाती है।
कोई एस्ट्रोनॉट जब अपने मिशन से वापस लौटकर आता है,उसकी आयु पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के मुकाबले एक साल कम हो जाता है। (गए थे हमसे एक साल बड़ा बनकर और जब आए तो हम दोनो बराबर)
लेकिन कैसे?
इसका जवाब पदार्थ विज्ञान  नहीं दे सकता।
आपका कम्प्यूटर/मोबाइल कोई भारी ऐप या सॉफ्टवेयर खोलने से हैंग होता हो या स्लो हो जाता हो।
क्योंकि आपका कंप्यूटर में हैवी फाइल्स के पास  प्रोसेसिंग स्लो अथवा लगभग शून्य हो जाती है।
क्या इन दोनो में तुलना कर पा रहें है ?
दोनो में एक ही समानता है (ब्रह्माण्ड और कम्प्यूटर) कि दोनो की गति भारी जगह से गुजरने पर थम(slow) सी जाती है।
शायद इसलीये अबतक "ग्रेविटी" का स्त्रोत नही मिला ।
संभव हो की ग्रेविटी मात्र illusion भर ही है।

प्रमात्रा उलझाव (Quantum Entanglement) उस स्थिति को कहतें हैं जब दो वस्तुओं के एक-दूसरे पर कोई भौतिक प्रभाव पड़ने के बाद उनको अलग करने पर भी उन दोनों की परिस्थिति में एक प्रमात्रा सम्बन्ध रहता है। यदि एक वस्तु के किसी क्वाण्टम गुण को मापा जाए तो दूसरी वस्तु उसी क्षण उस से विपरीत गुण धारण कर लेती है। मसलन अगर दो विद्युदणुओं (ऍलॅक्ट्रोनों) में प्रमात्रा उलझाव पैदा कर के उन्हें एक-दूसरे से मीलो दूर कर दिया जाए और फिर उनमें से एक का स्पिन मापा जाए तो दूसरे का स्पिन उसी क्षण उसका विपरीत हो जाएगा।
अर्थात् इस ब्रह्माण्ड का एक कण दूसरे कण को प्रभावित करता है ।
भले ही ये दो कण ब्रह्माण्ड के दो अलग अलग छोर पर क्यों न हो ।
आइये फिर से आपके कम्प्यूटर की तरफ चलते है।
अपनी कंप्यूटर स्क्रीन देखिए
स्क्रीन के ऊपर वाली पिक्सल और सबसे नीचे मौजूद पिक्सल के बीच की दूरी "एक स्क्रीन" है ।
लेकिन दोनों पिक्सल्स की कंप्यूटर के कमांड सेंटर से दूरी एकसमान है ।
इस तरह मंजर का पोस्ट आप दूर बैठे पढ़ रहें होंगे लेकिन मेरा प्रभाव आप पर हो रहा है।
इसी तरह ब्रह्मांड की व्यवहार समानांतर रहती है।
(अब आप कम्प्यूटर और ब्रह्माण्ड के एकसमान व्यवहार को सोंच लीजिये।)
अब आप कहेंगे कि किसी प्रोग्राम में एरर आ जाता है यदि ठीक से प्रोग्रामिंग न किया हो तो क्या मानव में ऐसा हो पाता है?
जी हां,बिल्कुल
कुछ बच्चे जन्म से विकृत(अंधे,लुले,गूंगे) हो जाते है।
लेकिन हमारी एहसास emotions,सुख दुःख भी किसी प्रोग्राम का हिस्से हो सकते हैं ?

गर्ल फ्रेंड/बीवी को किस करते वक़्त जो महसूस हुआ वह क्या था ?
या किसी से प्यार हो जाता है ?
क्या वो भी प्रोग्राम का हिस्सा था?
वास्तव में आपकी चेतना इलेक्ट्रो केमिकल रिएक्शन से बने सर्किट मात्र भर है ।
यह सब कराया धराया "डोपेमिन" नामक केमिकल का है जो वह क्षण आते ही सर्किट में रिलीज हो जाता है।
इसमें कम्युटर में क्या समानता हैं?
जो काफी अड्वान्स कम्प्यूटर आयेंगे/ रहें है वह अपने एरर को खुद ही ठीक कर लेते है/लेंगे।
(The most powerful supercomputer in the world (in June 2015) has only circa 1015(1,000,000,000,000,000) bytes of memory, compared with circa 6 x 1023(600,000,000,000,000,000,000,000) particles contained in only 12 grams of real world unit matter.)
वह क्षण आते ही खुद से कमांड भेज देंगे। (जैसे एक अड्वान्स कम्प्यूटर उसको निर्देश दिया गया हो कि एक छ फुट आदमी को थप्पड़ लगाना है,वह परखेगा,महसूस करेगा और तब जाके रिएक्ट करेगा। one hollywood movie have such scenes name may be robopolice)
ऐसा कोई  कम्प्यूटर बना है या नही या बन रहा है,मेरे बहुत खास बचपन के मित्र अनुज बता सकते हैं। जो कि अभी गाजियाबाद में रहते है,कम्युटर साइंस के विधार्थी है।
बेशक आप अपने दिल को अपने हर एहसास के लिए जिम्मेदार किसी न किसी केमिकल को मानेगे जो कि आपके सर्किट में आपके साथ हो रहें क्षणों को देखते हुए दिमाग कमांड भेजता हो सर्किट में केमिकल flow का ।
और आपका बाहरी दुनिया से सिर्फ कणो को कणो से इंटरेक्शन ही होता हैं ।
ब्रह्मांड में मौजूद सभी कण क्वांटम-ली वेव रूप में
सुपर पोजीशन स्टेट में मौजूद रहते है। पदार्थ की तरह तब दिखता हो जब इन्हें कोई देख रहा हो या किसी भी बॉडी सेन्स द्वारा इन कणो से कनेक्टेड हो।
हमारा शरीर भी इलेक्ट्रिकल सिग्नल्स से बना हुआ है जो अपने आस पास चीजो को डिकोड करता है और अपने अनुसार एक्ट करता है।
एक खाने वाला वस्तु मिसाल के तौर पर सेब को दिमाग सेब इसलिए समझ रहा होता है क्योंकि हमारा दिमाग एक निश्चित फ्रीक्वेंसी को पढ़ के उसे सेब के रूप में पहचानता है। हर पदार्थ से अलग अलग फ्रीक्वेंसी निकलती है और उसकी पहचान उसी के अनुसार करता है। एक सेब और लकड़ी में बस  फंडामेंटल लेवल पर वाइब्रेशन फ्रीक्वेंसी ही भिन्न है।
जैसे कम्युटर अलग अलग चीजो को उसके भिन्न बाइनरी डिजिट से पहचानता है । बस इतना ही फर्क।
आइए कणो को थोड़ी डिटेल्स में समझते हैं।
कणो के दो वर्ग में बांटा गया है पहला
क्वार्क(quark) और दूसरा लेप्टान(lepton)। लेप्टान कण जौसे इलेक्ट्रान(electron) , न्युट्रीनो(neutrino)) है।  इनके साथ fundamental forces का एक group रहता है जो इन कणो से प्रतिक्रिया करता है।  ये मूलभूत बल भी ऊर्जा का संवहन विशेष तरह के कणो की पारस्परिक अदलाबदली से करते है जिन्हे gauge bosons कहते है। इसका एक उदाहरण फोटान है जोकि प्रकाशऊर्जा  का पैकेट है और electromagnetic force का संवहन करता है।
ये मूलभूत कण विभिन्न तरह के संयोजनो(मिश्रणो) से अन्य कणो जैसे प्रोटान, न्युट्रान तथा कण त्वरक मे देखे गये ढेर सारे कणो  का निर्माण करते है। इनमे anti-particles भी होते है, जोकि अपने कणो से पदार्थ(matter) बनता है और प्रतिकणो से anti-matter।
लेकिन यह सब आप नही देख सकते है इसकेलिए आपकों सूक्ष्मदर्शी का उपयोग करना पड़ेगा।
यानी आपके दिमाग को लिमिटेड सेंस के साथ डिज़ाइन किया एक प्रोग्राम मात्र है।
इस प्रोग्राम को बिलकुल तैयार किया जा सकता है।
यदि 10^16 ऑपरेशन प्रति सेकंड के लिए मानव चेतना को सिमुलेट करने में सफल रहे है तो हम पृथ्वी जैसा एक डिजिटल ग्रह तैयार कर सकते है।
यदि हम एक वीडियो गेम तैयार करते है और उसमें करैक्टर को लिमिटेड सेन्सस के साथ डिज़ाइन करे तो वीडियो गेम में मौजूद कैरेक्टर मानव की तरह behave करेगा।
वीडियो गेम में मौजूद पृथ्वी को अपना घर समझेगा।
तो क्या हम खुद एक कंप्यूटर प्रोग्राम में है ।
ऐसा हो सकता है कि किसी एडवांस ग्रह के लोगों ने  इस ब्रह्मांड को वीडियो गेम की तरह डिज़ाइन किया हो ।


कम्प्यूटर ऑफ की स्थिति में शून्य आयाम में होता है।ऑन होते ही प्रोग्राम चालू।
हम मानते हैं कि बिग बैंग थ्योरी के अनुसार This Universe create from Nothing यानी शुरू में ब्रह्माण्ड जब ऑफ था तब बिल्कुल शून्य होगा। कुछ नही।
ऑन होते ही प्रोग्राम स्टार्ट।
मुबारक हो आपको कोई कंट्रोल कर रहा है।

There is a long philosophical and scientific history to the underlying thesis that reality is an illusion. This skeptical hypothesis can be dated in as far back as ancient Greek philosophy.

The simulation hypothesis contends that reality is in fact a simulation (most likely a computer simulation), of which we, the simulants, are totally unaware.

In its current form, the Simulation Argument began in 2003 with the publication of a paper by Nick Bostrom.
Bostrom considers that the argument goes beyond skepticism, claiming that "...we have interesting empirical reasons to believe that a certain disjunctive claim about the world is true", one of the disjunctive propositions being that we are almost certainly living in a simulation.


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