आर्थिक चुनौती के 25 वर्ष

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भारत में आर्थिक सुधारों की कथा 25 साल पहले शुरू होती हैं । जब नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने। मनमोहन सिंह के ऊर्जा को महसूस किया जा सकता था वे कहते 'हम भारत को बदलेंगे, बाधा बनने वाले सभी गड़बड़ कानूनों को हटा देंगे। यह एक निर्णायक नई शुरुआत होगी।' 24 जुलाई, 1991 को अपने पहले बजट में स्पष्ट संदेश दिए की वह क्या चाहते थे?

यह वह समय था, जब देश हर तरह से काफी गहरे संकट में था। वित्तीय घाटा 8.3 फीसदी की ऊंचाई पर पहूँच चुका था। विदेशी मुद्रा कोष महज पांच अरब डॉलर था (यह अनुमान भी शायद कुछ ज्यादा ही है)। यानी इतनी कम पूंजी थी कि देश तीन महीने का आयात भी नहीं कर सकता था। आसमान पर पहुंच चुकी महंगाई लगातार बढ़ रही थी, जिससे निराशा और चिंता गहरा रही थी। जुलाई, 1990 और जनवरी, 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उधार तो मिल गया, लेकिन निवेशकों के हौसले पस्त ही थे। सोवियत संघ टूट चुका था, और पश्चिम एशिया, खासकर कुवैत को लेकर तनाव के कारण खाड़ी के देशों से आने वाले धन पर भी विराम लग गया था। परेशानी का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि तब रिजर्व बैंक के गवर्नर 2.5 करोड़ डॉलर जैसी छोटी धनराशि जारी करवाते थे, ताकि एजेंसियों का कर्ज चुकाया जा सके।

मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठित टीम को मुख्यतः  दोहरी कार्य-योजना को अमलीजामा पहनाया गया । एक तो स्थिरता के लिए अल्पकालिक कार्यक्रम बनाया, और दूसरी, दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार योजना बनाई, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अपर क्रेडिट ट्रेंच एग्रीमेंट और विश्व बैंक के स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट लोन के आधार पर बनाई गई थी। इसी समय दो बार रुपये का अवमूल्यन किया गया और बेकार के झंझट वाले लाइसेंस  को समाप्त किया गया, खासकर उन मामलों में, जहां यह उद्योगों का रास्ता रोकता था। तब आयात शुल्क में भारी कटौती की गई, उद्योगों पर राज्य के एकाधिकार को खत्म किया गया और नियम-कायदों से दबे बैंकिंग क्षेत्र को मुक्त किया गया। नतीजा बहुत नाटकीय आया। वित्तीय घाटा एक साल में ही 8.3 फीसदी से घटकर 5.9 फीसदी पर आ पहुंचा। विदेशी मुद्रा कोष 6.4 (मार्च 1993) अरब डॉलर पर पहूँच गया। दो साल में ही विकास दर इतनी बढ़ गई कि हमारे अंदर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ चल रहे कार्यक्रम को खत्म करने का आत्मविश्वास आ गया। यह उस दौर में अपनाई गई नीतियों की ही कामयाबी थी।
इन ढाई दशकों में हमने क्या हासिल किया? क्या यह पर्याप्त है? इन सवालों का जवाब इस पर निर्भर करता है कि हमारी उम्मीदें क्या थीं? जाहिर है, हम उतनी विकास दर नहीं हासिल कर सके, जितनी भारत की क्षमता है। यह उतनी नहीं थी कि हम गरीबी पूरी तरह से दूर कर सकते। लेकिन हमने सामाजिक विकास के पैमाने पर काफी सुधार किया और दुनिया में एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभरे हैं। विभिन्न पैमानों पर हमारी दस बड़ी उपलब्धियां इस तरह रही हैं।

एक तो 25 वर्ष में जीडीपी विकास दर 5.3 फीसदी से बढ़कर 7.6 फीसदी पर पहूँच गई। दूसरी, प्रति व्यक्ति आय 11,535 रुपये से बढ़कर 74,193 रुपये पर जा पहूँची। तीसरी, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 36 फीसदी से घटकर 12.4 फीसदी (विश्व बैंक 2014-15 का आंकड़ा) हो गई। चौथी, इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को खोला गया। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम के तहत 2015 तक 25,518 किलोमीटर सड़कें बनीं। इतना ही नहीं, 1991 में सिर्फ 42 फीसदी लोगों तक बिजली पहुंचती थी, जो 2012 में बढ़कर 78.7 फीसदी हो गई। टेलीफोन की पहूँच भी 0.67 फीसदी लोगों के पास थी, जो बढ़कर 79.98 फीसदी हो गई। पांचवीं उपलब्धि, नागरिक उड्डयन को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया, जिससे इस क्षेत्र में विदेशी निवेश भी आया। आज देश में कई निजी एयरलाइंस काम कर रही हैं और हवाई यात्रा की गुणवत्ता भी काफी सुधरी है। छठी, बैंकिंग क्षेत्र को खोलने से कई घरेलू और विदेशी निजी बैंक खुले, जिससे उपभोक्ताओं को नए विकल्प मिले। सातवीं, भारतीय अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी। 2014 तक देश में ऐसे हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स की संख्या 1.98 लाख पहूँच गई थी। आठवीं, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत मिलने से दुनिया भर के निवेशकों ने भारी मात्रा में भारत में निवेश किया। इसी तरह, भारत से विदेश में होने वाला निवेश भी लगातार बढ़ा है। नौवीं उपलब्धि है, नई संचार नीति ने भारत को सॉफ्टवेयर उद्योग की ताकत बना दिया। इससे हमें विप्रो, इन्फोसिस, टाटा कंसल्टेंसी और एचसीएल जैसी कंपनियां मिलीं, जिन्होंने नए स्टार्टअप की भूमिका बनाई। और दसवीं, मानव विकास सूचकांक में भारत की उपलब्धियां। हालांकि यह बहुत बड़ी नहीं रही है। इस मामले में भारत ने 1.48 फीसदी की दर से विकास किया है। कुछ मामलों में अच्छी प्रगति भी दिखी है, जैसे मातृ मत्यु दर प्रति एक लाख पर 437 से घटकर 2011-13 में 167 पर पहुंच गई। इसी तरह, शिशु मृत्यु दर भी प्रति एक हजार पर 80 से घटकर 40 पर पहूँच गई। लेकिन इस मामले में अभी लंबी दूरी तय करनी है।

कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बहुत कुछ किया जाना शेष है। मसलन, ऊंची विकास दर को बरकरार रखना। गरीबी को पूरी तरह खत्म करना। शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था को सुधारना और इसे कौशल विकास से जोड़ना। हर साल 90 लाख लोगों को रोजगार देने की क्षमता विकसित करना, ताकि देश की युवा आबादी का फायदा उठाया जा सके। तकनीक और आधार जैसे डिजिटल उपायों का इस्तेमाल करके प्रशासन की गुणवत्ता को सुधारना। और सबसे जरूरी है कि केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर प्रशासन की संस्कृति को सुधारना। इसके साथ कारोबार करने को भी आसान बनाया जाए, जिससे भारत में उद्यमिता विकास की संभावनाएं पैदा होंगी।

अभी हम 7.6 फीसदी की दर से विकास कर रहे हैं। अगर केंद्र, राज्य और निजी क्षेत्र मिलकर टीम इंडिया के रूप में आगे बढ़ें, तो इससे बहुत कुछ हासिल हो सकता है। दुनिया में सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ हम बदलाव के दरवाजे पर खड़े हैं। अगर हम एक दशक तक दस फीसदी की दर से आगे बढ़ते हैं, तो एक नया इतिहास बना देंगे। तब हम उन बुरे प्रभावों से मुक्त# हो सकेंगे, जो हमें उपनिवेश काल ने दिए हैं। अभी तक की यात्रा बेशक काफी अच्छी रही है, लेकिन अब भी हमें लंबी दूरी तय करनी है।

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आदरणीय डॉ मनमोहन सिंह जी ,

पिछली सदी से करना चाहता हूँ. मई 1991 की एक रात थी जब इस देश के सपने छिन्न भिन्न होकर श्रीपेरम्बदूर के एक मैदान में बिखर गए थे.
शोकग्रस्त राष्ट्र, आहत राष्ट्र, अपने स्वप्नभंग से मुरझाए राष्ट्र और एक नाउम्मीद राष्ट्र ने कांग्रेस को जनादेश दिया कि वो राष्ट्र नायक के स्वप्न को पूर्ण करे.
ऐसे में मैंने पहली बार आपको टीवी पर एक कंगाली के मुहाने पर खड़े देश के वित्तमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए देखा. पूर्ववर्ती सरकारों के 2 वर्षों के कुशासन ने भारत को इस स्थिति में पहुँचा दिया था. इससे पहले मैंने जब क्रिकेट बैट खरीदने के लिए इंदौर के विमल स्पोर्ट्स पर 80 रु का भुगतान करने के लिए 100 रु का नोट दिया था तो मुझे याद है उस पर लिखा था "मैं धारक को 100 रु अदा करने का वचन देता हूँ" और नीचे आपके दस्तखत थे "मनमोहन सिंह". ये कुछ 1985-86 की बात रही होगी.
आपने आते ही आर्थिक सुधार लागू किये. कड़े क़दम उठाए. विपक्षी वार सहे लेकिन बाज़ार और अर्थव्यवस्था को ऐसी गति दी कि गिरवी पड़ा सोना वापस भारत आ गया. देश अम्बेसेडर कार से आगे बढकर मारुती एस्टीम और देवू सिएलो तक पहुँचने लगा. फटफटी मोटरसाइकिल होने लगी..राजदूत की जगह स्प्लेंडर चलने लगी. लगभग उसी दौर में टीवी ने सरकारी नियंत्रण से मुक्ति की शुरुआत हुई शुरू हुए “सेटेलाइट टेलीविज़न एशियन रीज़न” यानी STAR टीवी के 5 चैनल.
आप इधर अर्थव्यवस्था को दुरुस्त कर रहे थे और उधर मेरी ही उम्र का एक लड़का क्रिकेट के मैदान पर उभरते भारत की तस्वीर अपने बल्ले से अंकित करने लगा था.
बजाज का विज्ञापन “बुलन्द भारत की बुलन्द तस्वीर –हमारा बजाज” एक गौरव की अनुभूति देता था. ये सब तब था जब भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार अमेरिकी कार कम्पनी जनरल मोटर्स और फोर्ड मोटर्स के टर्नओवर से भी छोटा था. अमेरिकी शहर डेट्रॉइट का बजट भारत के बजट से बढ़कर था.
विरोधी अब भी राष्ट्रनिर्माण में नहीं मंदिर मस्जिद तोड़ने फोड़ने में व्यस्त थे. जैसे एक आत्मघाती उन्माद उन पर तारी हो.
राष्ट्रनायक की असमय मृत्यु से आहत उनके परिवार ने उस दशक के बड़े हिस्से में राजनीति से दूरी बनाए रखी जिससे कांग्रेस कमज़ोर होती गयी. भारत माँ का अर्थतंत्र मज़बूत हो रहा था लेकिन दिल कमज़ोर हो रहा था. इसी के चलते विरोधी 1996 में फिर सरकार बनाने में सफल रहे. इस कार्यकाल में आपने राजनैतिक कर्तव्य को बखूबी अंजाम देते हुए अपनी पहली पारी समाप्त करने से पहले देश की अर्थव्यवस्था को ऐसी दिशा और गति दे दी थी कि अगले दो दशक में देश विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला था.
आपकी आर्थिक नीति इतनी प्रबल थी कि आपके घोर विरोधी भी उसी को आगे बढाने पर मजबूर थे. आपने जो मार्ग बताया था वही एकमात्र मार्ग था जिसपर देश को चलना था.
1996 से 99 कि अस्थिरता से तंग आकर देश ने अटलजी को और उनके सहयोगियों को इतना भर बहुमत दिया कि वो 5 साल पूरे कर सकें और 5 साल चलने वाली पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार कहला सकें.
आपकी नीतियों पर चलते हुए आर्थिक उदारवाद आगे बढ़ा लेकिन अकर्मण्य सरकार के चलते देश ने संसद पर हमले, कंधार काण्ड, गुजरात दंगे, कारगिल युद्ध, कई आर्थिक घोटालो और टीवी पर रिश्वत लेते एक पार्टी के अध्यक्ष को पहली बार लाइव देखा.
2004 के चुनाव घोषित हुए और राष्ट्रहित के लिए सक्रीय राजनीति में वापसी कर चुके राष्ट्रनायक के परिवार ने कमर कस ली. उस महासंग्राम में एक ओर सजी धजी केसरिया सेना थी जिसे मीडिया का खुला समर्थन प्राप्त था तो दूसरी ओर एक विधवा और उसका जवान बेटा. कांग्रेस को कोई चैनल कवर नहीं करता था और वाजपाई बड़ी बड़ी रैलियां करते थे.
बड़े फ़िल्मी सितारे रोज सत्ता की शहद के लिए विरोधी पक्ष में शामिल होने लगे. टीवी समाचार इसी से भरे रहने लगे. कमल के फूल के आगे खड़े सितारे और कैमरे की चमकती हुई फ़्लैश लाइट्स. उस दौर में कांग्रेस के शामिल होने वाले सबसे बड़े सितारे का नाम था कॉमेडियन असरानी. शायद उनकी ग़ैरत ने उन्हें ललकारा था. या शायद सिर्फ वो ही ग़ैरतमंद थे.
एक ओर सत्ताबल और धनबल था तो दूसरी ओर आत्मबल और सेवाभाव. देश की जनता सब देख समझ रही थी लेकिन मौन थी. मंथन कर रही थी. सही गलत को परख रही थी.
परिणाम कई पंडितों के लिए अप्रत्याशित थे. धनबल ने आत्मबल के आगे घुटने टेक दिए थे. जनता ने राष्ट्रनायक की कुर्बानी की फिर लाज रख ली थी. शहीदों को भुलाया नहीं गया था. वो टीवी पर नहीं थे लेकिन दिल में थे.
पूरी पार्टी ने सोनिया जी को नेता चुना और सोनिया जी ने अपने परिवार की त्याग की परम्परा को आगे बढाते हुए बड़ी विनम्रता से प्रधानमन्त्री का पद ठुकरा दिया. वो जानती थी कि देश की अर्थव्यवस्था को डॉ मनमोहन सिंह की नहीं, RBI गवर्नर मनमोहन सिंह की नहीं, वित्तमंत्री मनमोहन सिंह की नहीं बल्कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की ज़रूरत है. 100 करोड़ के सपने को एक अर्थशास्त्री मुखिया चाहिए जो बदलती विश्वव्यवस्था में भारत का नाम नई ऊँचाइयों तक पहुँचा सके. और फिर शुरू हुई आपकी दूसरी पारी.
प्रधानमन्त्री डॉ मनमोहन सिंह की पारी.
मैं यहाँ आपको आपके कार्यकाल की उपलब्धियाँ नहीं गिनाऊंगा क्यूँ कि उनका तो अंत ही नहीं है.
बहुत संक्षेप में ये कहूँगा कि राष्ट्रनायक के 21वीं सदी में जाने के सपने को अगर पूरा किया तो आपने किया. 30 करोड़ गरीब लोगों को गरीबी से निकाला तो आपने. बच्चो को स्कूल में भोजन और उस माध्यम से शिक्षा दी तो आपने. देश के गद्दारों को फांसी के फंदे तक पहुँचाया तो आपने और 2009 में आपको कमज़ोर प्रधानमंत्री कहकर उपहास करने वाले 1990-92 के उस कुख्यात महारथी को ज़मीन दिखाई तो वो भी आपने ही दिखाई.
देश को चाँद और मंगल तक पहुँचाने का कार्य इसी दौर में हुआ और दुनिया ने भारत की आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक शक्ति का लोहा माना तो इसी दौर में माना.
मैंने न सम्राट अशोक का दौर देखा है और न अकबर महान का लेकिन मेरे जीवन काल में भारत का स्वर्णयुग अगर कोई है तो वो आपका दिया हुआ दौर ही है. वैश्विक अर्थव्यवस्था के पतनोन्मुख होने पर भी आपने भारत की नाव का मस्तूल थामे रखा और हिचकोले तक न लगने दिए.
आपके वित्तमंत्री रहते मुझे मेरी पहली नौकरी मिली थी और पगार थी 1200 रु प्रतिमाह. आपके प्रधानमन्त्री के रूप में रिटायर होते समय इसके पीछे कई शून्य और जुड़ गए थे. और हाँ वो मेरा हमउम्र लड़का जो आपके वित्तमंत्री रहते अपने बल्ले से दुनिया जीतना सीख रहा था वो भी आपके कार्यकाल के अंतिम दिनों में राष्ट्रनायक और भारत रत्न के रूप में रिटायर हुआ.
विरोधियों ने जो षड्यंत्र राष्ट्रनायक को बदनाम करने के लिए रचे थे वैसे ही आपके ख़िलाफ़ भी रचे गए. फ़र्ज़ी घोटालो के आरोप लगाए जाने लगे, अराजक आंदोलनों से देश को अस्थिर किया गया. काले धन की झूठी कहानियों से जनता को बरगलाया जाने लगा.
दुनिया की कोई अदालत आपको सम्मन भेजे, विरोधी कितने ही आरोप लगाएँ, स्वयं ईश्वर आपके ख़िलाफ़ गवाही देने आ जाए तो भी मैं आपके साथ खड़ा रहूँगा. आपने मेरे राष्ट्रनायक के सपनों को पूरा किया है. मेरे सपनो को पूरा किया है.
इस दौर में हम में से हर भारतीय ने अकल्पनीय तरक्की की. इतनी तरक्की कि हम अपने माँ बाप से सवाल करना सीख गए कि आपने हमारे लिए क्या किया. एक ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की चकाचौंध में कुछ लोग ये भूल गए कि जब आप वित्तमंत्री बने तो देश के पास तेल खरीदने तक के पैसे न थे. डेट्रॉइट का बजट भारत के बजट से अधिक था. कुछ लोग अपना इतिहास भूल सकते हैं लेकिन मैं उसे नहीं भूला हूँ. मैं नहीं भूला हूँ बल्ले से दुनिया जीतने वाले मेरे हमउम्र लड़के को, नहीं भूला हूँ “बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर” वाले विज्ञापन को और न भूला हूँ मेरी 1200 रु प्रतिमाह की उस पहली तनख्वाह को जिससे मैंने अपने स्वर्गीय पिता के लिए घडी खरीदी थी.
मैं नहीं भूला हूँ आपकी सादगी, कर्तव्यपरायणता, बुद्धिमत्ता और ईमानदारी को.
मैं नहीं भूला हूँ 100 रु के उस नोट को जिसपर सिर्फ़ आपके दस्तखत उस कागज़ के टुकड़े को100 का नोट बनाते थे.
इस सदी में आप ही मेरे राष्ट्रनायक हैं.

आपका ऋणी
एक भारतीय मध्यमवर्गीय
निलेश शेवगाँवकर
इंदौर

नोट: आंकड़े 'दैनिक हिन्दुस्तान' में प्रकाशित पूर्व राज्यसभा संसद एन के सिंह के लेख से ली गई हैं। इस लेख के कुछ नीतिगत बातें एन के सिंह के लेख से प्रभावित हैं।


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